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प्रधानमंत्री की परीक्षा मुश्किल समय में ही होती है, पुलवामा के बदले युद्ध करना कोई पिकनिक नहीं:  ए एस दुलत

पुलवामा में सीआरपीएफ के काफिले पर हुए आतंकी हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच बन रहे युद्ध के आसारों पर रॉ के पूर्व प्रमुख ए एस दुलत का कहना है कि पीएम मोदी को कोई भी फैसला करते समय सभी विकल्पों पर गौर करना चाहिए क्योंकि युद्ध कोई पिकनिक नहीं है।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में सीआरपीएफ के काफिले पर फिदायीन हमले के बाद भारत और पाकिस्तान में युद्ध के बढ़ रहे आसारों के बीच भारत की खुफिया एजेंसी रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के पूर्व प्रमुख ए एस दुलत ने कहा कि हिंसा का जवाब हिंसा नहीं हो सकता। उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कोई भी फैसला करते समय संभावित विकल्पों पर गौर करना चाहिए, क्योंकि युद्ध कोई पिकनिक नहीं है। नवजीवन के लिए ऐशलिन मैथ्यू ने दुलत से भारत-पाक रिश्तों के मौजूदा हालात पर विस्तार से बात की। प्रस्तुत है साक्षात्कार के प्रमुख अंश।

क्या यह सरकार पाक से युद्ध करेगी? क्या ऐसा करना व्यावहारिक होगा?

मुझे नहीं लगता। सरकार ने यह कहा जरूर है कि वह सेना को खुली छूट दे रही है, लेकिन इन दिनों युद्ध तो बड़ी वाहियात चीज हो गई है। संदेह नहीं कि इसके अलावा भी तमाम विकल्प हैं। मुंबई पर आतंकवादी हमले के बाद भी युद्ध का माहौल बन गया था और आज की तुलना में इसकी हवा कहीं तेज थी। लेकिन मनमोहन सिंह ने युद्ध का विकल्प नहीं चुना। शीर्ष पर बैठे व्यक्ति को कोई भी फैसला लेते समय इसके परिणाम के बारे में सोचना चाहिए। युद्ध कोई पिकनिक तो है नहीं। 1971 के बाद दोनों देशों के बीच कोई प्रत्यक्ष युद्ध नहीं हुआ। कारगिल एक छोटा ऑपरेशन था जो पहाड़ियों पर हुआ। भाग्यवश तब असैनिक आबादी ज्यादा प्रभावित नहीं हुई। लेकिन अगर लाहौर, यहां तक कि मुज्जफराबाद पर भी हमने बमबारी की तो इसका खामियाजा भुगतने के लिए भी तैयार रहना पड़ेगा। मनमोहन सिंह जैसे लोगों ने कहा है कि युद्ध व्यावहारिक विकल्प नहीं। वाजपेयी भी यही बात करते थे और मुशर्रफ भी।

इस बात की सूचना थी कि आईईडी इकट्ठा की जा रही हैं, लेकिन इसे नजरअंदाज कर दिया गया। आपको क्या लगता है, हमले को टाला जा सकता था ?

मुझे नहीं पता कि कैसी सूचना थी। जब भी कुछ गड़बड़ हो जाती है तो खुफिया एजेंसियों को दोषी ठहराया जाता है। यह सही है कि अगर खुफिया चूक नहीं होती तो कुछ भी अप्रिय नहीं होता। लेकिन दुनिया भर के तमाम उदाहरणों के मद्देनजर समझना होगा कि सुरक्षा की तरह ही खुफिया सूचना भी सौ फीसदी कारगर नहीं होती। खुफिया विभाग की ओर से जो इनपुट मिलते हैं वे सरकार को एहतियात बरतने में मदद करते हैं लेकिन कई बार ऐसा भी होता है कि आपके पास ठीक-ठीक जानकारी नहीं होती। दूसरी अहम बात है कि पहले भी फिदायीन हमले हुए हैं लेकिन इनमें से ज्यादातर पाकिस्तानियों ने अंजाम दिए। लेकिन इतना बड़ा हमला कभी किसी स्थानीय लड़के ने अंजाम नहीं दिया, भले वह किसी भी आतंकवादी संगठन से जुड़ा हो। यह जरूर डराने वाली बात है। आपके पास यह तो इनपुट हो सकता है कि कुछ होने जा रहा है, लेकिन आपको यह पता नहीं चल सकता कि किसी खास व्यक्ति के मन में क्या चल रहा है।

अगर आप अब भी खुफिया एजेंसी के साथ होते तो क्या स्थिति कुछ अलग होती?

मुझे नहीं लगता कि तब भी कोई फर्क होता क्योंकि कोई भी इस तरह का इनपुट तो देता नहीं कि अमुक युवक खुद को उड़ाने जा रहा है। इस तरह का इनपुट किसी के पास नहीं हो सकता। उसके परिवार को पता नहीं था, उसके पिता को पता नहीं था।

मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार कोई राजनीतिक पहल नहीं कर रही है। किसी भी संबद्ध व्यक्ति से कोई बातचीत नहीं हो रही है। ऐसा लगता है कि वे अब भी ताकत के बल पर वहां की स्थिति से निपटना चाहते हैं...

