मुंबई पुलिस के सीनियर इंस्पेक्टर धनराज वनजारी नवंबर 2008 में कफ परेड थाने के इंचार्ज थे। कफ परेड साउथ मुंबई का आखिरी इलाका माना जाता है। उनके कार्यक्षेत्र में बहुत सारा वह इलाका था जो समुद्र से लगा हुआ था। इसी इलाके में नौसेना और सेना के मुख्यालय भी थे।
26 नवंबर, 2008 या 26/11 से काफी पहले से उन्हें खबरें मिल रही थीं कि सासून डॉक पर कुछ अनजाने लोगों की नावें नजर आई हैं। मछुआरे लगातार जानकारी दे रहे थे कि इनमें से कुछ नावें तो कुछ समय के लिए समुद्र में ठहरती थीं और फिर वापस समुद्र में गायब हो जाती थीं। बाद में जांच से पता चला कि ये गैर-कानूनी नावें थीं और गुजरात की तरफ से आई थीं।
वनजारी एक तेज और कुशल पुलिसवाले थे, उन्होंने इस बात को हल्के में नहीं लिया कि आखिर ये नावें आती क्यों हैं और फिर गायब क्यों हो जाती हैं।
हाल ही में सहायक पुलिस कमिश्नर यानी एसीपी के रूप में रिटायर हुए वनजारी कहते हैं कि, “कफ परेड थाने के इंचार्ज के तौर पर तो मुझे समुद्र में घुसकर इस बात की जांच करनी चाहिए थी, लेकिन समुद्र के पानी में होने वाली गतिविधियां मेरे कार्यक्षेत्र से बाहर थीं। इसलिए मैंने नौसेना मुख्यालय, कोस्ट गार्ड्स यानी तटरक्षक और अपने सीनियर अफसरों को इस बारे में आगाह करते हुए लिखित सूचना दी। मेरे अफसरों में उस समय के पुलिस कमिश्नर, ज्वाइंट कमिश्नर और डिप्टी कमिश्नर सभी को सूचित किया।”
26/11 के हमले की जांच करने वाले राम प्रधान आयोग के सामने पेश हो चुके वनजारी का कहना है कि उन्हें इस बात पर अचरज था कि बजाय इसके कि उनकी सूचना पर जांच होती और कोई कदम उठाया जाता, सारे विभाग लालफीताशाही में उलजे नजर आए। इसमें पुलिस विभाग के साथ ही कोस्ट गार्ड्स और नौसेना के अफसर भी शामिल हैं।
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वनजारी कहते हैं कि, “ मैं तो उस समय महज एक इंस्पेक्टर था, एसीपी नहीं बना था। नौसेना और कोस्ट गार्ड्स के अफसरों को लगा कि उनके पास सूचना का पत्र एक इंस्पेक्टर से नहीं बल्कि आला अधिकारियों की तरफ से आना चाहिए था।” हालांकि वनजारी ने अपने पत्र की कॉपी अपने आला अधिकारियों को भी भेजी थी, लेकिन इस पर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया। वंजारी कड़वाहट से कहते हैं कि, “उनके पत्र को रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया।”
26/11 हमले के वक्त कांग्रेस-एनसीपी की सरकार थी और निर्देश देने और लेने की व्यवस्था को लेकर असमंजस था। हमले के समय मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख केरल मं थे, उपमुख्यमंत्री आर आर पाटिल अपने गांव में थे। पुलिस अफसरों के नहीं पता था कि किससे आदेश और निर्देश लें। और इस असमंजस का फायदा उठाने वाले भी बहुत सारे अफसर थे। इसीलिए उस मनहूस रात को हालात बेकाबू होते चले गए और नागरिक प्रशासन के हाथों से नियंत्रण निकल गया।
नतीजा यह हुआ कि उस काली रात कई बहादुर अफसरों को जान गंवाना पड़ी, क्योंकि अपने ही घर में घुसे प्रशिक्षित पाकिस्तानी आतंकियों से मुकाबला करने के लिए वे तैयार ही नहीं थे।
