पिछले साल में अगर हम भारत में मजदूरों की स्थिति को देखें तो उन्हें एक के बाद एक प्रतिकूल स्थितियां सहनी पड़ी हैं। उन्हें सबसे बड़ा झटका तो नोटबंदी से लगा जिससे बड़ी संख्या में मजदूर बेरोजगार हो गए। महिला मजदूरों को भी इसका अत्यधिक प्रतिकूल असर सहना पड़ा। इसके बाद जीएसटी रही-सही कसर पूरी करते हुए अनेक मजदूरों को बेरोजगार कर दिया।
दूसरी ओर मजदूरों और मेहनतकशों की भलाई के लिए पहले बने कानूनों- निर्माण मजदूरों का कानून, रेहड़ी-पटरी वालों का कानून, असंगठित मजदूरों के लिए सामाजिक सुरक्षा कानून और ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून जैसे जनहित के कानूनों का क्रियान्वयन ठीक से नहीं हुआ। ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून के क्रियान्वयन में तो बहुत तेजी से गिरावट आई। अनेक स्थानों पर ऐसा लगा कि सरकार इस जिम्मेदारी से पीछे हटना चाह रही है।
निर्माण मजदूरों के कानूनों को लेकर कई तरह के अनिश्चय उत्पन्न किए गए। यदि निर्माण मजदूरों को अदालतों से अनुकूल आदेश नहीं मिलते तो उनके हितों के लिए बनाए गए कानूनों की स्थिति और विकट हो सकती थी। सच तो यह है कि हाल के समय में इन कानूनों का क्रियान्वयन अदालतों ने अधिक करवाया है और सरकार ने कम। इसी पैटर्न पर बनाए गए यानि विशेष उपकर या सेस पर आधारित कुछ अन्य श्रेणियों के रक्षात्मक कानूनों की बुरी तरह उपेक्षा की गई और मजदूर अपने हकों से वंचित हुए।
हालांकि मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा की स्कीमों की घोषणाएं होती रहीं, लेकिन ध्यान से देखने पर पता चलेगा कि घोषणाएं अधिक हैं और वास्तविक प्रगति कम है। इस विषय के एक विशेषज्ञ रवि श्रीवास्तव ने हाल में प्रकाशित अपने अनुसंधान पत्र ‘भारत में असमानता व सामाजिक सुरक्षा’ में बताया है कि इस संदर्भ में सरकार ने हाल के समय में खर्च में जरूरी वृद्धि नहीं की और इसके स्थान पर नागरिकों के अपने योगदान के आधार वाली सामाजिक सुरक्षा की योजनाओं को बढ़ाया जा रहा है। अध्ययन के अनुसार इसका एक असर यह हो रहा है कि जो तबके सबसे गरीब और संवेदनशील हैं वे इन सामाजिक सुरक्षा की स्कीमों से बाहर छूट सकते हैं, जबकि सामाजिक सुरक्षा की सबसे अधिक जरूरत उन्हें ही है।
हाल के एक अन्य चर्चित अध्ययन में श्रम-मामलों के विशेषज्ञ वैभव राज ने बताया है कि सामाजिक सुरक्षा के क्षेत्र में जो बदलाव आ रहे हैं उनमें केंद्रीय सरकार निरंतर अपना नियंत्रण बढ़ा रही है जबकि मजदूरों के प्रतिनिधियों की भागेदारी और त्रिपक्षीयता की संभावना कम होती जा रही है। इस अध्ययन में प्रस्तावित श्रम-सुधारों के बारे में भी महत्त्वपूर्ण सवाल उठाए गए हैं। 44 केंद्रीय श्रम कानूनों को 4 श्रम कोडों में बांधा जा रहा है। कहने को तो यह कार्य श्रम कानूनों के सरलीकरण और सुगठीकरण के नाम पर किया जा रहा है, लेकिन ध्यान से देखने पर संकेत मिलते हैं कि इस माध्यम से अनेक संघर्षों से हासिल की गई मजदूरों के कई तरह के अधिकारों को कम किया जा सकता है। सुधारों के नाम पर मजदूरों, मजदूर संगठनों या ट्रेड यूनियनों की स्थिति पहले से और कमजोर की जा सकती है।
जो मजदूरी से संबंधित कोड है, उसके बारे में यह संभावना है कि इससे मजदूरी में वृद्धि की संभावना कम हो सकती है। इससे पहले न्यूनतम मजदूरी को उचित और न्यायसंगत जीवन-स्तर से जोड़ने को व्यापक मान्यता प्राप्त थी और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का रुझान भी इस ओर ही था। पर नए कोड से इस स्वीकृति पर चोट पंहुच सकती है, जिससे कि न्यायसंगत मजदूरी की संभावना और कम हो सकती है और निवेश आकर्षित करने के नाम पर विभिन्न राज्यों में मजदूरी कम तय करने की होड़ लग सकती है, जो मजदूरों के हितों के बहुत प्रतिकूल है।
औद्योगिक संबंधों पर कोड में जो बदलाव प्रस्तावित है उनसे ट्रेड यूनियन के अधिकारों और उनकी कानूनी सुरक्षा की स्थिति पर चोट पहुंच सकती है और उनके लिए मजदूरों के अधिकारों की रक्षा पर पाना और कठिन हो सकता है। 40 से कम संख्या की फैक्ट्रियों में मजदूर कानूनों की रक्षा से काफी हद तक वंचित किए जा सकते हैं।
इस तरह स्पष्ट है कि मजदूरों की स्थिति हाल के समय में बहुत क्षतिग्रस्त हुई है और भविष्य में मजदूरों के अधिकारों पर और भी अधिक प्रहार करने की पृष्ठभूमि भी तैयार की गई है। अतः मजदूरों के अधिकारों की रक्षा के लिए केवल मजदूरों में ही नहीं अपितु पूर्ण समाज में भी अधिक व्यापक चेतना होनी चाहिए।
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