पटना के हाई सिक्यूरिटी जोन में बिहार सरकार के योजना और विकास विभाग में अवर सचिव स्तर के अधिकारी राजीव कुमार का उनके सरकारी आवास में कत्ल होना इस बात का सबूत है कि बिहार में कानून और व्यवस्था की हालत किस हद तक बिगड़ चुकी है। स्वतंत्रता दिवस से एक दिन पहले हुई इस हत्या ने बिहार के डीजीपी के एस द्विवेदी पर भी सवालिया निशान लगा दिया है। द्विवेदी इसी साल फरवरी में डीजीपी बने हैं।
हत्यारों ने 14 अगस्त की सुबह-सवेरे राजीव कुमार के घर पर धावा बोला। उनकी पत्नी और बेटी को बंधक बना लिया। राजीव कुमार ने जब विरोध किया तो उनकी जान ले ली। खबरें बताती हैं कि हत्यारों ने घर में मौजूद महिलाओं के साथ छेड़छाड़ की और दुष्कर्म करने की धमकी भी दी थी।
इस घटना से बिहार के लोग खौफ में हैं, क्योंकि इससे पहले कभी भी अपराधियों के हौसले इतने बुलंद नहीं हुए कि वे सत्ता केंद्र की परिधि में घुसकर बिहार विधानसभा से महज कुछ सौ मीटर की दूरी पर ऐसी वारदात को अंजाम दें। राजीव कुमार के घर के आसपास कई मंत्री, विधायक और बड़े अधिकारी रहते हैं।
दरअसल राजीव कुमार की हत्या पहला अपराध नहीं है। इससे पहले बीते एक साल में बिहार में महिलाओं-लड़कियों, डॉक्टरों, व्यापारियों आदि पर लगातार हमले बढ़े हैं। हाल के महीनों में बिहार ऐसी ही खबरों के चलते सुर्खियों में रहा है। 1500 करोड़ का सृजन घोटाला हो या मुजफ्फरपुर में 34 बच्चियों से बलात्कार की खबर हो। इसके अलावा इस दौरान राम नवमी के मौके पर हुई सांप्रदायिक हिंसा भी शामिल है।
इस साल 28 फरवरी को जब के एस द्विवेदी को बिहार का डीजीपी बनाया गया था तो सत्तारुढ़ जेडीयू और बीजेपी नेताओं ने उनकी तारीफों के पुल बांध दिए थे। द्विवेदी 1989 के भागलपुर दंगे के दौरान वहां के पुलिस अधीक्षक थे। नीतीश सरकार ने जब 1984 बैच के आईपीएस द्विवेदी को डीजीपी बनाया था तो दावे किए गये कि वे एक ईमानदार, तेज-तर्रार और कुशल पुलिस अफसर हैं और उनके पुलिस विभाग की कमान संभालने के बाद राज्य में कानून व्यवस्था का नया दौर शुरु होगा।
लेकिन उनके कार्यकाल संभालने के बाद अपराध के आंकड़े सरकार के दावों की पोल खोलते हैं। मसलन, राजीव कुमार की हत्या होने के दो घंटे बाद पुलिस मौके पर पहुंची, जबकि अपराधियों ने घंटों आतंक फैलाए रखा था। चौंकाने वाली बात यह भी है कि पुलिस मुख्यालय वारदात की जगह से कुछ फर्लांग दूर ही है।
संयोग यह भी है कि राजीव कुमार की हत्या एनडीए के घटक दल राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी (आरएलएसपी) के नेता महेश साहनी की हत्या के एक दिन बाद हुई है। इस हत्याकांड पर केंद्रीय मंत्री और पार्टी नेता उपेंद्र कुशवाहा ने कड़ी प्रतिक्रिया जताई थी। उपेंद्र कुशवाहा पर भी 10 अप्रैल को उस समय हमला हुआ था, जब वे मोतिहारी में प्रधानमंत्री मोदी के कार्यक्रम में जा रहे थे। यह वह दिन था जिस दिन उच्च जातियों ने एससी-एसटी एक्ट को कमजोर करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के समर्थन में देशव्यापी बंद का आह्वान किया था।
गौरतलब है कि जब नीतीश कुमार ने महागठबंधन से नाता तोड़ा था तो कहा था कि आरजेडी मुखिया लालू प्रसाद यादव उन्हें काम नहीं करने दे रहे हैं। और यह भी तथ्य है कि जब आरजेडी के एक विधायक राजबल्लभ यादव पर बलात्कार का आरोप लगा तो पुलिस ने उन्हें उनके घर से गिरफ्तार कर लिया था। इसी तरह मोहम्मद शहाबुद्दीन की गिरफ्तारी में भी पुलिस को कोई दिक्कत नहीं आई थी।
सवाल उठता है कि अब पुलिस अपराध क्यों नहीं रोक पा रही, बावजूद इसके कि राज्य में जेडीयू-बीजेपी की सरकार है और जब राज्य की पुलिस की कमान एक ‘सक्षम और कुशल’ डीजीपी के हाथों में है? द्विवेदी के करीब 6 महीने के कार्यकाल में कानून व्यवस्था की स्थिति में लगातार गिरावट ही आई है।
वीआईपी सुरक्षा में पुलिस वालों की तैनाती के मामले में बिहार नंबर वन राज्य है। ऐसे में पुलिस से और क्या उम्मीद की जा सकती है? यूं भी कानून-व्यवस्था तो पुलिस की प्राथमिकता है ही नहीं, उसकी पूरी ताकत तो शराब बंदी लागू करने और दहेज विहीन सामूहिक विवाह कराने में लगी हुई है। इतना ही नहीं बिहार के पुरुष इस बात का विरोध कर रहे हैं कि राज्य पुलिस में कांस्टेबल भर्ती में 68 फीसदी महिलाओं का चयन हुआ है।
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उनका आरोप है कि तैनाती में भारी अनियमितताएं बरती गई हैं और बिना पर्याप्त प्रशिक्षण और सुविधाओं के कारण यह महिला कांस्टेबल अपराध कैसे रोक पाएंगी। आरोप जो भी लगें, लेकिन यह सत्य है कि बिहार पुलिस में इतनी बड़ी तादाद में महिला पुलिसकर्मियों के प्रशिक्षण के साथ ही बुनियादी सुविधाओं की भी बेहद कमी है। ऐसे में अपराधियों और माओवादियों से पुलिस कैसे निपटेगी, यह भी बड़ा सवाल है।
द्विवेदी को अकेले इस सबके लिए जिम्मेदार ठहराना और कानून व्यवस्था के मोर्चे पर उनसे कुछ उम्मीद करना ज्यादती होगी। उनकी काबिलियत तो इसी से साबित हो जाती है कि उन्हें भागलपुर दंगों की जांच करने वाले आयोग ने दंगा भड़काने का दोषी पाया था। यही कारण था कि लालू-राबड़ी के शासन में करीब 15 साल तक द्विवेदी को महत्वपूर्ण पदों से दूर रखा गया। लेकिन 2005 में नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनते ही द्विवेदी की किस्मत चमकने लगी थी।
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