“केंद्र सरकार द्वारा संस्थाओं को स्थायी रूप से कुचले जाने से हम इस स्थिति में पहुंचे हैं।” 26 अक्टूबर को मुंबई में रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य का एडी श्रॉफ स्मृति व्याख्यान काफी साहसी था। उद्धरणों और उपमाओं का चुनाव आंखे खोलने वाला था। आचार्य अर्जेंटीना के केंद्रीय बैंक के पूर्व मुखिया मार्टिन रेडराडो के उस वक्तव्य का संदर्भ दे रहे थे, जो उन्होंने जनवरी 2010 में इस्तीफा देने के बाद एक न्यूज कांफ्रेंस में दिया था। उनके इस कदम की वजह यह थी कि अर्जेंटीना की सरकार ने इमरजेंसी की घोषणा कर दी थी, ताकि वो अपना कर्ज चुकाने के लिए केंद्रीय बैंक के पूंजी भंडार का इस्तेमाल कर सके। रेडराडो को लगा था कि पूंजी भंडार की जरूरत आपात स्थितियों के लिए होती है और सरकार को उसे देना, जो अपने खर्च पर बहुत कम नियंत्रण रखती है, महंगाई को बढ़ाएगा और अर्थव्यवस्था को कमजोर करेगा।
आचार्य का व्याख्यान नियामक संस्थाओं, खासतौर पर केंद्रीय बैंकों की स्वतंत्रता के महत्व को लेकर था। यह आयोजकों द्वारा सुझाया गया विषय नहीं था। आचार्य ने कहा कि उन्होंने इसे ‘चुना’ था। उन्होंने जोड़ा कि रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल ने उन्हें यह सुझाव दिया है कि वे इस विषय का ‘अध्ययन’ करें। यह सरकार को दिया गया कोई छिपा हुआ संदेश नहीं था कि वो रिजर्व बैंक की स्वायतत्ता को और ज्यादा खत्म करने से बचे।
रिजर्व बैंक वित्त मंत्रालय के इस दबाव की वजह से झुंझला रही थी कि वह अपना ‘अतिरिक्त’ पूंजी भंडार सरकार को स्थानातंरित कर दे, ताकि सरकार उसे बुरे कर्ज की मार से डगमगा रहे सार्वजनिक बैंकों को पूंजी संचार के लिए दे सके। 2015-16 के इकोनॉमिक सर्वे में पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने इस तरह के स्थानांतरण के लिए दलील पेश की थी। उन दोनों के बीच इस बात को लेकर मतभेद था कि यह आकस्मिक भंडार कितना बड़ा होना चाहिए। 2013-14, 2014-15 और 2015-16 में रिजर्व बैंक ने सरकार को अपने अधिभार का 99.9 फीसदी स्थानांतरित कर दिया था, जो उसके पहले के दो सालों की तुलना में एक बड़ी उछाल थी। लेकिन पिछले साल उसके पहले के साल की तुलना में यह आधा हो गया क्योंकि नोटबंदी में प्रतिबंधित नोटों की जगह नए नोट छापने में अतिरिक्त खर्च आया।
सरकार मुद्रास्फीती की दर को नियंत्रित रखने के लिए संघर्ष कर रही है क्योंकि वैश्विक परिस्थितियां नकारात्मक हो गई हैं। अमेरिका में ब्याज दर बढ़ रहा है। विदेशी सांस्थानिक निवेशक सुरक्षित अमेरिकी बांड में निवेश करने के लिए भारतीय शेयर बेच रहे हैं। इसकी वजह से रुपया कमजोर हो गया है। इसके साथ, कच्चे तेल की कीमतें बढ़ गई हैं। इन दोनों चीजों की वजह से भारत का आयात खर्च काफी बढ़ गया और घरेलू तेल कीमतों में वृद्धि हुई। बढ़ते ब्याज और तेल-फर्टिलाइजर सब्सिडी के विस्तार ने सरकार के खर्चे को कई गुना बढ़ा दिया है। वित्त वर्ष के पहले 6 महीने में बजट लक्ष्य का 95 फीसदी राजस्व घाटा हो चुका है। रिजर्व बैंक, जिसे उपभोक्ता मूल्य महंगाई को 4 फीसदी के आस-पास रखने का आदेश प्राप्त है, वह पैसे को लेकर सरकार की अपेक्षा के अनुकूल उदार नहीं है।
