गुजरात का ऐतिहासिक चुनाव अपने आखिरी दौर में पहुंच चुका है और शायद 14 दिसंबर को गुजरात के मतदाता हाल के इतिहास की सबसे बड़ी ‘राजनीतिक हार’ के लिए मतदान करेंगे। दूसरे चरण का परिणाम इस बात पर निर्भर करेगा कि अहमदाबाद और वडोदरा में बीजेपी और ग्रामीण गुजरात में कांग्रेस अपना आधार बरकरार रख पाने में कितनी कामयाब हो पाती हैं।
मतदान के दूसरे और आखिरी चरण में बहुत नजदीकी मुकाबला होने की संभावना है, क्योंकि राज्य से मिल रहे संकेत बताते हैं कि 2012 के चुनावों में बीजेपी द्वारा जीती गई 63 सीटों में अच्छी-खासी कमी होने जा रही है। दूसरा चरण अपनी तमाम राजनीतिक जटिलताओं की वजह से बीजेपी के लिए एक बड़ी चुनौती बनकर उभर सकता है, क्योंकि उसके कई पारंपरिक राजनीतिक समीकरण ध्वस्त हो चुके हैं।
गुरुवार को जिन 93 सीटों के लिए मतदान होने जा रहा है उनमें बीजेपी को कांग्रेस पर 7.6 प्रतिशत की बढ़त हासिल है। पिछले चुनाव में इनमें से 52 सीट पर बीजेपी, 39 पर कांग्रेस और अन्य एक-एक सीट पर एनसीपी और निर्दलीय उम्मीदवार ने जीत दर्ज की थी। हालांकि, वास्तव में जमीनी हालात क्या हैं, यह समझने कि लिए समग्र आंकड़ों के विश्लेषण की आवश्यकता है।
अहमदाबाद और वडोदरा राज्य के दो सबसे बड़े जिलों में से हैं। 182 सदस्यीय गुजरात विधानसभा में इन दो जिलों से 31 सीट हैं। कांग्रेस के 4 सीट के मुकाबले बीजेपी ने अहमदाबाद में 25.5 फीसदी और वडोदरा में 16.9 फीसदी की बढ़त लेते हुए 26 सीट पर जीत दर्ज की थी। बाकी बची 62 सीटों पर राजनीतिक समीकरण विपरीत थे। इन 62 सीटों में बीजेपी के 26 के मुकाबले कांग्रेस ने 35 सीटों पर जीत हासिल की थी। वोट शेयर के मामले में यहां बीजेपी को महज 0.2% की बढ़त हासिल हुई थी।
बीजेपी अहमदाबाद, सूरत, वडोदरा और राजकोट में ऐतिहासिक रूप से मजबूत रही है। नोटबंदी और जीएसटी के कारण सूरत में बीजेपी के आधार वोट को तगड़ा झटका लगा है, जबकि किसानों की नाराजगी और पटेल आंदोलन ने राजकोट, अहमदाबाद और वडोदरा में भी असर डाला है। हालांकि, 2012 में बीजेपी को अहमदाबाद में 25 फीसदी की बढ़त हासिल थी, इसलिए इस बात को ध्यान में रखते हुए बीजेपी को हटाना आसान नहीं होगा।
अहमदाबाद जिले में 21 विधानसभा सीट हैं और बीजेपी ने इनमें से 17 पर जीत हासिल की थी। कांग्रेस ने यहां 4 सीट जीती थीं, लेकिन इनमें से 3 सीट बाहरी इलाके से है। अगर आमने-सामने का मुकाबला होता तो कांग्रेस यहां एक और जमालपुर खड़िया की सीट जीत सकती थी।
वडोडरा में कांग्रेस की स्थिति बहुत खराब थी और एक तरह से सफाया हो गया था, क्योंकि यहां बीजेपी ने 10 में से 9 सीट पर जीत हासिल की थी जबकि सावली सीट पर स्वतंत्र उम्मीदवार केतनभाई इनामदार ने जीत दर्ज की थी।
