नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली एनडीए की केंद्र सरकार के पास 2019 की परीक्षा से पहले सिर्फ एक साल बचा है। क्या देश प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 'अच्छे दिन' के वादे के थोड़ा-बहुत भी करीब पहुंच पाया है?
अर्थशास्त्रियों और अन्य विशेषज्ञों के मुताबिक, चार साल पहले देश के नागरिकों ने सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक सभी क्षेत्रों में बेहतर दिनों आने की उम्मीदों के साथ बीजेपी को अपना वोट दिया था, लेकिन जनता को यह समझ ही नहीं आ रहा कि जिस नोटबंदी और जीएसटी को सरकार मजबूत संरचनात्मक आर्थिक सुधार बता रही है, वह उसके लिए किस तरह अच्छे रहे।
भले ही 2017-18 की तीसरी तिमाही (अक्टूबर-दिसंबर) में भारत की जीडीपी दर 7.2 प्रतिशत रही, लेकिन कुछ अर्थशास्त्रियों का मानना है कि कालेधन को खत्म करने के दावे वाले नोटबंदी के कदम ने अंत में देश की अर्थव्यवस्था को ही नुकसान पहुंचाया।
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर जयति घोष कहती हैं कि, "नोटबंदी सरकार की एक भयानक गलती थी, जिसकी भरपाई आम इंसान ने की। इसने बैंकिंग सिस्टिम में लोगों के विश्वास को कम कर दिया, क्योंकि नकदी संकट के समय उसे अपने ही पैसे से दूर कर दिया गया था। संस्थानों और नीतियों के निर्माण में समय और मेहनत लगती है, लेकिन उन्हें बर्बाद आसानी से किया जा सकता है।"
गौरतलब है कि मोदी सरकार ने 8 नवंबर, 2016 को 1,000 रुपये और 500 रुपये के नोटों पर अचानक पाबंदी लगा दी। इन दो करेंसी की हिस्सा कुल सर्कुलेशन वाली करेंसी में 86 फीसदी था। इस तरह सिस्टम से 86 फीसदी पैसा हटा दिया गया। बैंक तीन दिन बंद थे और सभी एटीएम खाली। उसके बाद बैंकों के आगे लंबी कतारें लगनी शुरू हो गईं। बेटी की शादी के लिए पैसे जुटाना पिताओं के लिए भारी मुसीबत बन गई। कतारों में घंटों खड़े-खड़े लगभग सवा सौ बुजुर्गो और महिलाओं ने दम तोड़ दिया। इन मौतों पर प्रधानमंत्री के मुंह से संवेदना का एक शब्द नहीं निकला। उन्होंने हालात सामान्य होने के लिए 30 दिन मांगे, फिर भी हालत जस के तस रहे। लगातार तीन महीने देश के लोगों ने कष्ट झेला। अपने ही पैसे के लिए उनकी नींद हराम हो गई। सोने के बजाय पैसे वाले एटीएम तलाशने और मिलने पर घंटों कतार में खड़े-खड़े रातें गुजारीं। देश में अचानक लगे इस 'आर्थिक आपातकाल' को कोई कैसे भूल सकता है भला!
