यह साल 1978 था। बरसात का मौसम था और लगातार कई दिनों से बारिश हो रही थी। जल्द ही कई इलाकों में बाढ़ आ गई। पूरा उत्तर और पूर्वी भारत पानी में डूब चुका था। स्नाकोत्तर की डिग्री हासिल करने के बाद मैं उन दिनों अपने गृहनगर इलाहाबाद में नौकरी मिलने का इंतजार कर रहा था और ज्यादातर वक्त कॉफी हाउस में गुजारा करता था। कॉफी हाउस में बातचीत के दौरान मेरे एक दोस्त ने जब ये बताया के उसके इलाके तक गंगा का पानी पहुंच चुका है तो हम उसके इलाके में मदद के लिए निकल पड़े। अगली सुबह शहर के ज्यादातर इलाके और आसपास के गांव पानी में डूब चुके थे। हमने राहत अभियान चलाने का फैसला किया। बहुत जल्द लोगों के कई समूह इस काम में लग गए। वास्तव में पूरा शहर इस तरह के समूहों से भर गया। हमारे समूह ने फैसला किया कि हम मदद के लिए देहाती इलाकों का रुख करेंगे क्योंकि वहां मदद के लिए कोई नहीं जा रहा था। हमें एक ऐसे गांव के बारे में पता चला जो शहर के करीब था और आसपास के इलाकों से पूरी तरह कट चुका था। गांव में खाने-पीने की चीजों की भारी कमी थी, इसलिए हर हाल में हमें वहां पहुंचना था। हम जब वहां पहुंचे तो हर तरफ कीचड़ ही कीचड़ था। गंदगी, कीचड़ और मिट्टी से होकर आखिरकार हम गांव में पहुंचे और भूख से तड़प रहे लोगों तक किसी तरह राहत सामग्री और खाने-पीने की चीजें पहुंचा पाने में कामयाब हुए।
Published: 19 Nov 2017, 7:49 PM IST
ये हैरत वाली बात थी कि इंदिरा गांधी खुद वहां पहुंची थीं और गरीबों की मदद कर रही थीं। हम वहां से चले आए और इंदिरा गांधी भी वापस लौट गईं। लेकिन इस घटना ने हमारे पूरे समूह को इंदिरा गांधी का प्रशंसक बना दिया। हालांकि आपातकाल की वजह से हम उनसे नाराज थे, 1977 के चुनावों में हमारे पूरे ग्रुप ने उनकी पार्टी के खिलाफ अभियान चलाया था।
हम जैसे ही वहां से अपने घर वापस लौटने लगे हमें कहीं से नारों की आवाज सुनाई देने लगी। कोई नारे लगा रहा था, ‘इंदिरा गांधी जिंदाबाद’। कुछ देर के बाद मैंने अपने सामने इंदिरा गांधी को देखा, जो हमारी ही तरह मिट्टी और कीचड़ से होते हुए पीड़ितों की मदद के लिए उस गांव में पहुंची थीं। ये हैरत वाली बात थी कि इंदिरा गांधी खुद वहां पहुंची थीं और गरीबों की मदद कर रही थीं। हम वहां से चले आए और इंदिरा गांधी भी वापस लौट गईं। लेकिन इस घटना ने हमारे पूरे समूह को इंदिरा गांधी का प्रशंसक बना दिया। हालांकि आपातकाल की वजह से हम उनसे नाराज थे, 1977 के चुनावों में हमारे पूरे ग्रुप ने उनकी पार्टी के खिलाफ अभियान चलाया था।
Published: 19 Nov 2017, 7:49 PM IST
इंदिरा 3 साल से भी कम समय तक के लिए विपक्ष की नेता रहीं, लेकिन वह हिंदुस्तान के विपक्षी नेताओं में सबसे ज्यादा कामयाब साबित हुईं। साल 1978 से 1980 के दौरान उन्होंने एक नई पार्टी का गठन किया, चिकमंगलूर (कर्नाटक) लोकसभा सीट से चुनावी जीत हासिल की, मोरारजी देसाई का तख्ता-पलट किया और जनता पार्टी के टुकड़े करने में कामयाब रहीं, चरण सिंह को प्रधानमंत्री बनवाया और 4 महीने में ही चरण सिंह की जगह सत्ता की बागडोर खुद अपने हाथ में ले ली। इंदिरा गांधी ने जिस तरह सत्ता में वापसी की उसे किसी विपक्षी नेता के लिए बेमिसाल कारनामा कहा जा सकता है।