26/11 को हमले वाली रात वंजारी छुट्टी पर थे। लेकिन जैसे उन्हें हमले की जानकारी मिली, उनका माथा ठनका कि उन्हें जो आंशका थी आखिर वही हुआ। दरअसल वंजारी ने जब अपने आला अधिकारियों और दूसरे विभागों को चेतावनी पत्र भेजा था, उसके दो दिन बाद ही एक पुराने मामले में उन्हें जांच पूरी होने तक छुट्टी पर भेज दिया गया था और फिर यह मामला उनके हाथ में नहीं रहा था।
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वनजारी को आज भी लगता है कि भले ही उन्हें पुराने मामले का हवाला देकर छुट्टी पर भेजा गया हो, लेकिन दरअसल उनके उच्चाधिकारी इस बात पर खफा थे कि उन्होंने समुद्र में संदिग्ध नावों के आने-जाने को लेकर जो चेतावनी पत्र भेजा था उसमें आला अधिकारियों की अनदेखी करते हुए वरिष्ठताक्रम का उल्लंघन किया था। जांच के बाद अब यह साबित हो चुका है कि दरअसल उन संदिग्ध नावों का आना-जाना 26/11 हमले की साजिश का नतीजा था और कुछ लोग आंतकियों को मुंबई पहुंचाने का अभ्यास या रेकी कर रहे थे।
वंजारी कहते हैं कि हमले की रात वे ड्यूटी पर नहीं थे। उनका कहना है कि, “जैसे ही मुझे आतंकियों की फाइनल लैंडिंग की जानकारी मछुआरों से मिलती, तो मैं जरूर कुछ तेज कदम उठाता, क्योंकि मुझे पहले से ही अनहोनी का शक था।"
अगर सैन्य और नागरिक अधिकारियों ने अपने अहं और लाल-फीताशाही के बजाय पत्र में दी गई चेतावनी पर ध्यान दिया होता तो शायद हालात वैसे न होते, जैसे 26/11 की रात और उसके बाद अगले तीन दिन तक हुए, और न ही इतने सारे लोगों की जान जाती। इसके अलावा अगर मुंबई के गामदेवी थाने के सब इंस्पेकक्टर तुकाराम ओंबले ने अपनी जान की बाजी न लगाई होती तो हमें कभी पता भी नहीं चलता कि इस कायर हमले के पीछे पाकिस्तान का हाथ है। तुकाराम ओंबले ने अजमल कसाब को पकड़ा था और आतंकी की गोलियों की बौछार के बावजूद उसे अपनी गिरफ्त से तब तक निकलने नहीं दिया, जब तक उनके पास और फोर्स नहीं पहुंच गई। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी और तुकाराम की मौत हो गई थी।
इस हमले के बाद ही सरकार ने दोहरी कमांड को खत्म किया और आला अधिकारियों को इधर से उधर किया। इसके बाद ही मुंबई पुलिस अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप काम करने लायक हो पाई।
वंजारी उन पुलिस अफसरों में से हैं, जिन्हें उस मनहूस रात ड्यूटी से ही हटा दिया गया था। उनका कहना है कि, “आम तौर पर गढ़चिरौली में माओवादियों की हलकी सी हरकत पर भी मुंबई पुलिस मुख्यालय हिल जाता था। लेकिन वह रात न सिर्फ मुंबई पुलिस बल्कि मुंबई वासियों के लिए भी मनहूस साबित हुई क्योंकि मीलों दूर होने वाली हरकत पर भी नजर रखने वाली मुंबई पुलिस चंद कदम दूर समुद्र में होने वाली हलचलों को पहचानने में नाकाम साबित हुई। और इसका कारण कुछ और नहीं सिर्फ यह था कि अफसर लालफीताशाही और प्रोटोकॉल में उलझे हुए थे।”
लेकिन अब, मुबंई पुलिस हर दम चौकस है, और भगवान न करे, ऐसी किसी भी घटना से निपटने के लिए तैयार है।
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