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उपचुनाव नतीजे: विपक्षी एकता को लेकर बढ़ा उत्साह, राजनीति में नए बदलाव के भी संकेत

निश्चित रूप से यह परिणाम राजनीति में बड़े बदलाव का संकेत देते हुए लगते हैं। यहां वोट की राजनीति से ज्यादा उसके अंकगणित का खेल दिख रहा है। एक बार फिर संयुक्त विपक्ष की एकता अनुकूल नतीजे देने वाला साबित हुआ है।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया विपक्षी एकता को लेकर बढ़ा उत्साह

अब इसे नतीजों का विश्लेषण कहें या लोकतंत्र के मन की बात, सच यह है कि गणित के हिसाब-किताब ने बीजेपी को पीछे कर दिया है। इसका मतलब यह हुआ कि 2014 के आम चुनाव में मतदाताओं की सबसे ज्यादा पसंदीदा बीजेपी थी, क्योंकि उन दिनों विपक्ष बंटा हुआ था।

31 मई को आए चुनाव परिणामों का निष्कर्ष यह है कि जीत उसी की हुई है जो उपचुनावों में मतदाताओं की बड़ी पसंद था। एक तरह से गठबंधन से भी आगे की बात निकलकर सामने आई है जो बताती है कि राजनीति में सारा खेल अब 'गणित' का हो गया है।

इन चुनावों से पहले भले कोई भी राजनीतिक दल अपनी लोकप्रियता को लेकर कैसी भी डींगे हांकते रहे हों, लेकिन ताजा परिणामों ने सबको चौंका दिया है। अब यह कहना भी बेमानी नहीं होगा कि विपक्षी एकता की राजनीति के नए दौर की शुरुआत हो चुकी है, जो दुनिया के सबसे बड़े राजनीतिक दल का दावा करने वाली बीजेपी के लिए निश्चित रूप से चिंता का कारण बन चुकी है।

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आंकड़ों के लिहाज से भी देखें तो 2014 में सत्ता में आने के बाद से बीजेपी को उपचुनावों में कोई खास कामयाबी नहीं मिली। बीते 4 सालों में 23 उपचुनाव हुए, जिनमें सिर्फ 4 सीटें ही बीजेपी जीत सकी। लेकिन यह भी हकीकत है कि मुख्य चुनावों में बीजेपी को अच्छी कामयाबी मिली। 2014 में हुए लोकसभा के उपचुनावों में महाराष्ट्र के बीड़ में बीजेपी, ओडिशा के कंधमाल में बीजू जनता दल, तेलंगाना के मेडक में टीआरएस, गुजरात के वडोदरा में बीजेपी और यूपी के मैनपुरी में समाजवादी पार्टी ने अपनी-अपनी सीटें बचा ली थीं।

2015 में हुए लोकसभा चुनावों में मध्यप्रदेश के रतलाम में बीजेपी की सीट पर कांग्रेस ने जीत दर्ज की, वहीं तेलंगाना के वारंगल में टीआरएस तो पश्चिम बंगाल के बनगांव में तृणमूल कांग्रेस ने अपनी सीट सुरक्षित रखी। 2016 लोकसभा के 4 उपचुनावों में जो जिसकी सीट थी, उसे दोबारा मिल गई।असम के लखीमपुर और मध्य प्रदेश के शहडोल में बीजेपी ने अपनी सीटें बचाए रखीं, वहीं पश्चिम बंगाल के कूचबिहार और तमलुक में तृणमूल कांग्रेस ने अपनी सीटों को बरकरार रखा। 2017 में पंजाब के अमृतसर में कांग्रेस ने वापसी की, लेकिन बीजेपी को झटका देते हुए पंजाब में ही गुरदासपुर सीट कांग्रेस ने हथिया ली। श्रीनगर सीट पीडीपी के हाथों से निकल कर नेशनल कांफ्रेंस के पास चली गई। केरल के मल्लापुरम की सीट पर इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग ने कब्जा बरकरार रखा।

लेकिन 2018 में हुए उपचुनाव बीजेपी के लिए बेहद निराशाजनक रहे। राजस्थान की अलवर और अजमेर सीट बीजेपी के हाथों से खिसक कर कांग्रेस के हाथों में चली गई, जबकि पश्चिम बंगाल में उलुबेरिया की सीट बचाने में तृणमूल कांग्रेस कामयाब रही।

बेहद महत्वपूर्ण और प्रतिष्ठा की सीट माने जाने वाली उत्तर प्रदेश की गोरखपुर और फूलपुर सीट यानी मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री बनाए जाने से बीजेपी की खाली हुई दोनों सीटें समाजवादी पार्टी ने छीन ली। वहीं आरजेडी बिहार की अररिया सीट को बचाने में कामयाब रही।

31 मई को 4 लोकसभा सीटों के आए नतीजों ने निश्चित रूप से बीजेपी खेमे के लिए बड़ी चिंता बढ़ा दी है। विपक्षी एकता के तहत हुए गोरखपुर-फूलपुर के प्रयोगों से उत्साहित संयुक्त विपक्ष के प्रत्याशी ने राष्ट्रीय लोकदल के चिन्ह पर जहां कैराना की प्रतिष्ठापूर्ण सीट बीजेपी से छीन ली, वहीं लगभग ऐसा ही प्रयोग महाराष्ट्र के गोंदिया में करते हुए विपक्ष ने बीजेपी को साल की चौथी शिकस्त दे दी। यह जरूर है कि बीजेपी पालघर सीट बचाने में सफल रही, वहीं नागालैंड में बीजेपी समर्थित एनडीपीपी सीट बचाने में कामयाब रही।

निश्चित रूप से यह परिणाम राजनीति में बड़े बदलाव का संकेत देते हुए लगते हैं। यहां वोट की राजनीति से ज्यादा उसके अंकगणित का खेल दिख रहा है। एक बार फिर संयुक्त विपक्ष की एकता अनुकूल नतीजे देने वाला साबित हुआ है।

ताजा उपचुनाव के नतीजे विपक्षी एकता के प्रति उत्साह और राजनीति में नए बदलाव का संकेत लेकर आया है। इसका असर साल 2019 के आम चुनावों से पहले इसी साल के आखिर और 2019 की शुरूआत में होने वाले 4 राज्यों के विधानसभा चुनावों पर पड़ना तय है। अब गणित कुछ भी हो, लेकिन इतना तो कह ही सकते हैं कि लोकतंत्र ने अपने मन की बात सुना दी है!

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