मैंने पहले ही कहा है कि समाधान तो बातचीत से ही निकलेगा। आज लोग पूछते हैं कि वहां किससे बात की जाए। यह इसलिए कि लोगों को पता नहीं कि कश्मीर में आखिर हो क्या रहा है। मेरा सवाल है कि क्या सरकार को फारुख अब्दुल्ला से बातचीत करने में कोई परेशानी है? मुझे खुशी है कि गृहमंत्री ने हाल ही में उमर अब्दुल्ला से मुलाकात की। आप महबूबा मुफ्ती से बात क्यों नहीं करते? सरकार को चाहिए कि वह फारुख, महबूबा मुफ्ती समेत कुछ और लोगों से एक साथ बात करे। अगर आप अलगाववादियों से बात नहीं करना चाहते तो कोई बात नहीं। मुख्यधारा में लौट चुके सज्जाद लोन से तो बात कर सकते हैं? अगर शीर्ष स्तर पर बातचीत नहीं करना चाहते तो गृहमंत्री को बात करने दीजिए। उन्हें फारुख अब्दुल्ला से बात करनी चाहिए। दिल्ली, कश्मीर और पाकिस्तान को उनसे बेहतर कोई नहीं जानता।

मोदी सरकार के दौरान कश्मीर में हमले बढ़े हैं, क्यों?

हां, हमले बढ़े हैं। जब आप बातचीत बंद कर देते हैं तो अपने विकल्प कम कर लेते हैं। अगर हम दुनिया की बात करें तो ऐसे उदाहरण कम ही मिलते हैं जब ताकत या बंदूक के बल पर कहीं उग्रवाद की समस्या हल हुई हो। ताकत का इस्तेमाल सबसे ज्यादा ब्रिटेन ने किया। लेकिन उनकी यह नीति 1950 में मलाया में बुरी तरह विफल रही। उसी के बाद ब्रिटेन के दो सीनियर सैन्य अधिकारियों (एक फील्ड मार्शल और एक जनरल) ने हैंडबुक तैयार किया कि उग्रवाद से कैसे निपटा जाए। इस हैंडबुक का अब भी पश्चिम में इस्तेमाल हो रहा है और इसका निचोड़ यही है कि इसका उपाय है लोगों के दिल-दिमाग को जीतना।

सरकार ने अलगाववादी नेताओं की सुरक्षा हटा ली है, इसका क्या असर पड़ेगा?

मुझे नहीं लगता कि इसका कोई असर पड़ेगा। हां, इनमें से किसी को गोली मारी जा सकती है। इनपर कई तरह के खतरे हैं। उनके आसपास का ही कोई आदमी बदला लेने के लिए हमला कर सकता है। सज्जाद लोन के पिता अब्दुल गनी लोन की भी तो हत्या कर दी गई थी। उनमें से वह अकेले राजनीतिज्ञ थे। वह एक बड़ी शख्सियत थे। इसलिए, अब मुझे सबसे ज्यादा भय मीरवायज उमर फारुख के लिए होता है। वह अकेले ऐसे अलगाववादी नेता हैं जो महत्वपूर्ण हैं और कश्मीर में उनकी भूमिका अहम है। इसलिए उनकी सुरक्षा जरूरी है।

अब क्या हो सकता है?

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का आज भी घाटी में सम्मान है। वह कोई पाकिस्तानी नहीं हैं। उनके साथ खास बात यही रही कि उन्होंने कश्मीरियों और पाकिस्तान के मामले में कभी उम्मीद नहीं छोड़ी। मुझे लगता है कि उन्हें मोदी की तुलना में कहीं अधिक परीक्षा से गुजरना पड़ा। उनके समय कारगिल हुआ, संसद पर हमला हुआ, आईसी-814 का अपहरण हुआ। लेकिन उन्होंने संतुलन नहीं खोया, आपा नहीं खोया। वह भारतीय प्रधानमंत्री बड़ा ही भाग्यशाली होगा जिसके पांच साल के कार्यकाल में कोई गंभीर संकट न खड़ा हो। इस मामले में मोदीजी भाग्यशाली तो हैं। उरी और पठानकोट के हमले हुए, लेकिन वे संसद पर हमले या कांधार विमान अपहरण कांड जैसे बड़े मामले नहीं थे। एक प्रधानमंत्री की परीक्षा मुश्किल समय में होती है। मनमोहन सिंह के लिए बड़ा मुश्किल समय था जब मुंबई हमला हुआ। लेकिन, उन्होंने पूरी समझदारी से काम लिया और तब ऐसा लगता था कि इसका खामियाजा कांग्रेस को उठाना पड़ेगा, लेकिन उसके बाद एक साल से भी कम समय में पार्टी फिर से सत्ता में थी। मेरा मानना है कि भारत को आक्रामक कूटनीति का सहारा लेना चाहिए।

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