मोदी सरकार ने उच्च शिक्षा क्षेत्र को भी कॉरपोरेट हाथों में सौंपने की तैयारी कर ली है। हाल-फिलहाल में सरकार ने जिस कदर आईआईटी जैसे संस्थानों को दिए जाने वाले पैसे में कमी कर उन्हें लोन पर गुजारा करने के रास्ते पर धकेल दिया है, उसका नतीजा यह होगा कि ये संस्थान दिवालिया हो जाएंगे और आर्थिक रूप से कमजोर छात्रों का जो होगा, उसका तो अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है।
हाल ही में जब केरल से सीपीएम सांसद के.के. रागेश ने कहा कि नरेंद्र मोदी सरकार उच्च शिक्षा पर मुकेश अंबानी और कुमार मंगलम बिड़ला की रिपोर्ट को अमली जामा पहनाने में जुटी है तो वह सही ही कह रहे थे। विश्वविद्यालयों की फीस बढ़ाना, उन्हें आंतरिक संसाधनों से पैसे जुटाने के लिए मजबूर करना, कैंपस का गैर-राजनीतिकरण करना, शिक्षा को उद्योग-उन्मुख बनाना, निजी और विदेशी विश्वविद्यालयों की स्थापना जैसे कदम इस रिपोर्ट में सुझाए गए हैं।
उदाहरण के लिए मुंबई के पोवई स्थित आईआईटी का रुख करें। वहां एक छात्र पर अमूमन सालाना 10 लाख रुपये का खर्च बैठता है। इसमें रहना, खाना, पढ़ाई सब शामिल है। 2012-13 में मानव संसाधन विकास (एचआरडी) मंत्रालय प्रत्येक छात्र पर सालाना 5 लाख रुपये उपलब्ध करा रहा था। बाकी का इंतजाम संस्थान फीस, एफडी पर मिलने वाले ब्याज आदि से करता था। साल 2015-16 में मंत्रालय ने यह राशि घटाकर तीन लाख कर दी। यह हाल अकेले आईआईटी ही नहीं, बल्कि देशभर के सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों का है।
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आखिर यह सब कैसे और क्यों किया जा रहा है? साल 2016 तक आईआईटी में सेंट्रल फंडिंग दो मदों में होती थी- योजनागत और गैर योजनागत। वेतन, फेलोशिप वगैरह योजनागत मद में आते थे, जबकि इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट और नए कोर्स शुरू करने का खर्च गैर-योजनागत मद में। साल 2017 में एचआरडी मंत्रालय ने पुरानी व्यवस्था को रद्द कर दिया और तीन मद बनाते हुए इन्फ्रास्ट्रक्चर और विकास को तीसरी श्रेणी में डाल दिया। स्टाफ की सैलरी और फेलोशिप के लिए तो सरकार पैसे देती रही, लेकिन इन्फ्रास्ट्रक्चर और विकास से हाथ एकदम खींच लिए। आईआईटी को कहा गया कि अगर वे नए कोर्स शुरू करना चाहते हैं तो अतिरिक्त क्लास रूम से लेकर नए छात्रों और फैकल्टी के लिए हॉस्टल-आवास समेत तमाम सुविधाएं विकसित करने के लिए उन्हें केनरा बैंक तथा एचआरडी मंत्रालय की संयुक्त उद्यम हायर एजुकेशन फाइनेंसिंग एजेंसी (एचईएफए) से लोन लेना पड़ेगा।
आईआईटी, पोवई के एक शिक्षक ने बताया कि पिछले साल संस्थान ने एचईएफए से 400 करोड़ का लोन लिया था और इस साल अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए अतिरिक्त 400 करोड़ के लोन के लिए अप्लाई किया है। लोन सालाना 10 फीसदी के ब्याज पर मिलता है और इसे 10 साल में चुकाने की बाध्यता होती है। आईआईटी पोवई को फीस और फिक्स्ड डिपॉजिट से सालाना लगभग 80 करोड़ रुपये मिलते हैं। इसलिए अगर यह अतिरिक्त 400 करोड़ का लोन मंजूर हो गया तो दो ही साल में आईआईटी पर लोन देनदारी 800 करोड़ हो जाएगी और इसका सालाना ब्याज ही 80 करोड़ होगा, जबकि संस्थान की कुल आय ही इतनी है। यानी उसकी सारी आय तो लोन का ब्याज चुकाने में खत्म हो जाएगी।
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एक दूसरे शिक्षक ने कहा, “बात इतनी ही नहीं है। अगले दस साल के दौरान संस्थान को और भी पैसे लेने ही पड़ेंगे और तब उसके लिए लोन को चुकाना असंभव हो जाएगा। नतीजा होगा कि आईआईटी पोवई डिफॉल्टर हो जाएगा और उसे भी एयर इंडिया की तरह बेचने की नौबत आ जाएगी। दरअसल पूरा खेल भी यही है। ऐसा होने पर कॉरपोरेट को औने-पौने दाम पर यह विश्वस्तरीय संस्थान सौंप दिया जाएगा, जहां उन्हें सबकुछ तैयार मिलेगा। और तब वे छात्रों से मोटी-मनमानी राशि वसूलेंगे।”
एक अन्य शिक्षक ने कहा, “जैसा जेएनयू और अन्य केंद्रीय विश्वविद्यालयों तथा संस्थानों के साथ हो रहा है, वैसा ही यहां भी करने की योजना है। सरकार का एजेंडा आर्थिक रूप से कमजोर छात्रों को उत्कृष्ट संस्थानों से अलग रखने का है। तब आपको कॉरपोरेट द्वारा निर्धारित कीमत पर उच्च शिक्षा खरीदनी होगी और अगर आपके मां-बाप के पास पैसे होंगे तो आप भाग्यशाली होंगे, वर्ना आपको लोन लेना पड़ेगा। हम अमेरिकी नक्शे-कदम पर हैं। पर यह भूल रहे हैं कि हमारे लगभग आधे छात्र आर्थिक रूप से कमजोर तबके से आते हैं, और तब इस वर्ग के लिए कुछ भी नहीं रहेगा।”
