बालिका संरक्षण गृहों में लड़कियों के यौन शोषण की हिला देने वाली दास्तानें एक के बाद एक सामने आ रही हैं। एनजीओ की आड़ में चलने वाले इन सेक्स रैकेटों के संचालक समाज के रसूखदार और दबंग हैं। बिहार के मुजफ्फरपुर में जिस शेल्टर होम में चल रहे रैकेट का पर्दाफाश हुआ, उसका मुख्य अभियुक्त पीआईबी से मान्यता प्राप्त पत्रकार बताया गया है। आरोपों के मुताबिक, उसके शेल्टर होम में लड़कियों पर यौन जुल्म ढाया जा रहा था और 34 लड़कियों के साथ दुष्कर्म की पुष्टि हो गई है। मुजफ्फरपुर की तरह ही उत्तर प्रदेश के देवरिया के नारी संरक्षण गृह में भी देह व्यापार कराए जाने के आरोप लगे हैं। संरक्षण गृह पर पुलिस छापे में 42 में से 18 लड़कियां गायब मिलीं।
हैरानी है कि तमाम कानूनों, एजेंसियों, बाल सुधार अभियानों, संस्थाओं और आयोगों के अलावा पुलिस और सरकार की विशाल मशीनरी हाथ पर हाथ धरे ही बैठी रहती, अगर टाटा इन्स्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस (टिस) के छात्रों का एक अध्ययन दल बिहार न पहुंचता और वहां बाल संरक्षण में काम कर रहे एनजीओ की सोशल ऑडिट न करता। पिछले साल अगस्त में नीतीश कुमार सरकार ने ये काम टिस को सौंपा था। इस साल अप्रैल में टिस अध्ययन दल ने जो रिपोर्ट बिहार सरकार को सौंपी उसमें 6 शॉर्ट स्टे होम्स में और 14 शेल्टरों में बाल यौन उत्पीड़न के मामले बताए गए थे।
सरकार को इस पर फौरन ध्यान देना था, लेकिन पहली एफआईआर में भी करीब दो महीने का वक्त लग गया। देर सबेर जो कार्रवाई अब तक सामने आई है, उसमें एनजीओ संचालक की गिरफ्तारी, 14 सरकारी अधिकारियों का निलंबन और कुछेक तबादले शामिल हैं। कुछ के नाम सर्च वारंट हैं और एक आरोपी को भगौड़ा घोषित किए जाने की कार्रवाई चल रही है। बिहार सरकार एनजीओ की मदद से 110 शेल्टर होम या संरक्षण गृह चलाती है। उत्तर प्रदेश के देवरिया में भी ऐसा ही एक संरक्षण गृह सामने आया जो एक दंपत्ति चला रहा था। वहां से भी 24 लड़कियों को छुड़ाया गया और तीन लोगों की गिरफ्तारी हुई है। कुछ समय पहले झारखंड के रांची में मिशनरीज़ ऑफ चैरिटी की दो ननों पर बच्चा चोरी का आरोप लगा था।
दुनिया की कुल बाल आबादी में 19 फीसदी बच्चे भारत में हैं। देश की एक तिहाई आबादी में, 18 साल से कम उम्र के करीब 44 करोड़ बच्चे हैं। सरकार के ही एक आकलन के मुताबिक, 17 करोड़ यानी करीब 40 प्रतिशत बच्चे अनाश्रित हैं जो मुश्किल हालात में किसी तरह बसर कर रहे हैं। सामाजिक-आर्थिक और भौगोलिक तौर पर वंचित और उत्पीड़ित बच्चों के अधिकारों की बहाली और उनके जीवन, शिक्षा, खानपान और रहन-सहन पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। महिला और बाल कल्याण के लिए 1966 में बना राष्ट्रीय जन सहयोग और बाल विकास संस्थान (एनआईपीसीसीडी) बच्चों और महिलाओं के समग्र विकास के लिए काम करता है। बच्चों पर केंद्रित राष्ट्रीय बाल नीति, 2013 में अस्तित्व में आ पाई। बच्चों पर यौन अपराधों को रोकने के लिए पोक्सो कानून 2012 में लाया गया। 2014 में जुवेनाइल जस्टिस (केयर ऐंड प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन) बिल लाया गया। जेजे एक्ट 2000 में बना था, 2006 और 2011 में दो बार इसमे संशोधन किए गए।
