एनवायर्नमेंटल हेल्थ पर्सपेक्टिव्स नाम के जर्नल में अगस्त, 2017 में प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार हवा में ओजोन गैस की उपस्थिति के कारण विश्व में प्रतिवर्ष लगभग दस लाख व्यक्तियों की असामयिक मृत्यु होती है। यह संख्या सांस से संबंधित रोगों के कारण होने वाली कुल मृत्यु का लगभग पांचवां भाग है। शोध पत्र के अनुसार ओजोन के कारण मृत्यु दर से संबंधित सभी अनुमानों की तुलना में यह संख्या अधिक है। युनिवर्सिटी आॅफ यार्क स्थित स्टाकहोम एनवायर्नमेन्ट इंस्टीट्यूट में वैज्ञानिक और शोध पत्र के मुख्य लेखक क्रिस मैले के अनुसार इस अध्ययन से इतना तो स्पष्ट है कि पूरे विश्व में रोगों के बोझ के संदर्भ में ओजोन बड़ी वजह है।
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हवा में ओजोन की अधिक मात्रा में मौजूदगी की वजह से सर्वाधिक मृत्यु एशिया में होती है। पूरे विश्व में होने वाली मृत्यु में से 79 प्रतिशत मृत्यु अकेले एशिया में होती है। एशिया में भी सर्वाधिक मृत्यु यानी लगभग 4 लाख व्यक्तियों की असामयिक मृत्यु हमारे देश में होती है जो ओजोन के कारण होने वाली सांस संबंधी समस्याओं की देन है। लगभग 2 लाख 70 हजार असामयिक मृत्यु के साथ चीन दूसरे स्थान पर है। अफ्रीका, यूरोप और उत्तरी अमेरिका में 50 से 60 हजार मौतें होती हैं, जबकि दक्षिणी अमेरिका में इससे कुछ कम मौतें होती है।
शोध पत्र के अनुसार हवा में ओजोन की मौजूदगी कम करने के लिए वायु प्रदूषण उत्पन्न करने वाले विभिन्न स्त्रोतों को नियंत्रित करना आवश्यक है। अन्य गैसों की तरह ओजोन का कहीं से सीधे तौर पर नहीं निकलता, बल्कि वाहनों और उद्योगों से उत्पन्न नाइट्रोजन के ऑक्साइड और विभिन्न कार्बनिक पदार्थ और मीथेन आदि धूप में आपस में प्रतिक्रिया कर ओजोन बनाते हैं। ओजोन गैस शहरों के वातावरण में बनने वाले धूमकोहरा या स्माॅग का एक महत्त्वपूर्ण अवयव है। एक बार बनने के बाद ओजोन कुछ सप्ताह तक वायुमंडल में रहती है और हवा के साथ-साथ लंबी दूरी तय कर सकती है।
ओजोन की अधिक मात्रा में लंबे समय तक रहने से दमा के रोगी, बुजुर्ग और बच्चे सबसे अधिक प्रभावित होते हैं। कम अवधि तक भी ऐसी हवा में सांस लेने से छाती में दर्द, खांसी, गले में खराश और श्वसन नलिका में जलन हो सकता है। ओजोन का बुरा प्रभाव मनुष्यों के साथ ही वनस्पतियों, पक्षियों और जंतुओं पर भी पड़ता है। कृषि उत्पादन को भी ओजोन की अधिक मौजूदगी प्रभावित करती है। जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स नाम के जर्नल में प्रकाशित एक लेख के अनुसार भारत में लगभग 60 लाख मेट्रिक टन गेंहू, चावल और दूसरे अनाज ओजोन के कारण नष्ट हो जाते हैं। इतने अनाज से 9 करोड़ 40 लाख गरीबों का पेट भरा जा सकता है। इसी लेख में यह भी बताया गया है कि हवा में यदि ओजोन की मौजूदगी को नियंत्रित कर लिया जाता है तो देश में चावल का उत्पादन 2.5 प्रतिशत और गेंहू का उत्पादन 3.3 प्रतिशत बढ़ाया जा सकता है।
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने 18 नवम्बर, 2009 को परिवेशी वायु के लिए मानकों को निर्धारित कर राजपत्रित अधिसूचना जारी की थी। इसके अनुसार एक घंटे में हवा में इसकी मौजूदगी 180 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर और 8 घंटे में औसत मौजूदगी 100 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर से अधिक नहीं होनी चाहिए। केन्द्रीय बोर्ड की वायु प्रदूषण नियंत्रण के संदर्भ में असंवेदनशीलता इस तथ्य से स्पष्ट हो जाती है कि अधिकतर गैसें या प्रदूषणकारी पदार्थ के जो मानक हैं उनकी मान्य सीमा पारिस्थितिकी तंत्र की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों के लिए अन्य क्षेत्रों (औद्योगिक, आवासीय, व्यापारिक, ग्रामीण) से अलग है और सख्त है। लेकिन ओजोन के लिए सभी क्षेत्रों के लिए मानक एक ही हैं। तमाम वैज्ञानिक संदर्भ यह बताते हैं कि ओजोन से वनस्पति, पक्षी, जीव और वन्य जीव प्रभावित होते हैं पर केन्द्रीय बोर्ड को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
