क्या आपको अजीब नहीं लग रहा है कि शाॅल, ऊनी कपड़े बेचने वाले कश्मीरी लोग इस बार आपकी गलियों में नहीं आ रहे हैं? पिछले साल तक हर छोटे-बड़े शहर, कस्बे और गांवों की गलियों- सड़कों पर अपनी अलहदा पहचान के साथ वे ठंड के महीनों में घूमते तथा फेरी लगाते आमतौर पर दिखाई दे जाते थे। यही नहीं, अन्य कश्मीरी सामान भी इस बार बाजार से लगभग गायब ही हैं।
कश्मीर में ठंड का सीजन जरा जल्दी ही शुरू हो जाता है- लगभग अगस्त के बाद से ही। पिछले साल भी उस वक्त तक देश भर से ऊन, कश्मीरी कंबल, शाॅल, ऊनी कपड़े वगैरह के ऑर्डर वहां पहुंच चुके थे और सितंबर होते-होते सारी सप्लाई कर दी गई थी। यही हाल कश्मीरी फेरे वालों का था। पिछले साल अक्टूबर होते-होते तक वे देश के विभिन्न शहरों में डेरा जमा चुके थे। इसके साथ ही पिछले साल अक्टूबर में करीब दस हजार कश्मीरी मजदूर पंजाब की औद्योगिक राजधानी लुधियाना और अमृतसर में शाॅल और कपड़ा इंडस्ट्री में लदाई और ढुलाई का काम करने लगे थे। इस बार ये नजारे हर जगह से नदारद हैं।
इसकी वजह है अनुच्छेद-370 को हटाना और उसके बाद से वहां जारी प्रतिबंध। इस कारण कश्मीर के अंदर तो तमाम तरह के उद्योग ठप हैं ही, वहां से लोग भी बाहर नहीं आ रहे हैं। इसके पीछे मुख्यतः यह भय है कि बाहर जाने पर कश्मीरियों के साथ न जाने कब क्या हो जाए। चूंकि देश के अधिकतर हिस्सों में इस बार कश्मीरी आए ही नहीं हैं, इसलिए उन लोगों के बारे में खैर-पता करना मुश्किल है। पर पंजाब में ऊनी और कपड़ा उद्योग के लोगों से बात कर स्थिति समझी जा सकती है।
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दरअसल, लुधियाना में ही हर साल करीब 10,000 कश्मीरी मजदूर शॉल और कपड़ा इंडस्ट्री में लदाई-ढुलाई का काम करते रहे हैं। इसी तरह करीब 4000 श्रमिक अमृतसर के कपड़ा उद्योग में यही काम करते रहे हैं। इन दोनों ही महानगरों में सर्दियों में शॉल, कपड़ा और ऊन आदि का व्यापार पिछले साल तक अरबों रुपयों को छूता रहा है। दोनों जगहों पर कश्मीरी मजदूर इसलिए भी व्यापारियों की पहली पसंद होते हैं क्योंकि वे नाजुक सामान की लदाई-ढुलाई में विशेष दक्ष हैं। फिर वे ज्यादा मजदूरी के लिए सौदेबाजी भी नहीं करते। वे आठ-दस के समूह में आकर किराये की कोठरियों में डेरा डालते रहे हैं। कई मजदूर-समूह तो बीते 30 साल से आ रहे हैं और एक ही जगह रहने का ठिकाना करते हैं। लेकिन इस बार आलम बदल गया है।
लुधियाना के बड़े शॉल व्यापारी अशोक कुमार बिंदल ने नवजीवन को बताया कि हमारे यहां इस सीजन में करीब दो सौ कश्मीरी लेबर आते थे। वे बारामुला के विभिन्न गांवों से आते थे लेकिन इस बार नहीं आए। कुछ के नंबर हमारे पास थे। किसी तरह दो ठेकेदारों से बात हुई तो उन्होंने पंजाब आने से साफ इनकार कर दिया, यह कहकर कि इन हालात में बाहर के किसी भी राज्य में खतरा हो सकता है। कश्मीर में यह अफवाह फैली हुई है कि जिस तरह घाटी में प्रवासी मजदूरों को आतंकियों ने मार डाला, बदले के तौर पर कश्मीरियों को मारा जा सकता है। हिंसा से मरने की बजाए अपने बच्चों के बीच भूखों मरना उन्हें मंजूर है। ध्यान रहे कि पिछले महीने कश्मीर में बंगाल के कुछ मजदूरों की हत्या कर दी गई थी।
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एक अन्य व्यापारी शिवपाल सिंह नागरा ने भी अपने यहां दस साल से ज्यादा अरसे से आने वाले मजदूर निकमत खान से बात की तो उन्हें भी यही जवाब मिला कि वह इसलिए नहीं आएंगे क्योंकि कश्मीर से बाहर कश्मीरियों की जान जोखिम में पड़ सकती है। नागरा ने अपने स्थायी मजदूर को सुरक्षा का पूराआश्वासन भी दिया, लेकिन वह आने के लिए राजी नहीं हुआ और साफ कहा कि हर बार उसके साथ आने वाले उसके साथी मजदूर भी पंजाब नहीं जाएंगे। अमृतसर के कपड़ा व्यापारी रतन सिंह कटारिया कहते हैं कि ऐसा लगता है कि खौफ के चलते वे नहीं आ रहे। कितने ही सालों से उन्हें सर्दियों में यहां काम करते देखता रहा हूं, पर इस बार हालात जुदा हैं। अलबत्ता कुछ कश्मीरी व्यापारी जरूर इन दिनों नजर आ रहे हैं और वे रात को स्वर्ण मंदिर में ठहरते हैं।
