सरदार सरोवर बांध केंद्र सरकार और गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और राजस्थान राज्यों की दशकों लंबी अंतरराज्यीय परियोजना है। इस परियोजना का उद्देश्य है कि वह भारत की पांचवीं सबसे लंबी नदी- अर्थात नर्मदा के पानी का उपयोग विद्युत उत्पादन और देश के सूखे, निर्जल पश्चिमी हिस्से में कृषि भूमि की सिंचाई के लिए करे। बांध के समर्थकों ने परियोजना के राष्ट्रीय आर्थिक विकास और गरीबी उन्मूलन में योगदान की क्षमता पर जोर दिया है। लेकिन परियोजना के लाभ असमान रूप से वितरित किए गए हैं और ‘हाशिये’ पर बैठे समुदायों को परियोजना की लागतों का भार सहन करने के लिए छोड़ दिया गया है।
साल 2017 में ‘सरदार सरोवर बांध’ का निर्माण पूरा हुआ था। इन दिनों बांध के पानी में जलमग्न क्षेत्र में बढ़ते हुए जलस्तर के बावजूद केंद्र सरकार ने बांध के गेट खोलने से इनकार किया है। इस कारण अब हजारों परिवार अपने घरों, जमीन यानि खेत और आजीविका के विनाश का इंतजार कर रहे हैं। इनमें से कई परिवारों को पर्याप्त मुआवजा या पुनर्वास नहीं मिला है।
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यूनीवर्सिटी नेटवर्क फॉर ह्यूमन राइट्स (यूनीवर्सिटी नेटवर्क) द्वारा तैयार की गई ‘वेटिंग फॉर दि फ्लड’ शीर्षक से यह रिपोर्ट सरदार सरोवर बांध के अमानवीय परिणामों और केंद्र सरकार की विस्थापित एवं जल्द ही विस्थापित होने वाले परिवारों को उचित और पर्याप्त रूप से मुआवजा देकर पुनर्वास करने की असफलता का दस्तावेजीकरण करती है। यह रिपोर्ट प्रभावित क्षेत्रों में कई हफ्तों की यात्राओं और बांध के पानी से डूबने के खतरे के तहत रहने वाले आदिवासी समुदायों के साथ साक्षात्कारों पर आधारित है। यह रिपोर्ट केंद्र सरकार और बांध अधिकारियों द्वारा किए गए अत्याचारों के चार तरीकों का दस्तावेजीकरण करती है।
इनमें से सबसे पहला, जब 2017 की गर्मियों में बांध पूरा होने के करीब था। सरकार और बांध अधिकारियों ने बांध के डूब क्षेत्र में कई आदिवासी परिवारों को अपने घरों को तोड़ने के लिए मुआवजे के अधूरे वादों, धमकियों और उत्पीड़न का इस्तेमाल किया। इनमें से कई परिवार अब अपने पुराने घरों के खंडहर के पास अस्थायी झोपडों में आश्रय ले रहे हैं और नए घर के निर्माण के लिए जमीन के बिना वे डूब क्षेत्र छोड़ने में असमर्थ हैं।
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दूसरा, सरकार और बांध अधिकारी बांध के डूब क्षेत्र में आदिवासी समुदायों के पारंपरिक भूमि अधिकारों को व्यवस्थित रूप से पहचानने में असफल रहे हैं। इस वजह से जिन परिवारों के पास अपनी पीढ़ियों की पैतृक कृषि भूमि पर दावे का कोई प्रमाण नहीं है, उन्हें अपनी इस डूबने वाली भूमि के लिए मुआवजे की मांग करने का कोई आधिकारिक रास्ता नहीं दिखता।
तीसरा, सरकार और बांध अधिकारियों ने मनमाने ढंग से या गलती से कई आदिवासी परिवारों का नाम, उनकी डूबी हुई या जल्द ही डूबने वाली जमीन का पट्टा होने के बावजूद सरकार की आधिकारिक ‘परियोजना प्रभावित व्यक्ति’ की सूची में नहीं रखा है। इसके कारण इन व्यक्तियों को अपनी भूमि और आजीविका के नुकसान के लिए मुआवजा भी नहीं मिल सकता है।
चौथा, जमीन के बदले जमीन के रूप में मुआवजे के बजाय सरकार ने पैसे देने का निश्चय करके कई आदिवासियों को अकेले भूमि खरीदने के लिए विवश कर दिया है, जिसके कारण बड़े परिवार एवं कई पीढ़ियों से मिल-जुलकर साथ रहने वाले समुदाय अलग हो गए हैं ।
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आदिवासी समुदायों के खिलाफ सरकार द्वारा उठाया गया हर कदम यह दर्शाता है कि भारतीय कानून व्यवस्था एवं अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के आधार पर आदिवासी समुदायों के प्रति दिए गए दायित्वों का केंद्र सरकार ने गंभीर उल्लंघन किया है। अतः ‘यूनीवर्सिटी नेटवर्क’ की सिफारिश है कि केंद्र सरकार सरदार सरोवर बांध के गेट तत्काल खोले ताकि जलस्तर वापस 122 मीटर तक घट जाए और बिना वैध पुनर्वास के डूबने वालों को बचाया जा सके। बांध के गेट को तब तक खुले रखना चाहिए जब तक सरकार अपने संवैधानिक एवं अंतरराष्ट्रीय कानूनी दायित्वों को निभाते हुए 138.68 मीटर तक की पूर्ण ऊंचाई के डूब के निशान के अंतर्गत रहने वाले सारे बांध प्रभावित परिवारों को पहचानकर उन्हें मुआवजा न दे दे और उनका पुनर्वास नहीं कर ले।
(लेखक रूहान नागरा यूनीवर्सिटी नेटवर्क फॉर ह्यूमन राइट्स से संबद्ध हैं)
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