नागरिक अधिकारों के लिए लगातार जूझने वाले प्रख्यात अधिवक्ता प्रशांत भूषण के इस साल जून में किए गए दो ट्वीट का निष्कर्ष निकालते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 14 अगस्त को 108 पेज की प्रतिक्रिया दी। उसने लगभग 22 दिनों में उन्हें अदालत की अवमानना का दोषी बताया। भले ही भूषण अपनी बात पर कायम रहने की बात कह रहे हों, अभी 20 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें अपने बयान पर फिर से विचार करने के लिए 2-3 दिनों का समय दिया है। भूषण ने कोर्ट से कहा कि अपने मुकदमे के समय महात्मा गांधी ने जो कहा था, वह उसे ही कहेंगे, ’मैं दया की मांग नहीं करूंगा। मैं उदारता की अपील नहीं करता हूं।’ उनके ट्वीट उनके पुख्तायकीनों का प्रतिनिधित्व करते हैं और वह उनपर कायम हैं। सुप्रीम कोर्ट में ही प्रैक्टिस करने वाले एक अधिवक्ता ने बाद में ट्वीट किया कि भूषण ने वकील बनने के लिए आईआईटी, मद्रास और प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी छोड़ दी थी। इस ट्वीट में कहा गया है कि ‘आईआईटी, मद्रास के दिनों से ही वह अपने दिल की बातें सुनते रहे हैं। आप सोचते हैं कि दो दिनों में वह अपना बयान बदल देंगे? गुड लक!’
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वैसे, भूषण को दोषी करार दिए जाने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर बार काउंसिलें भी बंट गई दिखती हैं। महाराष्ट्र और गोवा की काउंसिलों ने फैसले का समर्थन किया है। लेकिन यह भी ध्यान रखने वाली बात है कि देश भर के 1,500 वकीलों ने एक बयान में कहा है कि ‘यह फैसला जनता की नजर में कोर्ट के अधिकार को पहले जैसा नहीं रखता। बल्कि यह खरी-खरी बोलने के प्रति वकीलों को हतोत्सहित ही करेगा।’ सुप्रीम कोर्ट के सात पूर्व न्यायाधीशों ने भूषण के खिलाफ कार्यवाही वापस लेने का पिछले माह सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध किया था। ये हैं: न्यायमूर्ति सर्वश्रीरूमा पाल, जी.एस. सिंघवी, ए.के. गांगुली, गोपाला गौड़ा, आफताब आलम, जे. चेलमेश्वर और विक्रमजीत सेन। इस बयान पर अन्य लोगों के अतिरिक्त दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ए.पी. शाह, पटना हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश अंजना प्रकाश, इतिहासकार रामचंद्रगुहा, लेखिका अरुंधती रॉय, कानूनविद इंदिरा जयसिंह और एक्टिविस्ट हर्ष मंदर ने भी हस्ताक्षर किए हैं।
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27 जून को किए ट्वीट में भूषण ने पिछले छह साल के दौरान लोकतंत्र के ‘विनाश’ में ‘सुप्रीम कोर्ट की भूमिका’ को लेकर लिखा था और ‘देश के पिछले चार प्रधान न्यायाधीशों की भूमिका’ का उल्लेख भी किया था। 29 जून को किए अपने दूसरे ट्वीट में उन्होंने हर्ले डेविडसन बाइक पर बैठे प्रधान न्यायाधीश एस.ए. बोबडे पर टिप्पणी की थी। भूषण के खिलाफ दिए गए फैसले से सहमत न होने वाले वकील कई मामलों को सामने रख रहे हैं। उनका कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के पास कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाए जाने, इलेक्टोरल बॉण्ड, नागरिकता संशोधन कानून और कश्मीरियों द्वारा दायर की गई बंदी प्रत्यक्षीकरण से संबंधित याचिकाओं पर सुनवाई का समय नहीं है, पर भूषण के खिलाफ कार्यवाही उसने तुरत-फुरत में की। इलेक्टोरल बॉण्ड को लेकर दायर याचिकाएं सुप्रीम कार्ट के पास पिछले तीन साल से लंबित हैं। संभावना है कि इस पर सितंबर के पहले हफ्ते में सुनवाई हो। अनुच्छेद 370 को हटाए जाने के खिलाफ दायर याचिका करीब एक साल से लंबित है।
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दरअसल, भूषण के ट्वीट के विषय को लेकर भी एक राय नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति मदन लोकुर ने उन्हें एक परिप्रेक्ष्य में देखते हुए कहा कि भूषण का ट्वीट एक राय है जिसपर अदालत की अवमानना का मामला नहीं बनता। उन्होंने कहा, ‘मुगल शासन को लेकर कुछ इतिहासकारों की राय प्रेममय है, दूसरों की नहीं। राज को लकर कुछ इतिहासकारों की राय प्रेममय है, दूसरों की नहीं। आजादी के बाद के कुछ नेताओं को लेकर कुछ इतिहासकारों की राय प्रेममय है, दूसरों की नहीं। इसी तरह, आगे आने वाले इतिहासकार भारत के प्रधानन्यायाधीशों की भूमिका को लेकर प्रेममय तरीके से देख सकते हैं जबकि दूसरे नहीं देखेंगे। क्या हमें शासन और न्याय समेत जीवन के हर अंग में एक समान राय की जरूरत है? क्या असहमति और विरोध अरुचिकर हैं?’
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