आईएलएंडएफएस जैसी बड़ी गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्था जो बड़ी परियोजनाओं पर भी काम करता था, उसके संकट ने सरकार की समस्याओं को और बढ़ा दिया है। उसने अपने कर्ज का भुगतान नहीं किया जिसकी वजह से सरकार ने उसके प्रबंधन को अपने हाथ में ले लिया। गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों और हाउसिंग वित्त कंपनियों को कर्ज देने में बैंक घबराने लगे हैं। उनमें से कई ने आईएलएंडएफएस को कर्ज दे रखा था। वे अब ज्यादा बुरे कर्ज में नहीं फंसना चाहते हैं। गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां खुदरा कर्ज में सबसे आगे हैं। छोटे और मध्य कारोबार उनसे कर्ज लेते हैं। विधानसभा चुनावों के पहले कर्ज का इस तरह सिकुड़ना मतदाताओं के बड़े हिस्से में अंसतोष पैदा कर रहा है।
रिजर्व बैंक की बोर्ड में बैठे सरकार के प्रतिनिधि गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों को कर्ज देने के नियमों को ढीला करने और कर्ज न चुकाने वालों पर दिवालिया कोड नहीं लगाने पर जोर दे रहे थे, जिसका रिजर्व बैंक विरोध कर रहा था। इसे स्वीकार करने के लिए सरकार तैयार नहीं है और वह आपातकालीन नियमों को लागू कर आरबीआई के फैसले को पलटना चाहती है।
नोटबंदी की भीषण गलती ने आरबीआई की प्रतिष्ठा पर चोट लगा दी है। ऐसा लगता है कि यह फैसला बिना इससे सलाह-मशविरा के ही ले लिया गया था। बुरे कर्ज का भंवर जो सार्वजनिक बैंकों में काफी फैला हुआ है, वह भी इसकी कार्य-कुशलता पर एक दाग है। वित्त मंत्री ने सोमवार को एफएसडीसी की बैठक में इस पर चोट की थी। अपने भाषण में आचार्य ने बताया था कि क्यों रिजर्व बैंक सार्वजनिक क्षेत्र के कमजोर बैंकों से निपटने में उतना कामयाब नहीं रहा जितना वह प्राइवेट क्षेत्र के बैंकों के साथ रहा।
आचार्य ने “स्थिर, शांतिपूर्ण, समृद्ध, समग्र और ईमानदार समाज के निर्माण में” जवाबदेह सरकारों और कानून की भूमिका पर भी बोला।
ऐसा लगता है कि रिजर्व बैंक के गवर्नर के इस्तीफा देने की चर्चा और ऐसी किसी कार्रवाई से बाजार के नकारात्मक रूप से प्रभावित होने की संभावना ने सरकार को फिलहाल रोक दिया है। इसने एक वक्तव्य जारी किया है जिसमें रिजर्व बैंक की स्वायतत्ता का सम्मान करने की बात कही गई है।
सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के नेता को विपक्ष के नेता का दर्जा न दिए जाने, लोकपाल की नियुक्ति नहीं करने, राज्यसभा में बहुमत न होने के कारण उसे दरकिनार करते हुए कई कानूनों को मनी बिल के तौर पर पास करने, सुप्रीम कोर्ट की नियुक्तियों को रोकने से लेकर सीबीआई को कमजोर करने तक, इस सरकार ने संस्थाओं के साथ काफी छेड़छाड़ की है। लोकसभा चुनाव में बड़ी जीत के बाद जब मोदी ने 20 मई, 2014 को संसद की सीढ़ियों पर माथा टेका था, तो किसी ने नहीं सोचा था कि उनका मतलब लोकतांत्रिक नियमों और व्यवहारों को अलविदा कहना है।
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