सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस जे चेलामेश्वर ने कहा है कि न्यायपालिका में सरकार का कथित दखल लोकतंत्र की मृत्यु का सूचक है। उन्होंने भारत के मुख्य न्यायाधीश यानी सीजेआई दीपक मिश्रा को 6 पन्नों का पत्र लिखा है और इस मुद्दे पर फुल कोर्ट बुलाकर चर्चा करने का आग्रह किया है।
जस्टिस चेलामेश्वर यह पत्र 21 मार्च को लिखा है और इसकी प्रतियां सुप्रीम कोर्ट के सभी 22 जजों को भेजी हैं। उन्होंने लिखा है कि किसी भी देश में न्यायपालिका और सरकार की दोस्ती लोकतंत्र के ताबूत में आखिरी कील साबित होती है।
जस्टिस चेलमेश्वर ने लिखा है कि, "किसी भी देश में सरकार और न्यायपालिका के बीच दोस्ताना व्यवहार लोकतंत्र में आखिरी कील कहा जाता है। हम दोनों ही निगरानी करने वाले हैं, इसलिए आपसी सराहना नहीं होनी चाहिए, हम बस संवैधानिक साथी हैं।'
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पत्र में कहा गया है कि जिला जज पी कृष्णा भट्ट को जांच में निर्दोष पाये जाने के बाद सुप्रीम कोर्ट कोलीजियम ने उन्हें हाईकोर्ट का जज बनाए जाने की सरकार से सिफारिश की थी। लेकिन सरकार ने चुन के उनकी प्रोन्नति की सिफारिश दबा ली और बाकी अन्य पांच, जो कि जज भट्ट से जूनियर थे, को प्रोन्नत कर दिया। सरकार को अगर जज भट्ट के नाम पर कोई आपत्ति थी तो वो कोलीजियम को दोबारा विचार के लिए वापस भेज सकती थी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, बल्कि सरकार सिफारिश को दबा कर बैठ गई।
जस्टिस चेलमेश्वर ने कहा है कि कई बार का अनुभव है कि सरकार कोलीजियम की सिफारिश अपवाद के तौर पर स्वीकार करती है और ज्यादातर दबा कर बैठ जाती है। जो जज काबिल होते हैं, लेकिन सरकार को असुविधाजनक लगते हैं इस प्रक्रिया में छूट जाते हैं।
उन्होंने कहा कि, "बेंग्लुरु में कोई पहले ही हमें नीचा दिखाने में जुट गया है। कर्नाटक हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस हमारी पीठ के पीछे सरकारी आदेशों को पूरा करने में ज्यादा ही तत्पर दिखाई दे रहे हैं।"
उन्होंने कहा है कि, "हम सर्वोच्च न्यायालय के न्याायधीश हैं, हम पर सरकार के बढ़ते दखल के आगे अपनी आजादी और संस्थान की पवित्रता को सौंप देने के आरोप लग रहे हैं। शासन के नुमाइंदे हमेशा बेचैन रहते हैं और वो कोई नाफरमानी बर्दाश्त नहीं करते, चाहे फिर न्यायपालिका ही क्यों ना हो। हमेशा से ही मुख्य न्यायाधीशों के साथ सचिवालयों के मुखिया की तरह व्यवहार करने की कोशिश की गई।"
उन्होंने लिखा है कि, "मेरे दिमाग में पिछली कोई ऐसी घटना नहीं है, जिसमें सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को नजरंदाज किया हो। खासतौर से तब जब आरोपों को हमने गलत पाया हो और उन्हें खारिज कर दिया हो और जब हमारी सिफारिशें लंबित हों। इस मामले में हाईकोर्ट से हमारी सिफारिशों का दोबारा मूल्यांकन कराने को बेहद गलत और उद्दंड समझा जाएगा। न्यायपालिका तब बहुत दूर नहीं थी, जब सरकार सीधे हाईकोर्ट से लंबित मामले पर बातचीत कर रही थी और ये बता रही थी कि क्या आदेश दिया जाए।"
दरअसल 2016 में भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर ने हाईकोर्ट के मुध्य न्यायधीश एसके मुखर्जी को कृष्णा भट के खिलाफ जांच करने का निर्देश दिया था। भट पर एक सहकर्मी महिला न्यायिक अधिकारी ने प्रताड़ना के आरोप लगाए थे। बाद में भट को जांच में निर्दोष करार दिया गया था। इसके बाद उनके नाम की सिफारिश कोलोजियम ने दो बार की थी।
इसी साल 12 जनवरी को जस्टिस जे चेलमेश्वर, जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस मदन भीमराव लोकुर और जस्टिस कुरियन जोसेफ ने मीडिया के सामने प्रेस कॉन्फ्रेंस में सीजेआई के कामकाज पर सवाल उठाया था। जजों ने कहा था कि, "ऐसे कई उदाहरण हैं जिनके देश और न्यायपालिका पर दूरगामी असर हुए हैं। चीफ जस्टिस ने कई केसों को बिना किसी तार्किक आधार के 'अपनी पसंद' के हिसाब से बेंचों को सौंपा है। ऐसी बातों को हर कीमत पर रोका जाना चाहिए।"
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