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इस मामले पर जेएनयू में सेंटर फॉर इकोनॉमिक स्टडीज एंड प्लानिंग के एक अर्थशास्त्री ने कहा, “अभी केवल 8 प्रतिशत भारतीय स्नातक हैं। आने वाले समय में यह आंकड़ा और भी नीचे चला आएगा। यह भी गौर करने वाली बात है कि अमेरिकी तर्ज पर शैक्षिक लोन हमारे लिए मुफीद नहीं क्योंकि एक तो यहां ब्याज दर अधिक है, दूसरे हमारे यहां वेतन इतना अधिक नहीं होता कि इतने महंगे शिक्षा लोन को चुकाया जा सके।” जेएनयू में स्कूल ऑफ लैंग्वेज में प्रोफेसर आयशा किदवई कहती हैं, “लोन आधारित शिक्षा कभी भी समावेशी नहीं हो सकती।
गौरतलब है कि 2017 में जेएनयू में दाखिला पाए छात्रों में से 42 फीसदी की मासिक पारिवारिक आय 12,000 से भी कम थी। इनमें से कोई भी बढ़ी हुई फीस देने में सक्षम नहीं है। जेएनयू छात्र मानते हैं कि उनकी लड़ाई फीस वृद्धि पर नहीं है। स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज की छात्रा दीपिका साहा कहती हैं- “शिक्षा विशेषाधिकार नहीं, अधिकार है और हमारी लड़ाई उसी के लिए है।”
ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (एम्स) से मेधावी छात्र रहने-खाने-पढ़ने पर आने वाले खर्चे को मिलाकर 6,000 रुपये में एमबीबीएस का कोर्स पूरा कर सकते हैं, लेकिन मोदी सरकार की टेढ़ी नजर इस पर भी पड़ चुकी है। एचआरडी मंत्रालय के सूत्रों के मुताबिक संशोधित फीस 50 से 70 हजार सालाना हो सकती है। यानी चार साल के कोर्स पर एक छात्र को 2 से 2.8 लाख रुपये खर्चने पड़ेंगे। इसी वजह से एम्स के छात्रों और रेजिडेंट डॉक्टरों ने 23 नवंबर की रैली में जेएनयू छात्रों के समर्थन में हिस्सा लिया।
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कुछ यही हाल आईआईएमसी का है। यहां की छात्रा आस्था सव्यसाची कहती हैं कि कम आय वालों की तो बात ही छोड़िए, मध्यम आय वर्ग के लिए भी 10 माह के कोर्स के लिए 1.68 लाख रुपये की फीस और उसके अतिरिक्त हॉस्टल, खाने-पीने आदि का खर्च उठा पाना आसान नहीं। छात्रा ने कहा कि आईआईएमसी की स्थापना 1965 में हुई और यह सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत एक स्वायत्त सोसाइटी है। किसी भी सोसाइटी का गठन ‘नो प्रॉफिट नो लॉस’ के सिद्धांत पर होता है, लेकिन आईआईएमसी में तो पहले से ही फीस इतनी अधिक है और उस पर हर साल इसमें 10 फीसदी इजाफा कर दिया जाता है।
उच्च शिक्षण संस्थाओं में अपनाई जा रही इसी नीति के खिलाफ हाल ही में जेएनयू, एम्स, आईआईएमसी जैसे संस्थानों के छात्रों ने बड़ी संख्या में प्रदर्शन किए। वहीं, एमटेक की फीस में नौगुना प्रस्तावित वृद्धि के खिलाफ चेन्नई, मुंबई और दिल्ली आईआईटी के छात्रों ने भी विरोध प्रदर्शन किए। आईआईटी दिल्ली के एक छात्र ने कहा, “जेएनयू में तो शुरू से ही राजनीतिक छात्र संगठन रहे हैं, लेकिन आईआईटी में ऐसा नहीं रहा। इसी कारण हमने बिना बैनर के जेएनयू छात्रों के समर्थन में रैली में भाग लिया। जेएनयू के छात्रों को तो उनके शिक्षकों का समर्थन मिलता है, लेकिन हमारे साथ ऐसी बात नहीं। छात्रों को भय रहता है कि जो शिक्षक मौजूदा सरकार की नीतियों के समर्थक हैं, वे ग्रेडिंग करते समय हमें इसकी सजा देंगे।”
आईआईटी दिल्ली के एक वरिष्ठ शिक्षक कहते हैं, “ऐसे हालात में आप आसानी से समझ सकते हैं कि अंबानी और बिड़ला कैंपस को राजनीति से मुक्त करने की क्यों सलाह देते हैं। वैसी स्थिति में छात्र संगठित नहीं रहेंगे और सरकार के लिए एकतरफा फैसला थोपना आसान हो जाएगा।” दरअसल, उच्च शिक्षा को लेकर सरकार की दोहरी योजना है। एक तो अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़कर इसे कॉरपोरेट के हाथों की कठपुतली बना दिया जाए और दूसरे इन संस्थानों में ऊपर से खास तरह की विचारधारा को थोपकर भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने का बीजेपी-संघ का सपना साकार किया जाए। इसी दूसरी रणनीति के तहत तमाम उच्च शिक्षण संस्थानों की कमान संघी विचारधारा वाले लोगों के हाथों में सौंपी जा रही है।
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