सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून12 अक्बटूर, 2005 को लागू किया गया। मतलब, करीब 14 साल हो गए। लेकिन अब यह मौजूदा सरकार के लिए गले की फांस बन चुका है। प्रधानमंत्री की शैक्षणिक डिग्री, टॉप-100 बैंक डिफाॅल्टरों के नाम, नोटबंदी से मिले काले धन, नोटबंदी के कारण हुई मौतों की संख्या और राफेल विमान के दाम- कुछ भी पूछ लो, देश की सुरक्षा का खतरा बताकर सूचना देने से इंकार कर दिया जाता है। अभी जो संशोधन किए गए हैं, वे सूचना लेने के हक पर मोदी सरकार का बड़ा हमला है।
पिछले दिनों की कुछ घटनाएं तो आईने की तरह साफ हैं। लाखों करोड़ रुपये का कर्ज सार्वजनिक क्षेत्र के बैंको से लेकर हड़पने वाले शीर्ष-100 बैंक डिफाॅल्टर उद्योगपतियों की सूची सार्वजनिक करने के लिए सूचना मांगी गई। इस बारे में भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) तक ने केंद्रीय सूचना आयोग और सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की भी खुली अवहेलना की।
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वैसे, यह भी सच है कि कोई भी सरकार डिफाॅल्टरों की सूची सार्वजनिक करना नहीं चाहती। क्योंकि जब इस मुल्क में जनता के जिंदा रहने के, शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य, पानी- जैसे मूलभूत अधिकार लगातार छीने जा रहे हों, कुचले जा रहे हों; अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगातार हमले हो रहे हों; अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत किसानों, मजदूरों, आदिवासियों की आवाज को लाठी, गोली और क्रूर दमन से कुचला जा रहा हो; क्या खाना है, क्या पहनना है, यह भी सरकारें तय कर रही हों, तो ऐसे में, यह कैसे संभव है कि ऐसी जनविरोधी और फासिस्ट सरकारें जनता को सूचना का अधिकार, जानने का हक सही मायनों में दे दें या पारदर्शिता, जवाबदेही को बढ़ावा दें।
सरकारों ने यह मान लिया है कि जनता को सूचना मांगने, सवाल करने के हक से वंचित रखने का तरीका सूचना आयोगों पर नियंत्रण करना है। इसके लिए सूचना आयोगों में सूचना आयुक्तों की नियुक्तियां नहीं कर पद रिक्त रखने का हथकंडा अपनाया जा रहा है। पूरे देश में सूचना आयुक्तों के 30 प्रतिशत पद रिक्त पड़े हैं। यही हाल लगभग पूरे देश में है। कई राज्यों में तो एक भी सूचना आयुक्त नहीं है। आंध्र प्रदेश, नगालैंड और जम्मू-कश्मीर में राज्य सूचना आयोग बिल्कुल ठप पड़े हैं क्योंकि वहां एक भी सूचना आयुक्त नहीं है।
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आरटीआई के तहत सूचना मांगने वाले आवेदकों पर निरंतर हमले हो रहे हैं। पूरे देश में 13 साल के दौरान 70 से ज्यादा आरटीआई आवेदकों की हत्याएं हो चुकी हैं। कॉमनवेल्थ ह्यूमन राईट्स इनिशिएटिव की रिपोर्ट के अनुसार, आरटीआई एक्ट लागू होने के बाद से अब तक सूचना मांगने पर 424 लोगों पर जानलेवा हमले हो चुके हैं।
आरटीआई कार्यकर्ताओं और व्हिसल ब्लोअर्स की सुरक्षा के लिए संसद द्वारा साल 2014 में पारित व्हिसल ब्लोअर्स प्रोटेक्शन एक्ट-2014 का नोटीफिकेशन आजतक नहीं करना मोदी सरकार की बदनीयती का प्रमाण है। जनलोकपाल तो नहीं ही लाया गया, राज्यों में भ्रष्टाचार के विरूद्ध कार्रवाई के नाम पर शक्तिविहीन डमी लोकायुक्त नियुक्त किए गए हैं।
केंद्रीय सूचना आयोग के आंकड़ों के मुताबिक, आरटीआई एक्ट लागू होने के दस साल (2016 तक) के दौरान देश भर में 2.50 करोड़ आरटीआई आवेदन लगाए गए। यह इस एक्ट की लोकप्रियता को स्पष्ट करता है। अब सरकारें इतने लोकप्रिय कानून को सीधे तौर से खत्म करने में तो हिचकती ही हैं। इसलिए इसे अप्रत्यक्ष तरीके से खत्म करने के प्रयास किए जा रहे हैं।
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समय-समय पर इस एक्ट को पंगु बनाने के लिए तमाम तरीके अपनाए गया। अपने चहेते पूर्व नौकरशाहों, पुलिस अधिकारियों और राजनीतिक दलों से जुड़े लोगों को सूचना आयुक्त के पद पर बैठाकर इस एक्ट को गहरी चोट पहुंचाई जाती रही है। इस तरह नियुक्त किए गए सूचना आयुक्त सूचना नहीं देने के दोषी अधिकारियों को दंडित तक नहीं करते।
