देश का दक्षिणी राज्य इस सदी की सबसे भयावह बाढ़ की विभीषिका से जुझने की कोशिशों में लगा हुआ है। केरल के पुनर्निर्माण के लिए पैसे की तंगी है, लेकिन सरकार विदेशों से मदद स्वीकार करने को तैयार नहीं है। इससे एक विवाद खड़ा हो गया है और उंगलियां प्रधानमंत्री मोदी पर ही उठ रही हैं, कि आखिर उनकी मंशा क्या है।
सोशल मीडिया पर लोगों ने केरल के लिए विदेशी मदद ठुकराने पर सीधे-सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर दोमुंहेपन का आरोप लगा दिया है। ट्विटर पर लोगों ने बताया है कि किस तरह 2001 के भूकंप के बाद गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाखों डॉलर की मदद मंजूर की थी।
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विदेश मंत्रालय के रिकॉर्ड के मुताबिक, गुजरात भूकंप के बाद वहां पुनर्वास और दूसरे कामों के लिए कम से कम 60 देशों से मदद ली गई थी। इनमें ऑस्ट्रेलिया, इजरायल, इटली, अमेरिका, यूएई और पाकिस्तान तक शामिल था।
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2004 आते-आते भारत ने प्राकृतिक आपदाओं के दौरान विदेशी मदद मंजूर करने पर अनाधिकृत तौर पर रोक लगा दी। फिलहाल इस मुद्दे पर जो नीति है, उसके मुताबिक केरल जैसी विपदा की स्थिति में विदेशी मदद मंजूर करने या खारिज करने का फैसला केंद्र सरकार के विवेक पर है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 16 मई 2016 को राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना का जो खाका पेश किया था उसमें कहा गया था कि, “अगर किसी देश की सरकार प्राकृतिक आपदा के पीड़ितों से हमदर्दी जताते हुए एक सदिच्छा की भावना से मदद की पेशकश करती है, तो केंद्र सरकार इसे मंजूर कर सकती है।”
केंद्र की मोदी सरकार ने अब तक केरल को दो हिस्सों में कुल 600 करोड़ की मदद देने का ऐलान किया है, जो कि 2,200 करोड़ की उस रकम का करीब एक चौथाई है जो केरल सरकार ने मांगा है। ऐसे में संदेह होता है कि क्या देश के पास ऐसी आपदाओं से निपटने के ले पर्याप्त फंड है कि नहीं?
केरल के वित्त मंत्री थॉमस आईजैक ने गुरुवार को कहा कि, “हमने केंद्र सरकार से 2,200 करोड़ की मांग की थी, लेकिन हमें अभी तक सिर्फ 600 करोड़ की मंजूरी मिली है। हमने किसी विदेशी सरकार से मदद की गुहार नहीं लगाई है, लेकिन यूएई ने खुद ही 700 करोड़ रुपए की पेशकश की है। लेकिन केंद्र सरकार ने इसे मानने से इनकार कर दिया है।”
सिर्फ केरल सरकार ही नहीं, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ए के एंटनी ने भी केंद्र सरकार से अपील की है कि पैसे की तंगी के कारण विदेशी मदद लेने की नीति में बदलाव किए जाने चाहिए।
विशेषज्ञों का कहना है कि 2013 की उत्तराखंड बाढ़ में विदेशी मदद न लिए जाने से राहत और बचाव के कामों में काफी दिक्कतों से दो-चार होना पड़ा था। विशेषज्ञों ने सवाल उठाया कि, “गढ़वाल में दोबारा बनाई गई सड़कों की हालत देख लीजिए। अच्छी सड़कें न होने की वजह से चार धाम यात्रा बुरी तरह प्रभावित हुई। अगर कांग्रेस ने ऐसी नीति बनाई थी, तो क्या बीजेपी का फर्ज नहीं है कि गलतियों को सुधारा जाए?”
अब स्थिति यह है कि पैसे की कमी का मुद्दा अब वे सारे संगठन और समूह उठा रहे हैं जो केरल में काम कर रहे हैं। सभी का कहना है कि जितना पैसा उपलब्ध है, जरूरत उससे कहीं ज्यादा की है। केरल में काम कर रहे संगठन ऑक्सफैम इंडिया के सीईओ अमिताभ बेहर का कहना है कि, “मैं नहीं समझता कि यह सही फैसला है। यह इतना बड़ा काम है कि कोई अकेले नहीं कर सकता। ऐसे में जिम्मेदारियां बांट लेना सही रहता है। अगर यूएई और दूसरे देश केरल के संकट में मदद करना चाहते हैं तो हमें इसका स्वागत करना चाहिए।” वे आगे कहते हैं, “लेकिन यह सारी मदद मिलकर भी वह नहीं कर सकतीं जो सरकार कर सकती है। केरल को पूरी तरह संकट से उबार कर फिर से खड़ा करने के लिए सरकार को बड़े स्तर पर इसमें साथ देना चाहिए।” उन्होंने कहा कि विभिन्न स्तरों से मदद मिलना हमेशा अच्छा होता है। उनका कहना है कि दुनिया भर से आ रही सदिच्छा की पेशकश को अच्छी तरह से संयोजित करने की जरूरत है।
वहीं एक्शन एड इंडिया की संगनात्मक प्रभावीकरण निदेशक दिपाली शर्मा ने इस संकट से निपटने और जूझने में केरल सरकार की कोशिशों की तारीफ की। उन्होंने भी कहा कि अभी बहुत पैसे की जरूरत है। दीपाली ने बताया कि, “जरूरत बहुत बड़ी है, जाहिर ज्यादा पैसा चाहिए।” एक्शन एड बाढ़ प्रभावित इलाकों में भोजन, पीने का पानी, स्वास्थ्य और स्वच्छता आदि के लिए काम कर रहा है। उन्होंने कहा कि किसी भी स्रोत से आने वाली मदद का हमें स्वागत करना चाहिए।
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एक और प्रमुख एनजीओ के लिए काम करने वाले एक कार्यकर्ता ने भी केंद्र द्वारा यूएई की मदद खारिज करने पर सवाल उठाया। केरल सरकार के साथ राहत के काम में जुटे इस एनजीओ के कार्यकर्ता ने कहा कि, “अगर हम विकास, स्वास्थ्य और स्वच्छता के लिए विदेशी पैसा ले सकते हैं, तो हमें मानवीय सहायता स्वीकार करने में परहेज क्यों? केंद्र सरकार कुछ ऐसा समझाने की कोशिश कर रही है जो तर्कपूर्ण नहीं है।”
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