अहमदाबाद और वडोदरा में 26 सीट पर जीत बीजेपी की चुनावी समीकरण का आधार है। अगर कांग्रेस इसमें कोई बड़ा सेंध लगाने में कामयाब होती है तो उसके लिए फायदा होगा। इन दो जिलों में बराबरी होने पर भी कांग्रेस जीत की स्थिति में रहेगी। अगर कांग्रेस बीजेपी को 20 सीट या उससे भी नीचे रख पाने में कामयाब होती है तो उसके लिए यह बड़ी कामयाबी होगी।
2017 के गुजरात चुनावों के नतीजों पर ग्रामीण क्षेत्रों का प्रभाव हो सकता है, जहां दूसरे चरण में मतदान होने हैं। कांग्रेस अपनी सीटें बढ़ाकर 35 से 45 सीट पर और बीजेपी को 26 से नीचे धकेल 15 सीट पर लाना चाहेगी। इन सीटों के परिणाम इस बात पर निर्भर करेंगे कि यहां के जटिल राजनीतिक समीकरण किस तरह से काम करते हैं।
इन सीटों पर कांग्रेस का समीकरण उसके सामाजिक गठबंधन ‘खम’ (क्षत्रिय, हरिजन, मुस्लिम, आदिवासी) पर आधारित रहा है और शंकर सिंह वाघेला की उपस्थिति ने भी मदद की थी। वाघेला के बाहर निकलने के बाद कांग्रेस के चुनाव प्रबंधन ने इस चुनाव को पार्टी के लिए आसान बना दिया है। वाघेला का होना पार्टी के लिए कुछ समस्याएं पैदा कर सकता था। यहां सवाल यह है कि क्या अल्पेश ठाकोर इस नुकसान की भरपाई कर पाएंगे, ऐसा हो भी सकता। क्योंकि पूरे चुनावी हलचल के दौरान वाघेला की चर्चा गायब रही है।
इन सीटों पर पाटीदार समीकरण निर्णायक साबित हो सकता है। बीजेपी ने ऐसी सीटों पर बड़ी संख्या में क्षत्रिय उम्मीदवारों को उतारा है, जहां पटेल और क्षत्रिय लगभग बराबर हैं। बीजेपी यहां पटेलों का समर्थन मिलने की उम्मीद कर रही है। पटेलों के बीच बीजेपी की लोकप्रियता में काफी गिरावट आई है, इसलिए बीजेपी को अपने राजनीतिक ‘फार्मूले’ पर फिर से काम करना होगा।
हालांकि, पाटीदार समीकरण बीजेपी को परेशानी में डाल सकता है क्योंकि दूसरे चरण में अहमदाबाद और वडोदरा के बाहर से आने वाले 26 बीजेपी विधायकों में से करीब आधे पटेल समुदाय से आते हैं। वाघेला के कांग्रेस से बाहर निकलने से बीजेपी को जो भी लाभ मिला था, उस पर लगभग पानी फिर चुका है और बीजेपी के लिए इन सीटों को बरकरार रखना एक चुनौती बन गया है।
बीजेपी ऐसी पार्टी है जो हर हाल में चुनाव जीतना चाहती है और आखिरी समय तक अपनी चुनावी रणनीतियां बनाने के लिए जानी जाती है। 3 महीने पहले, बीजेपी ने सोचा था कि वह बिना किसी चुनौती के राज्य की सत्ता में वापसी करने में कामयाब रहेगी। लेकिन, पाटीदार आंदोलन, नोटबंदी और जीएसटी ने कांग्रेस को उम्मीद की एक रौशनी दे दी और वह बीजेपी को उसके ‘कंफर्ट जोन’ से बाहर निकालते हुए इस पूरे चुनाव पर अपना नियंत्रण कायम कर पाने में सक्षम रही है।
गुजरात में बीजेपी की बड़ी जीत की संभावना नहीं दिखती है, ऐसे में उसे कम अंतर से मिली जीत घरेलू मैदान पर उनकी हार के तौर पर देखी जाएगी, जबकि कांग्रेस की जीत संभवतः समकालीन भारतीय राजनीति की दिशा को बदल सकती है। देखते हैं कि क्या और कैसे होता है।
Published: 13 Dec 2017, 7:59 PM IST
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Published: 13 Dec 2017, 7:59 PM IST