गुजरात मॉडल एक खास किस्म के नैरेटिव यानी आख्यान पर आधारित था। नैटेरिटव यह था कि जिस तरह अभी तक सरकारें चलती रही हैं, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में ऐसे नहीं चलेगी। सरकार ज्यादा प्रभावी होगी, छोटी होगी और भ्रष्टाचार मुक्त होगी। नौकरशाही को नए नेतृत्व में वे नतीजे देने होंगे जिसकी इसमें क्षमता है और पिछली सरकारों की नाकामी के कारण ये ऐसा नहीं कर पाए।
नौकरशाही के नतीजे कार्यशैली बदल देंगे और इसमें आर्थिक विकास का मुद्दा सबसे ऊपर होगा। यह वह आख्यान था जिसके कारण वैश्विक मीडिया (और राष्ट्रीय मीडिया का भी) का ध्यान मोदी की तरफ गया। इस बात पर कुछ अलग-अलग राय है कि बीजेपी सरकार के शासनकाल में (90 के आखिरी सालों से आज तक) और खासतौर से मोदी के नेतृत्व में गुजरात की विकास दर वास्तव में क्या थी। लेकिन इस बात पर कोई विवाद नहीं है कि उस सरकार में आर्थिक विकास को आगे बढ़ाने का एक दृढ़ संकल्प जरूर था।
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उस दौर में जब मैं नरेंद्र मोदी से मिला था तो उन्होंने कहा था वह गुजरात की जीडीपी के विकास की दर 15 फीसदी तक ले जाने चाहते हैं ताकि देश की विकास दर 10 फीसदी हो सके। मोदी ने यह बात बहुत गंभीरता से कही थी। इसी अवधि के दौरान गुजरात सरकार के कामकाज की उस शैली में भी बदलाव आया था जिससे राज्य की जनता पर शासन करने और राज्य की न्याय व्यवस्था में बदलवा हो गया था। 2002 की हिंसा को कभी भुलाया नहीं जा सका है, और भारत के इतिहास में मोदी एकमात्र ऐसे नेता हैं जो एक बड़े दंगे के दौरान सत्ता में थे और उसके बाद भी सत्ता में बने रहे।
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लेकिन इस सबके बावजूद गुजरात के सभी 5 करोड़ लोगों को एक मजबूत आर्थिक विकास देने का उनका इरादा स्पष्ट था।
मुझे लगता है कि अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने के लिए जो कुछ भी संभव था, उस पर ध्यान केंद्रित करने की कोशिश मोदी के दृष्टिकोण से अब गायब हो चुकी है। काश मेरा यह मानना गलत हो, लेकिन असलियत यही है। हाल ही में सरकार ने जो कुछ किया है उसकी न तो किसी ने मांग उठाई थी और न ही इससे देश को किसी किस्म का कोई फायदा होने वाला है। जी हां, मेरा मतलब एनडीए सरकार द्वारा लाए गए तीन कदमों का है, एक है नागरिकता संशोधन कानून, दूसरा है जनसंख्या रजिस्टर यानी एनपीआर और तीसरा है नागरिकों का राष्ट्रीय रजिस्टर यानी एनआरसी।
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विदेश मंत्रालय ने इस बात पर काफी जोर दिया कि यूरोपीय संसद ने सीएए की निंदा करने वाले प्रस्ताव को पेश किया। हमें बताया गया कि यह प्रस्ताव भारत के लिए बाध्यकारी नहीं है और यह सच भी है। लेकिन फिर भी सरकार ने इसे गंभीरता से लेने की कोशिश की और यह सुनिश्चित किया कि प्रस्ताव पर वोट छह सप्ताह तक स्थगित कर दिया जाए। यहां कहना जरूरी है कि यह पहला मौका है जब भारत की आंतरिक नीतियों का मूल्यांकन और निंदा एक महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय संस्था कर रही है।
भारत की आलोचना के प्रस्ताव को टाल दिए जाने में कामयाबी के अलावा मौजूदा सरकार इस आरोप से बचाने के लिए कुछ भी नहीं कर पाई कि भारत एक रास्ते पर जा रहा है जिससे पूरा विश्व चिंतित है। यह चिंता का विषय है क्योंकि वैश्विक पूंजी का निवेश भारत में इसके लिए दुनिया का भारत को लेकर नजरिया सकारात्मक होना बहुत जरूरी है। अरगर कोई देश अपने ही नागरिकों की बड़ी संख्या के साथ युद्ध जैसी स्थिति में हो और करोड़ों लोगों को शक की नजर से देखे, तो उस देश की अर्थव्यवस्था स्वस्थ नहीं हो सकती।
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शनिवार को जो बजट पेश किया गया, उसमें कहीं भी ऐसा आभास नहीं हुआ कि सरकार को अर्थव्यवस्था के संकट की समझ है। इससे वे लोग भी खुश नहीं हैं जो चाहते थे कि कुठ मजबूत कदम उठाए जाएं। अगर सरकार समस्या को समझे तभी उसमें सुधार का रास्ता भी निकाल सकती है।
भारत की विकास दर इस समय पिछले एक दशक में सबसे कम है। अगर यही स्थिति रही तो जो सरकार ने जिन नौकरियों और समृद्धि का वादा किया है और जिसके आधार पर इसे वोट मिले हैं, उससे जल्द ही लोगों का मोहभंग होना शुरु हो जाएगा।
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यह स्पष्ट हो चुका है कि मोदी सिर्फ बीजेपी के वैचारिक एजेंडे को ही लागू करना चाहते हैं और इसका बहुत सा हिस्सा तो पूरा हो भी चुका है। बीजेपी की बुनियाद जिन तीन बड़े मुद्दों पर आधारित है वे थे अयोध्या, कश्मीर और नागरिक संहिता। राम मंदिर तो सुप्रीम कोर्ट ने तोहफे में दे दिया, कश्मीर मुद्दे पर भी अदालत ने इसे खुली छूट दे दी। तीन तलाक का अपराधीकरण किया जा चुका है। और अब अगर कुछ बचा है तो सिर्फ बहुविवाह जिसके बाद बीजेपी अपनी पूर्ण विजय का ऐलान कर देगी।
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इन सभी घटनाक्रमों को देखें तो पता चलता है कि मोदी को फिर भी बहुसंख्यवाद के रास्ते की जरूरत क्या है? जब आपके घोषणा पत्र में बीते तीन दशक से जगह पाने वाले अहम मुद्दे पूरे हो चुके हैं, तो फिर सीएए-एनआरसी जैसा नया मोर्चा खोलने की जरूरत क्या है? यही वह बात जो गुजरात में मोदी का कार्यकाल और देश को लेकर उनकी महत्वांकांक्षा के नजरिए से हैरान करने वाला है।
ऐसे में देश को इंतजार था कि वैचारिक स्तर पर अपना मंतव्य पूरा करने के बाद इस बजट में मोदी का ध्यान अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने पर होगा, लेकिन शनिवार को पेश बजट से ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता।
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