देश भर में महिलाओं द्वारा चलाए जा रहे मी टू अभियान की गूंज राष्ट्रीय स्तर पर हो रही है। मीडिया और मनोरंजन क्षेत्र से लगातार आ रही आपबीतियों से कोहराम मचा हुआ है। केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार में विदेश राज्य मंत्री एम जे अकबर के एक के बाद एक वरिष्ठ महिला पत्रकारों द्वारा किये गये खुलासे ने केंद्र सरकार को घेरा हुआ है। इस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर बाकी तमाम मंत्रियों की चुप्पी बनी हुई है। महिला पत्रकारों की आपबीतियां रोंगटे खड़े करने वाली हैं और उनसे साफ होता है कि यह शख्स किस तरह यौन हिंसा-यौन प्रताड़ना का अभ्यस्त रहा है।
मीटू अभियान में अभी तक हिंदी पट्टी और बाकी भाषाओं की महिला पत्रकारों की शिरकत नहीं शुरू हो पाई है। साथ ही टीवी न्यूज चैनलों और वहां बैठे शक्तिशाली संपादकों-एंकरों-मालिकों को लेकर जो खबरें भागते-दौड़ते सबसे ज्यादा सुनी जाती रही हैं, उन्होंने भी मीटू में जगह नहीं पाई है। इन दोनों मुद्दों पर महिला पत्रकारों से बातचीत करके साफ होता है कि यहां पुरुषों का दबदबा इतना तगड़ा है कि इसे तोड़ पाना और चुनौती देकर नौकरी में रह पाना तकरीबन असंभव है।
इसी तरह से अगर बात करें न्यूज न्यूज चैनलों में पसरी गंदगी और यौन शोषण की कहानियों की तो इनकी चर्चा मीडिया सर्किल में सबसे ज्यादा रहती है। लेकिन अभी तक यहां से एक भी आपबीती का मीटू अभियान में शामिल न होना बताता है कि यहां का माहौल किस कदर जकड़न और असुरक्षा से भरा है। जबकि यौन उत्पीड़न के अनेकों मामले इस दुनिया से दर्ज किये गये, कई महिलाओं ने शीर्ष नेतृत्व के खिलाफ मामले दर्ज कराए थे।
न्यूज चैनलों की दुनिया का जाना-माना नाम एबीपी जो पहले स्टार न्यूज था, उसमें काम करने वालीं सायमा सहर ने अपने बॉस के खिलाफ 2006-07 के दौरान किये गए सेक्शुअल हैरेसमेंट के तमाम वाकयों का ब्यौरा देते हुए केस दर्ज कराया। महिला आयोग पहुंचीं, शिकायत दर्ज कराई, इसे सार्वजनिक भी किया। लेकिन इसके बाद सारा मामला शांत और जिसके खिलाफ शिकायत थी, वह टॉप पर पहुंच गये।
इस तरह के कई मामले दर्ज हुए लेकिन नुकसान उठाया शिकायत करने वाली महिला ने। जब मैंने न्यूज चैनल में काम करने वाली कई महिला पत्रकारों से बात की तो उन्होंने खुलकर बताया कि यौन उत्पीड़न बहुत आम है, लेकिन सबको नौकरी करनी है, फील्ड में रहना है।
कुछ केस यहां बिना नाम लिये मैं शेयर कर रही हूं ताकि किस हद तक माहौल खराब है, और अपने स्तर पर किस तरह से रोज-ब-रोज लड़ाई लड़ रही हैं महिला पत्रकार, उसका अंदाजा बाहरी दुनिया को भी लग सके।
केस 1- मैंने इंटरशिप यहीं की थी। मुझे उस समय अ एंकर ने बहुत प्रोत्साहित किया। हालांकि उस समय भी वह सेक्सुअल बिहेवियर, पोर्नोग्राफी आदि पर बात करते थे, मैं असहज होती थी। लेकिन वह बताते थे कि मीडिया में सिर्फ बिंदास लड़कियों की जगह होती है। मैं यहीं ज्वाइन करना चाहती थी। उन्होंने मदद की। फिर इसके बाद रात के शूट्स के बाद मुझे ड्रॉप करने के बहाने या कुछ डिस्कस करने के बहाने साथ रहने पर जोर डालने लगे। फिर छूना-पकड़ना शुरू किया और एक बार पकड़ा भी। पर मैं जोर लगा कर भाग गई। वह बड़ा एंकर है। स्टार है, लेकिन हमेशा कम उम्र की लड़कियों को साथ रखता है। मैं मीडिया नहीं छोड़ना चाहती, घर से लड़कर यहां आई हूं। अब मैंने ग्रुप चैंज किया। पर जिससे भी कहा, सबने यही कहा ऐसा बहुत आम है।
केस 2- मैंने एक बार अपने बॉस के व्यवहार की शिकायत की, उनका व्हाट्सअप मैसेज भी सीनियर को दिखाया- साथ सोने की बात कही थी, बेशर्म ने। सीनियर ने समझाया कि क्यों समस्या पैदा करने वाली बनना चाहती हो। कहीं काम नहीं मिलेगा। फिर मैंने रास्ता खोजा और खुद ही निपटा। यही अधिकांश लोग करते हैं।
ये आवाजें इसीलिए मीटू अभियान का अभी हिस्सा नहीं बन पा रही हैं। यही हाल हिंदी और बाकी भाषाई महिला पत्रकारों का है। उनके ऊपर यौन हिंसा और जेंडर बायस के अनगिनत वाकये हैं। लेकिन दिक्कत यही है कि जो कामकाज की स्थितियां हैं, जिस सामाजिक पृष्ठभूमि से वे आती हैं, वहां ये सारे खुलासे नौकरीलेवा-जानलेवा साबित हो सकते हैं। इसके बजाय वे खुद ही निपटने में विश्वास रखती हैं और मामला हाथ से निकल जाये तो नौकरी छोड़ देती हैं। हिंदी की वरिष्ठ पत्रकार अन्नु आनंद ने बताया कि जिस पृष्ठभूमि से हिंदी में महिलाएं आती हैं, वह समझना जरूरी है। उन्हें कई फैक्टर्स देखकर बोलना और व्यवहार करना पड़ता है।
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चैन्नई में स्वतंत्र पत्रकार जयारानी ने बताया कि भाषाई पत्रकारिता में महिलाओं का शोषण ज्यादा है, लेकिन जो कामकाज की स्थितियां हैं, वे बेहद प्रतिकूल हैं। यहां मर्दों का ही बोलबाला है। इसलिए मीटू में यहां से आवाजें नहीं आ रही हैं। हमारे पास न वह क्लास है, न सामाजिक कुशन।
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