असम का फाइनल राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) शनिवार को सुबह दस बजे प्रकाशित हो जाएगा। इसके साथ ही चार सालों से चल रही इस प्रक्रिया का समापन हो जाएगा। इस तरह 40 लाख से भी अधिक लोगों के भाग्य का फैसला भी कल होने वाला है। इस सूची के प्रकाशित होने पर लाखों लोगों के सामने नागरिकता खोने का खतरा मंडरा रहा है। ऐसे नागरिकता विहीन लोगों की तादाद लाखों में होने की आशंका जाहिर की जा रही है और माना जा रहा है कि इस तरह असम में विश्व का सबसे बड़ा मानवीय संकट पैदा हो सकता है।
असम सरकार ने किसी भी अप्रिय हालात से निपटने के लिए भारी तादाद में सुरक्षा बलों को तैनात किया है और राज्य के कई हिस्से में धारा 144 लागू की गई है। स्थानीय अखबारों में सरकार ने विज्ञापन देकर साफ किया है कि जिन लोगों के नाम अंतिम सूची में नहीं आएंगे, उनको डिटेन्शन कैंप में कैद नहीं किया जाएगा, न ही उन्हें तुरंत विदेशी माना जाएगा। ऐसे लोग 120 दिनों के अंदर विदेशी ट्रिब्यूनल में अपील कर सकते हैं और ऊंची अदालतों में भी गुहार लगा सकते हैं।
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असम सरकार ने जरूरतमंदों को सरकार की तरफ से मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान करने की भी बात कही है। असम के अतिरिक्त मुख्य सचिव (राजनीति और गृह विभाग) कुमार संजय कृष्ण ने कहा है कि प्रखंड स्तर पर विदेशी ट्रिब्यूनल की व्यवस्था की गई है, जहां एनआरसी की सूची से बाहर रहने वाले लोग अपील कर सकते हैं। जब तक ट्रिब्यूनल किसी व्यक्ति को विदेशी घोषित नहीं कर देता तब तक उसे डिटेन्शन कैंप में बंद नहीं किया जाएगा।
एनआरसी के प्रकाशन के बाद जिन लोगों की नागरिकता छीन ली जाएगी उनको विदेशी ट्रिब्यूनल, हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक अपनी नागरिकता साबित करने की कानूनी लड़ाई कई सालों तक लड़नी पड़ेगी। हो सकता है कुछ लाख लोग इस तरह अपनी नागरिकता साबित करने में सफल भी हो जाएं, लेकिन अधिकतर लोगों को नागरिकता विहीन जीवन जीने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।
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एनआरसी से बाहर रहने वाले लोगों की नागरिकता पर सुनवाई करने के लिए किसी तरह की ठोस तैयारी नहीं की गई है। असम में 100 विदेशी ट्रिब्यूनल हैं, जिनमें से 70 ही काम कर रहे हैं। राज्य सरकार ने ऐसे 1000 ट्रिब्यूनल गठित करने का प्रस्ताव केंद्र को भेजा था। केंद्र ने 400 ट्रिब्यूनल के गठन को मंजूरी दी है और सितंबर में 200 ट्रिब्यूनल के गठन की बात कही गई है। स्पष्ट है कि नागरिकता से वंचित होने वालों को लंबी और कठिन कानूनी प्रक्रिया का सामना करना पड़ेगा और आर्थिक रूप से कमजोर लोग सीधे डिटेन्शन कैंप में बंदी बनकर जीने के लिए मजबूर किए जाएंगे। ऊंची अदालतों तक जाने का खर्च गरीब तबके के लोग उठा नहीं पाएंगे। लाखों लोगों को डिटेन्शन कैंपों में कैद रखने की योजना आत्मघाती और विध्वंसक साबित हो सकती है। ऐसा करना तमाम बुनियादी मानवीय सिद्धांतों और शरणार्थियों से संबंधित अंतरराष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन समझा जाएगा।
आधिकारिक रूप से दावा किया गया है कि एनआरसी की प्रक्रिया के जरिये असम में बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ की समस्या का समाधान किया जाएगा। असम में सबसे पहले 1951 में नागरिकों के नाम, निवास और उनकी भूमि के ब्यौरों के साथ राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) का प्रकाशन किया गया था। 1979 से 1985 तक असम में जो विदेशी बहिष्कार आंदोलन चला उसी समय एनआरसी को अपडेट करते हुए घुसपैठ की समस्या को हल करने की मांग उठाई गई।
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ऐसा माना जाता है कि ब्रिटिश शासन काल से ही पूर्वी बंगाल से लोग आकर असम में बसते रहे हैं, लेकिन बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के समय 1971 में पाकिस्तानी सेना के दमन से बचने के लिए भारी तादाद में बंगलादेशी शरणार्थी असम में आए। छह सालों तक चले विदेशी बहिष्कार आंदोलन का समापन 1985 में असम समझौते के जरिये हुआ। उस समझौते में 24 मार्च,1971 को कट ऑफ तिथि स्वीकार किया गया।
असम समझौते के बाद नागरिकता अधिनियम, 1955 में संशोधन कर 1 जनवरी,1966 से पहले असम आए तमाम बांग्लादेशियों को भारत की नागरिकता प्रदान की गई। यह प्रावधान भी किया गया कि 1 जनवरी,1966 से 25 मार्च,1971 के बीच बांग्लादेश से आए लोगों को दस वर्षों तक असम में रहने पर पंजीकृत किया जाएगा और उनको नागरिकता दी जाएगी। 25 मार्च,1971 के बाद आए बांग्लादेशियों को विदेशी मानकर वापस भेजा जाएगा।
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