जहां तक बाल कल्याण नीतियों की बात है तो समन्वित बाल सुरक्षा योजना (आईसीपीएस) चलाई जा रही है, जिसका आखिरी आंकड़ा 2014 तक का है। इसके मुताबिक 317 स्पेशलाइज्ड एडॉप्शन एजेंसियां (एसएए) और अलग-अलग तरह के 1501 होम्स के लिए 329 करोड़ रुपए आवंटित किए गए और 91,769 बच्चों को इनका लाभ प्राप्त हुआ। आईसीपीएस के तहत ही देश के 250 से ज्यादा जिलों में चाइल्डलाइन सेवाएं चलाई जा रही हैं। बच्चों के उत्पीड़न और उनकी मुश्किलों का हल करने का दावा इस सेवा के माध्यम से किया जा रहा है, लेकिन लगता नहीं है कि मुजफ्फरपुर या देवरिया में बच्चियों की चीखें इन चाइल्डलाइन्स तक पहुंच पाई हों। ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा तो लगता है एक क्रूर मजाक बन कर रह गया है।
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2007 में विधायी संस्था के रूप में गठित, नेशनल कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स (एनसीपीसीआर) के एक आंकड़े के मुताबिक भारत में इस समय 1300 गैरपंजीकृत चाइल्ड केयर संस्थान (सीसीआई) हैं यानी वे जुवेनाइल जस्टिस एक्ट के तहत रजिस्टर नहीं किए गए हैं। देश में कुल 5850 सीसीआई हैं। और कुल संख्या 8000 के पार बताई जाती है। इस डाटा के मुताबिक, सभी सीसीआई में करीब 2,33,000 बच्चे रखे गए हैं। पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने देश में चलाए जा रहे समस्त सीसीआई को रजिस्टर कराने का आदेश दिया था। लेकिन सवाल पंजीकरण का ही नहीं है। पंजीकृत तो कोई एनजीओ करा ही लेगा क्योंकि उसे फंड या ग्रांट भी लेना है, लेकिन कोई पंजीकृत संस्था कैसा काम कर रही है, इस पर निरंतर निगरानी और नियंत्रण की व्यवस्था तो रखनी ही होगी। डिजिटलाइजेशन पर जोर के बावजूद सरकार अपने संस्थानों और अपने संरक्षण में चल रहे संस्थानों की कार्यप्रणाली और कार्यक्षमता की निगरानी का कोई अचूक सिस्टम विकसित नहीं कर पा रही है।
बलात्कार, हत्या, उत्पीड़न, शोषण - हर अन्याय को रोकने के लिए कानून है और कानूनों की आंख में धूल झोंकते हुए अपराधी धड़ल्ले से अपना काम कर रहे हैं। और फिर एक बार बात लौटकर जनता के नजरिए और समाज के रवैये पर भी आती है। हमें अपने अंदर भी झांकना होगा। पितृसत्तात्मक ढांचे और वर्चस्व की कट्टरता को तोड़ न पाने के अपने भय, असमंजस और संकोच को देखना होगा। एक समाज के तौर पर हमें देखना होगा कि हम कितने बीमार और अशक्त होते जा रहे हैं और एक नागरिक के तौर पर कितने निकम्मे और कायर। भीड़ बनकर जान लेने वाले लोग, सामाजिक जवाबदेही या भागीदारी के लिए एकजुट नहीं होंगे तो सरकार की ही नहीं, एक देश के तौर पर भी यह शर्मनाक विफलता है।
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