ओडीशा के कंधमाल में 10 साल पहले हुई हिंसा के खिलाफ संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए शनिवार को दिल्ली में एक बैठक हुई। इसमें सिविल सोसायटी, मानवाधिकार कार्यकर्ता और राजनीतिक पार्टियों के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। बैठक में सबने एक स्वर में बोला कि 10 साल पहले कंधमाल में देश के ईसाइयों के ऊपर हिंसा करने वाली ताकतें आज केंद्र की सत्ता पर काबिज हैं और इन्हें हटाए बिना लोकतंत्र को बचाना असंभव है।
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कंधमाल के 10 साल से सबक सीखने और संघर्ष को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से हुए इस कायर्क्रम में कंधमाल (2008), मुज्जफरनगर (2013) और दिल्ली (1984) में हुए सांप्रदायिक हिंसा के पीड़ितों ने अपनी बात रखी। उनसे सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर ने बातचीत की। कार्यक्रम में फादर अजय, शोधकर्ता अनिर्रबान, एनी राजा, दिल्ली विश्वविद्यालय के अध्यापक अपूर्वानंद, मानवाधिकार कार्यकर्ता जॉन दयाल, दलित मानवाधिकार कार्यकर्ता पॉल दिवाकर ने देश में सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ जमीनी स्तर पर अपने संघर्ष के अनुभव रखे।
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राजनीतिक पार्टियां कैसे सांप्रदायिकता और नफरत की राजनीति से लड़ सकती हैं, इस पर सीपीएम, सीपीआई, आप और कांग्रेस के नेताओं ने भी अपनी राय रखी। कांग्रेस के नेता भक्तचरण दास ने बताया कि कंधमाल में जिस बड़े पैमाने पर बर्बर हिंसा हुई उसे आज लोग भूल चुके हैं। यहां तक की वहां के लोग भी उसे भूल गए हैं। उन्होंने कहा, “आज उससे लड़ने की राजनीतिक इच्छाशक्ति ही नहीं है। मैं विधायक, सांसद और मंत्री बना और आज देख रहा हूं कि इससे लड़ने वाली ताकतें बहुत मजबूत नहीं है। नफरत की राजनीति करने वाले लोगों के पास अपार सत्ता है, अकूत पैसा है। आज नये सिरे से राजनीतिक दलों को फिर से मिलकर सोचना होगा कि कैसे इनसे लड़ा जाए। सत्ता पाने के लिए हम समझौता करते आए हैं, उससे उबरना पड़ेगा। सांप्रदायिक ताकतें बहुत संगठित हैं।” उन्होंने कहा कि कंधमाल की घटना बीजेडी और बीजेपी के सत्ताकाल में हुई और हैरानी की बात है कि इनकी सत्ता बनी रही।
सीपीएम नेता सुभाषनी अली ने कहा कि लोगों के बीच जो भिड़ंत होती है, वह करवाई जाती है। धार्मिक नेताओं को भी सीखना चाहिये की किस तरह से सांप्रदायिकता से निपटा जाए। उन्होंने कहा, अगले चुनाव में हमारा मकसद यही है कि किसी तरह से यह सरकार जाए। लेकिन जिस तरह से कैराना उपचुनाव में लोगों ने बताया कि जिन्ना नहीं गन्ना चाहिए। उसी तरह देश में अब जीविका के सवाल को मुद्दा बनाया जाना चाहिए।” उन्होंने कहा कि कंधमाल में जो हुआ वह बहुत बुरा हुआ, लेकिन मर्ज को जड़ से निकालने के लिए बड़े काम करने जरूरी हैं। अगर हम कहते हैं कि कंधमाल दोबारा नहीं हो तो हमें काम का तरीका बदलना होगा। बुनियादी सवालों को उठाना होगा। हमारी लड़ाई कितनी व्यापक है इस बारे में हमें सोचना जरूरी है। जिनके पास बहुत ज्यादा पैसा है, संपत्ति है, वे इसी तरह की राजनीति चाहते हैं।
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दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार में मंत्री गोपाल राय ने कहा कि कंधमाल और उसके बाद भारत में नफरत की जो राजनीति बढ़ रही है, उससे कैसे लड़ना है यह सोचना जरूरी है। 1906 में मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा जैसी दो संस्थाओं का जन्म होता है और फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अस्तित्व में आया। उन्होंने कहा, “ये लोग जिस तरह से राजनीतिक वर्चस्व हासिल कर रहे हैं, अगर उन्हें किसी तरह से आगामी 2019 के चुनाव में हरा दिया जाए, तो क्या कंधमाल नहीं होगा, गुजरात नहीं होगा? ऐसी घटनाएं होंगी, क्योंकि तात्कालिक समाधान के साथ-साथ दीर्घकालिक रणनीति बनानी होगी। ठीक वैसे ही जैसे 2004 में अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार को हराकर 10 साल यूपीए की सरकार चली, लेकिन 2014 में ये नफरत की ताकतें और ज्यादा मजबूत होकर आईं।” उन्होंने कहा कि देश के अंदर आर्थिक सवालों के साथ-साथ देश की सांस्कृतिक सवालों पर काम करना होगा। दीर्घकालिक प्रोग्राम चलाना होगा। संघ के प्रति मोहभंग हो रहा, इसीलिए मोदी अटल बिहारी वाजपेयी की अस्थियों को लेकर घूम रहे हैं।
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सीपीआई नेता डी राजा ने कि कंधमाल के पीड़ितों के समर्थन में और कंधमाल में इंसाफ के लिए संघर्ष करने वालों के प्रति प्रतिबद्धता जताई। उन्होंने कहा कि देश आज संकट की घड़ी में है। उन्होंने कहा, “हमने सोचा था कि कंधमाल इस तरह की आखिरी बर्बर घटना होगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ऐसी घटनाएं लगातार हो रही हैं। 2014 से भारत देश न्यू लिबरल फासिस्ट राज में तब्दील हो रहा है। रोज लोगों पर हमले हो रहे हैं। खासतौर से उत्पीड़ित आबादी दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यों पर हमले हो रहे हैं। यह फासिज्म की मार है। आज राजनीतिक पार्टियों को सोचना होगा कि किस तरह से देश और संविधान को बचाएं। अंबेडकर ने सीधे-सीधे कहा था कि जाति राष्ट्रदोही चीज है। अपने देश को बचाने के लिए इस सरकार को हटाना वक्त की मांग है। हम सब को इंसान बनना जरूरी है और दूसरे इंसानों के दुख-दर्द से जुड़ना जरूरी है।”
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