अचानक इंदिरा गांधी पूरे देश में दिखाई देने लगीं। वह बाढ़ से प्रभावित हर कस्बे और गांव में जा रही थीं और बेल्छी नाम की एक जगह पर तो वह हाथी पर सवार होकर मदद के लिए पहुंची थीं। हिंदुस्तान को इंदिरा गांधी की शक्ल में विपक्ष का एक नया नेता मिल गया जो एक साल पहले तक हिंदुस्तान की प्रधानमंत्री थीं। इंदिरा 3 साल से भी कम समय तक के लिए विपक्ष की नेता रहीं, लेकिन वह हिंदुस्तान के विपक्षी नेताओं में सबसे ज्यादा कामयाब साबित हुईं। साल 1978 से 1980 के दौरान उन्होंने एक नई पार्टी का गठन किया, चिकमंगलूर (कर्नाटक) लोकसभा सीट से चुनावी जीत हासिल की, मोरारजी देसाई का तख्ता-पलट किया और जनता पार्टी के टुकड़े करने में कामयाब रहीं, चरण सिंह को प्रधानमंत्री बनवाया और 4 महीने में ही चरण सिंह की जगह सत्ता की बागडोर खुद अपने हाथ में ले ली। इंदिरा गांधी ने जिस तरह सत्ता में वापसी की उसे किसी विपक्षी नेता के लिए बेमिसाल कारनामा कहा जा सकता है। इंदिरा गांधी की पार्टी का 1977 के आम चुनावों में सफाया हो गया था, वह खुद भी अमेठी की सीट से चुनाव हार गई थीं। पूरी हिंदी पट्टी उनके खिलाफ खड़ी हो गई थी। लेकिन वही इंदिरा गांधी जब हारने के बाद लोगों से मिलीं तो अवाम की चहेती बन गईं। आखिर इंदिरा गांधी ने खुद को सबसे सफल विपक्षी नेता के तौर पर किस तरह ढाला?
Published: 19 Nov 2017, 7:49 PM IST
मुझे इलाहाबाद नॉर्दर्न इंडिया पत्रिका में छपी एक खबर आज तक याद है, जिसमें यह जिक्र था कि इंदिरा गांधी ने 1980 के संसदीय चुनाव के दौरान दिन के 24 घंटों में से 22 घंटे चुनाव प्रचार किया। उस जमाने में ये संभव था क्योंकि चुनाव आयोग ने चुनावों के लिए प्रचार का समय तय नहीं किया था और चुनावी सभाएं देर रात से लेकर सुबह-सवेरे तक भी हुआ करती थीं।
उनकी कामयाबी का राज ये था कि जब वह विपक्ष में थीं तो एक दिन के लिए भी दिल्ली में चैन से नहीं बैठीं। वह राष्ट्रीय राजधानी से लगातार बाहर रहीं और लोगों से मिलती रहीं। मुझे आज तक याद है कि चिकमंगलूर संसदीय सीट से जीत हासिल करने के बाद वह सिर्फ शपथ लेने और रजिस्टर पर हस्ताक्षर करने संसद के अंदर गई थीं। उन दिनों सांसदों का सदन में मौजूद रहना अनिवार्य नहीं था। इंदिरा को ये बात अच्छी तरह से पता थी कि विपक्ष के नेता का काम जनता से संपर्क बनाने का है, न कि दिल्ली में बैठकर वक्त बर्बाद करने का। दिल्ली सत्ता की राजनीति का केंद्र तो हो सकती है, लेकिन विपक्ष की राजनीति का नहीं। वह बगैर आराम किये पूरे देश भर में इस तरह घूम रही थीं कि उन्होंने दिन के 10-12 घंटे सड़कों पर सफर करते हुए गुजारे। मुझे इलाहाबाद नॉर्दर्न इंडिया पत्रिका में छपी एक खबर आज तक याद है, जिसमें यह जिक्र था कि इंदिरा गांधी ने 1980 के संसदीय चुनाव के दौरान दिन के 24 घंटों में से 22 घंटे चुनाव प्रचार किया। उस जमाने में ये संभव था क्योंकि चुनाव आयोग ने चुनावों के लिए प्रचार का समय तय नहीं किया था और चुनावी सभाएं देर रात से लेकर सुबह-सवेरे तक भी हुआ करती थीं। इंदिरा गांधी ने 1980 के चुनावों में फिर से बहुमत हासिल किया और बतौर प्रधानमंत्री देश की बागडोर संभाली, लेकिन छोटे से समय में उन्होंने जिस तरह विपक्ष के नेता के तौर पर काम किया उसकी कोई मिसाल नहीं मिलती है।
Published: 19 Nov 2017, 7:49 PM IST
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Published: 19 Nov 2017, 7:49 PM IST