जाति आधारित जनगणना की मांग एक बार फिर केंद्र की भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के नेतृत्व वाली सरकार को परेशान करने लगी है। आम चुनावों में बमुश्किल एक साल रह गए हैं और इसलिए वह इस संवेदनशील मुद्दे पर फूंक-फूंककर कदम रख रही है।
सर्वप्रथम ब्रिटिश सरकार द्वारा 1871-72 में संपूर्ण जनसंख्या के लिए और बाद में समय-समय पर की जाने वाली इंपीरियल जनगणना में हमेशा जाति-धर्म पर आधारित सामान्य प्रश्नों को शामिल किया गया है। हालांकि, पहली हल्की सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना (एसईसीसी) 1881 में अंग्रेजों द्वारा की गई थी - 140 साल पहले। इसके बाद 1931 में इसी तरह की जनगणना हुई थी।
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भारत ने 2011 में एक एसईसीसी का आयोजन किया था, लेकिन इसका उद्देश्य मुख्यत: गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) रहने वाले लोगों की संख्या का पता लगाने और उस समूह के लिए लक्षित कल्याणकारी उपायों या योजनाओं को डिजाइन करना था। हालांकि उसके आंकड़े आज तक सार्वजनिक नहीं किए गए हैं।
महाराष्ट्र कांग्रेस अध्यक्ष नाना पटोले ने दिसंबर 2021 में जाति आधारित जनगणना का मुद्दा उठाया और जल्द ही राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) और शिवसेना (उद्धव गुट) ने भी सुर में सुर मिला दिया। पटोले ने हाल ही में कहा, जाति जनगणना का फैसला सर्वसम्मति से (महाविकास अघाड़ी द्वारा) लिया गया था, लेकिन उसके बाद नई सरकार इसके प्रति अनिच्छुक है।
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कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता अतुल लोंधे ने कहा कि राज्य सरकार ने उस प्रस्ताव को ठंडे बस्ते में डाल दिया है और अब उस पर कोई प्रगति नहीं हो रही है। उन्होंने मांग की है कि इसे अविलंब दोबारा शुरू किया जाना चाहिए।
एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार ने विभिन्न जाति समूहों के लिए लक्षित विकास योजनाएं बनाने और सर्व-समावेशी समग्र राष्ट्रीय विकास हासिल करने में मदद करने के लिए सामाजिक न्याय से जुड़ी मजबूत भावनाओं के कारण जाति जनगणना के लिए एक ठोस दलील दी है।
एनसीपी के मुख्य प्रवक्ता महेश तापसे ने कहा कि सरकार की अनिच्छा भ्रामक है क्योंकि समय बीतने, बढ़ती आबादी और आकांक्षाओं के साथ कल्याणकारी उपायों तथा नीतियों को वर्तमान स्थिति के अनुरूप संशोधित करने की आवश्यकता है।
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शिवसेना (उद्धव गुट) के राष्ट्रीय प्रवक्ता किशोर तिवारी के अनुसार, बीजेपी सरकार 2024 के चुनावों से पहले जाति जनगणना को लेकर चिंतित है क्योंकि यह बहुत कुछ उजागर करेगा और उनकी पोल खोल देगा। तिवारी ने कहा, जाति को लेकर बहुत सारे असंतुलन हैं - जिनकी आबादी कम है उन्हें विकास का सर्वाधिक लाभ मिल रहा है, जबकि सभी जाति-समुदायों में समाज के निचले स्तर के लोगों की बड़ी आबादी की आज भी उपेक्षा हो रही है और उनकी आर्थिक स्थिति लगातार खराब हो रही है।
तापसे को लगता है कि एक जातिगत जनगणना संपूर्ण, वैज्ञानिक डेटा को सामने लाएगी जो नीति-निमार्ताओं को उनकी वास्तविक जरूरतों के आधार पर प्रत्येक जाति या समुदाय के लिए समान प्रतिनिधित्व के लिए विशेष नीतियां, आरक्षण और कार्यान्वयन तैयार करने में सक्षम कर सकती है।
वर्तमान में भारत काफी हद तक 1931 की जाति जनगणना के आंकड़ों पर निर्भर है। लेकिन पिछले 90 वर्षों में सामाजिक-आर्थिक स्थिति में आमूल-चूल परिवर्तन आया है, जो 21वीं सदी में आंकड़ों और जाति घटकों को नए सिरे से जानना जरूरी बना देता है।
विपक्ष की मांगों का जवाब देते हुए, उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने पिछले महीने कहा था कि सरकार बिहार पैटर्न का अध्ययन करने के लिए एक टीम भेजेगी जहां जाति-जनगणना की जा रही है।
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यह स्वीकार करते हुए कि राज्य में जाति-आधारित जनगणना पर लगभग आम सहमति है, फडणवीस ने सावधानी बरतने के लिए भी आगाह किया क्योंकि इस तरह की कवायद संभावित रूप से जातिगत संघर्ष पैदा कर सकती है, और इसलिए महाराष्ट्र में अंतिम निर्णय लेने से पहले बिहार के अनुभव का विश्लेषण करने की आवश्यकता है।
एक अच्छे वैज्ञानिक दृष्टिकोण की जरूरत बताते हुए फडणवीस ने 2011 के एसईसीसी का उल्लेख किया और दावा किया कि कई मुद्दों, त्रुटियों और विसंगतियों के कारण उस डाटा को सार्वजनिक नहीं किया गया था। इस तरह के गलत आंकड़ों को अपनाने से एक नया सामाजिक संकट पैदा हो सकता है क्योंकि सभी समुदाय इसका विरोध करेंगे।
एक उचित जाति जनगणना की आवश्यकता पर बल देते हुए, जनता दल (यू) विधान परिषद सदस्य कपिल पाटिल ने कहा कि यह न केवल राज्य में ओबीसी आबादी निर्धारित करने में मदद करेगा बल्कि महाराष्ट्र में सभी समुदायों का आंकड़ा भी प्रदान करेगा।
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तापसे ने कहा कि जब नवीनतम प्रामाणिक आंकड़ा उपलब्ध होता है तो सरकार यह सुनिश्चित कर सकती है कि कल्याणकारी योजनाएं इच्छित वर्गों तक पहुंचे और मौजूदा सामाजिक-आर्थिक विषमताओं को दूर किया जा सके।
संयोग से, महाराष्ट्र ने 2023-2024 के बजट में घोषणा की कि वह राज्य में लिंगायत, गुरव, वडार और रामोशी समुदायों के लिए जाति-वार विकास निगम स्थापित करेगा, जिससे जाति जनगणना की मांग को और बढ़ावा मिलेगा।
कुछ साल पहले महाराष्ट्र राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग (एमएससीबीसी) ने प्रस्तावित एसईसीसी के लिए अनुभवजन्य आंकड़ा संग्रह प्रारूप और मानदंडों को अंतिम रूप दिया था, जिसकी अनुमानित लागत लगभग 435 करोड़ रुपये थी, लेकिन जैसा कि राज्य के विपक्षी नेताओं ने कहा, कोई प्रगति नहीं हुई है।
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