वैसे, पंजाब आने वाले कश्मीरी श्रमिक और फेरी वाले अमूमन खाना गुरुद्वारों में हर वक्त मिलने वाले लंगर में ही खाते हैं। लुधियाना के सुप्रसिद्ध दुख निवारण गुरुद्वारे के सेवादार बुद्ध सिंह ने नवजीवन को बताया कि तीन से चार सौ तक कश्मीरी मजदूर और फेरी लगाने वाले यहां लंगर ग्रहण किया करते थे। इस बार एक भी अब तक नहीं आया। लुधियाना के एक अन्य बड़े गुरुद्वारे नानकसर में भी कश्मीरी श्रमिक नियमित लंगर छकते थे। वहां के एक सेवादार सुरजीत सिंह भी पुष्टि करते हैं कि इस बार उनमें से कोई नहीं आया। इसका मतलब है कि फिलहाल पंजाब से उन्होंने किनारा कर लिया है। हालात सामान्य हुए तो अब अगले साल ही आएंगे।
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कश्मीरी श्रमिकों के न आने से पंजाब में एक और संकट है। सर्दियों के मौसम में यहां आने पर वे लकड़ी काटने का काम दशकों से करते रहे हैं। इस बार वे लकड़हारे भी नहीं आए हैं। इनका इंतजार इस बार इसलिए भी हो रहा है क्योंकि पंजाब के लोग उनसे पीपल भी कटवाते हैं जिसे वे धार्मिक कारणों से खुद नहीं काटते और न (हिंदू-सिख) पंजाबी लकड़हारे काटते हैं। कश्मीरी सहजता और दक्षता से इस काम को अंजाम दे देते हैं। मकान या इमारत में उगा पीपल बहुत नुकसान देता है और बिल्डिंग को दो फाड़ कर देता है। इसलिए उसे जड़ से काटना अपरिहार्य होता है। बहुधा यह काम कश्मीरी मजदूर ही करते हैं।
गुरु नानक देव विश्वविद्यालय की कबीर पीठ के पूर्व चेयरमैन और पंजाब के नामचीन बुद्धिजीवी डॉ. सेवा सिंह कहते हैं कि अविश्वास और भय ने कश्मीरियों को उस राज्य से भी दूर कर दिया, जिसके लोगों पर उनका बहुत ज्यादा भरोसा था और जहां से वे साल भर की रोटी कमाकर जाते थे। यह चिंताजनक और दुखद स्थिति है। पिछले दिनों कश्मीर का दौरा करके लौटे प्रो. आकाशदीप सिंह बताते हैं कि “मैं पंजाब आने वाले कश्मीरी मजदूरों से भी मिला। कुछ कट्टरपंथी हिंदू संगठनों ने उत्तर प्रदेश में कश्मीरियों के साथ जैसा सुलूक किया, उसके मद्देनजर वे अपनी जमीन छोड़कर अब कहीं नहीं जाना चाहते। मानसिक रूप से टूट चुके कश्मीरी श्रमिक अब सबसे खौफजदा हैं। मैंने दौरे में पाया कि हालात कभी, किसी तरह सामान्य हो भी जाते हैं तो भी कश्मीरियों का गैर कश्मीरियों के प्रतिअविश्वास दूर होने में बहुत समय लगेगा।”
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नवजीवन ने श्रीनगर में रहने वाले एक जागरूक पत्रकार-लेखक से बात की, तो उन्होंने बताया कि कश्मीर के मजदूर पूरी तरह से तबाह हो गए हैं। खासतौर से हस्तशिल्प से जुड़े श्रमिक और कालीन बुनकर। कम से कम 50 हजार कालीन बुनकरों के परिवार बेरोजगार हो गए हैं। बुनकर मजदूरों का पूरा परिवार इस काम में जुटा रहता है। आखिर, एक बेहतरीन कालीन बनाने में तीन महीने तक लग जाते हैं। ऐसे कालीन प्री ऑर्डर पर तैयार किए जाते हैं। लेकिन इन दिनों इंटरनेट सेवाएं बंद हैं और कालीन व्यापारियों को कहीं से ऑर्डर नहीं मिल रहे। उन्हें भी चार महीनों में लगभग 400 करोड़ रुपये का भारी घाटा हुआ है।
इसके अतिरिक्त प्राकृतिक रंगों से मफलर तैयार करने वाले, अखरोट की लकड़ी से सजावट के सामान और अन्य चीजें बनाने वाले कारीगर भी पूरी तरह बेरोजगार हो गए हैं। कश्मीरी पश्मीना बनाने और देश-विदेश में बेचने वाले भी खाली हाथ हैं। इस पत्रकार का कहना है कि सरकार ने कश्मीर से अपनी एजेंसियों के जरिये सेब तो उठाया, पर इस ओर तवज्जो नहीं दी। स्थिति इसलिए भी खासी विकट है कि घाटी में बर्फ पड़नी शुरू हो गई है। पहले हजारों मजदूर बर्फ के सीजन से पहले दूसरे राज्यों में काम-धंधे के लिए जाते थे। अब इस बार उसकी कोई संभावना नहीं है।
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