आरटीआई एक्ट पर हमलों के इसी क्रम में अब आरएसएस-बीजेपी के नेतृत्व वाली मोदी सरकार ने पूरे देश में सूचना आयुक्तों को रिमोट से नियंत्रित करने की मंशा के साथ संसद में आरटीआई एक्ट- 2005 में महत्वपूर्ण बदलाव किए हैं। इन संशोधनों के जरिये मोदी सरकार ने सूचना आयुक्तों और चुनाव आयुक्त की अहमियत में भारी अंतर बताकर सूचना आयुक्तों के बचे-खुचे पंख भी कतर दिए हैं। इन संशोधनों से केंद्रीय सूचना आयोग सहित देश के सभी 29 राज्यों के राज्य सूचना आयोगों के मुख्य सूचना आयुक्तों और सूचना आयुक्तों के स्टेटस, कार्यकाल, सेवा शर्तें और वेतन-भत्ते दोबारा तय करने का अधिकार केंद्र सरकार के हाथ में आ चुका है। साल 2005 से लागू आरटीआई एक्ट के अनुसार इन नियुक्तियों की कार्यअवधि 5 वर्ष तय थी।
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आरटीआई एक्ट-2005 के प्रावधान के अनुसार, केंद्रीय सूचना आयुक्तों का स्टेटस, वेतनमान, भत्ते मुख्य चुनाव आयुक्त और विस्तारित स्तर पर सुप्रीम कोर्ट के जज के समकक्ष हैं। इसी प्रकार राज्य सूचना आयुक्त का स्टेटस और वेतन-भत्ते राज्य के मुख्य सचिव अथवा विस्तारित स्तर पर हाईकोर्ट के जज के समकक्ष हैं। इन संशोधनों के समर्थन में मोदी सरकार तर्क यह देती है कि चुनाव आयोग और सूचना आयोग के कार्य बिल्कुल अलग तरह के हैं, इसलिए इनके स्टेटस और सेवा शर्तें तर्कसंगत करना जरूरी है।
चुनाव आयोग जहां संविधान के आर्टिकल 324 के क्लाॅज-1 के तहत गठित संवैधानिक संस्था (कांस्टीट्यूशनल बॉडी) है, वहीं आरटीआई एक्ट-2005 के प्रावधानों के तहत गठित सूचना आयोग वैधानिक संस्था (स्टेट्यूटरी बॉडी) है। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट अपने कई निर्णयों में स्पष्ट कर चुका है कि वोट का अधिकार और सूचना का अधिकार- दोनों ही मौलिक अधिकार हैं। इसलिए सूचना आयोग और चुनाव आयोग का महत्व एक समान है और दोनों को व्यापक बहस तथा विमर्श के बाद ही समकक्ष रखा गया था।
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संशोधन लागू होने पर देश भर के सभी सूचना आयुक्त और मुख्य सूचना आयुक्त केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के दिहाड़ी मजदूरों में तबदील हो जाएंगे। जब तक वे मालिक की हां में हां मिलाएंगे, तब तक नौकरी चलेगी, वर्ना छुट्टी हो जाएगी। यह सूचना आयोगों की स्वायत्तता पर बड़ा हमला है। पहले से ही बदहाली के शिकार सूचना आयोगों की स्वायत्तता पर और भी बुरा असर पड़ेगा।
इसका परिणाम यह निकलेगा कि अपने जमीर से जनहित में निर्णय देने वाले सूचना आयुक्तों पर भी शिकंजा कस दिया जाएगा। सीधा संदेश जाएगा कि नौकरी करनी है तो ऐसे आदेश मत दो जिससे केंद्र और इनकी राज्य सरकारों, राजनेताओं, नौकरशाहों को कोई असुविधा हो या काॅरपोरेट घरानों की ओर से देश के संसाधनों की निर्मम लूट, भ्रष्टाचार और जनता के दमन चक्र पर कोई नागरिक आरटीआई से सवाल नहीं कर सके।
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नवंबर, 2018 में रिटायर हुए केंद्रीय सूचना आयुक्त श्रीधर आचार्युलु ने राष्ट्रपति को पत्र भेजकर प्रस्तावित संधोधन का विरोध करते हुए आरोप लगाया है कि सरकार आरटीआई को कमजोर कर रही है। उन्होंने इसे सवाल पूछने के नागरिकों के अधिकार पर अब तक का सबसे बड़ा हमला बताया। सरकार ने इतने व्यापक स्तर पर लोकप्रिय इस कानून में संशोधन को लेकर जनता से कोई विमर्श और चर्चा तक नहीं किया जबकि आरटीआई एक्ट-2005 में यह प्रावधान था कि इसमें कोई भी तब्दीली जनता से व्यापक विमर्श और सुझावों के बगैर नहीं होगी।
स्पष्ट है कि पूंजीवादी संकट के निरंतर बढ़ने से उपजते भ्रष्टाचार, जनाक्रोश और सवाल पूछने के अधिकार को कुचलने की मंशा से शासक वर्ग आम जनता के छोटे-छोटे नागरिक अधिकारों को भी छीन रहा है।
(हरियाणा से आरटीआई एक्टिविस्ट पीपी कपूर की रिपोर्ट)
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