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केन्द्रीय बोर्ड की असंवेदनशीलता का आलम यह है कि जीव-जंतु तो दूर, मानव स्वास्थ्य या असामयिक मृत्यु से भी उसे फर्क नहीं पड़ता। 2009 में मानक निर्धारित करने के बाद भी आज तक यह संस्थान दिल्ली या दो-तीन और महानगरों को छोड़कर अन्य शहरों में इसका परिमापन नहीं कर पाया हे। जब शहरों में ही इसकी मौजूदगी नहीं मापी जाती तो गांवों के बारे में आप खुद समझ सकते हैं। कुछ वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार बच्चों की वायु प्रदूषण, विशेषकर ओजोन के कारण मृत्यु हमारे देश में पूरे विश्व के संदर्भ में सर्वाधिक हैं और पिछले पांच वर्षों के दौरान इस मृत्यु दर में 148 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है।
दिल्ली के बहुचर्चित वायु प्रदूषण के संदर्भ में भी केन्द्रीय बोर्ड केवल पीएम10 और पीएम2.5 की चर्चा करता है। ऐसा नहीं है कि मानक में केवल यही दो पैरामीटर हैं। 2009 में अधिसूचित परिवेशी वायु गुणवत्ता के मानकों में कुल 12 पैरामीटर है। पर, बिजली को छोड़कर बाकी सभी शहरों में परिवेशी वायु गुणवत्ता के आकलन के नाम पर केवल तीन पैरामीटर मापे जाते हैं, इनमें ओजोन शामिल नहीं है। इस तथ्य को इस तरह से समझा जा सकता है। मान लीजिए, आप बोर्ड परीक्षा में बैठे हैं, जिसमें आपको 6 विषय की परीक्षा देनी है, पर आप केवल दो विषय की परीक्षा देते हैं और शेष चार विषय की परीक्षा नहीं देते। केवल दो विषयों के अंकों के आधार पर आप प्रथम श्रेणी या द्वितीय श्रेणी की बातें करने लगते हैं। यही काम केन्द्रीय बोर्ड कर रहा है, मानक में 12 पैरामीटर हैं यानी सभी पैरामीटर को मापने के बाद ही आप किसी भी शहर के परिवेशी वायु की गुणवत्ता बता सकते हैं। पर, केन्द्रीय बोर्ड केवल तीन पैरामीटर का परिमापन कर शहरों की वायु गुणवत्ता बता देता है।
मानकों के साथ जुड़ा दिलचस्प पहलू यह भी है कि जब केन्द्रीय बोर्ड ने पूरे देश में सभी पैरामीटर का परिमापन किया ही नहीं तो पूरे देश में एक ही मानक को लागू कैसे कर दिया? दिल्ली में जिस मानक का पालन करना है, उसी का पालन हिमालय के पास बसे शहरों में भी करना है।
ऐसा नहीं है कि ओजोन हमेशा मानक के भीतर ही रहता है, इसलिए इस पर ध्यान नहीं दिया जाता। दिल्ली के आंकड़े बताते हैं, हरेक वर्ष गर्मियों के शुरू में, मार्च से जून तक हवा में इसकी मौजूदगी कई दिनों तक मानक से अधिक रहती है। सेन्टर फाॅर साईंस एण्ड एनवायर्नमेट (सीएसई) ने जून, 2014 में बताया था, दिल्ली में कई स्थानों पर ओजोन की हवा में मौजूदगी निर्धारित मानक से तीन गुना अधिक पहुंच गई थी। इसके बाद दिल्ली सरकार ने जब दूसरी बार सम-विषम नीति लागू की थी, उस अवधि में भी ओजोन सीमा से दुगुने से अधिक के स्तर पर पहुंच गया था। इस वर्ष भी जून के महीने में इसकी मौजूदगी मानक से 3.4 गुना ज्यादा हो गई थी। सीएसई के आकलन के अनुसार फरवरी, मार्च, अप्रैल और मई 2017 के दौरान परिवेशी वायु गुणवत्ता का जितनी बार आकलन किया गया, ओजोन की मौजूदगी क्रमशः 12,19, 52 और 77 प्रतिशत रही और हर बार मानक से अधिक पाई गई।
स्पष्ट है, ओजोन की समस्या हमारे शहरों में गंभीर है और जानलेवा स्तर तक पहुंच जाती है। पर, केन्द्रीय बोर्ड और पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय इस समस्या के प्रति उदासीन हैं और यह निःसंदेह निराशाजनक है।
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