जयति ने आगे कहा कि, "ऐसा हो सकता है कि इस कदम से सरकार का राजनीतिक उद्देश्य सिद्ध हुआ हो, लेकिन आर्थिक रूप से यह बहुत बुरा था।"
जयति घोष के विचारों पर सहमति जताते हुए जेएनयू में अर्थशास्त्र के पूर्व प्रोफेसर अरुण कुमार ने कहा कि, "जब बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार आई तो भारतीय अर्थव्यवस्था पहले से ही ऊपर की ओर बढ़ रही थी। जिस तिमाही में मोदी सरकार ने सत्ता संभाली, विकास दर आठ प्रतिशत तक बढ़ गई थी। अक्टूबर 2016 में भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था थी, जबकि चीन थोड़ा धीमा हो गया था। उन्होंने कहा, "लेकिन फिर सरकार द्वारा लागू नोटबंदी से अर्थव्यवस्था को बड़ा झटका लगा। असंगठित क्षेत्र पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ा, जो देश में 45 प्रतिशत उत्पादन और 93 प्रतिशत रोजगार पैदा करता है। कुछ अनुमानों के मुताबिक, यह 50-80 प्रतिशत क्षतिग्रस्त हो गया।"
इस समय इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के चेयर-प्रोफेसर अरुण कुमार कहते हैं कि, "उस समय सरकार ने कोई सर्वेक्षण नहीं करवाया था और इसलिए कोई डेटा उपलब्ध नहीं है। सरकारी आंकड़ों पर भरोसा करने वाले अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक ने भी इसके प्रभाव पर कोई अनुमान पेश नहीं किया।" उन्होंने कहा, "नोटबंदी के बाद लोगों द्वारा बैंक से लोन लेना भी कम हो गया। नवंबर-दिसंबर 2016 के बीच, यह गिरावट 60 साल के ऐतिहासिक स्तर पर थी। देश में निवेश को भी झटका लगा।"
लेकिन, प्रोफेशनल सर्विसेज के लिए दुनिया की जानी-मानी कंपनियों में शुमार प्राइसवाटरहाउस कूपर्स (पीडब्ल्यूसी) में पार्टनर एंड लीडर, पब्लिक फाइनेंस एंड इकोनॉमिक्स, रैनन बनर्जी की अलग राय है। वह कहते हैं, "डिजिटल भुगतान के मोर्चे पर नोटबंदी का सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। यह उस अवधि के दौरान तेजी से फलीफूली, लेकिन बाद में उसने अपनी तेजी खो दी। लेकिन डिजिटल लेनदेन का स्तर अभी भी पहले से बढ़ा है। नोटबंदी से हालांकि वैसे नतीजे नहीं मिले, जैसी उससे उम्मीद की गई थी।"
बनर्जी ने कहा कि सरकार का दूसरा धमाका वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) था, जिसे पिछले साल एक जुलाई से लागू किया गया। अर्थशास्त्री उम्मीद कर रहे हैं कि एक बार इसकी जटिलताएं खत्म हो गईं तो यह फायदेमंद बदलाव लाएगा। जीएसटी एक गुणात्मक प्रभाव बनाकर देश की कर प्रणाली के पूरे परि²श्य को बदल देगा। उन्होंने कहा, "जीएसटी एक साहसिक कदम था जो सकारात्मक परिणाम दिखा रहा है।"
जयति घोष हालांकि मानती हैं कि संघीय संरचना में एक एकीकृत प्रणाली इतनी जरूरी नहीं है, उदाहरण के लिए अमेरिका में जीएसटी नहीं है, बावजूद इसके वह एक बहुत ही आधुनिक अर्थव्यवस्था है। हमारे यहां जीएसटी को लागू करने का तरीका बेहद बुरा रहा है। उधर अरुण कुमार कहते हैं कि, "जीएसटी ने असंगठित क्षेत्र को बुरी तरह प्रभावित किया है। मलेशिया में भी जहां जीएसटी 2015-16 में 26 प्रतिशत पर पेश किया गया था, सरकार ने इसे रद्द करने का फैसला किया। संगठित क्षेत्र के बढ़ने की कीमत असंगठित क्षेत्र भर रहा है और असमानता बढ़ रही है।"
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लेकिन उद्योगों ने सरकारी पहल का स्वागत किया है, खासकर जीएसटी का। भारतीय उद्योग परिसंघ यानी सीआईआई के महानिदेशक चंद्रजीत बनर्जी का कहना है कि, "समग्र अर्थव्यवस्था जीएसटी के साथ मजबूत हो गई है और सही रास्ते पर मजबूती से सुधार कर रही है।" उनके मुताबिक, सरकार ने व्यवस्थित रूप से अर्थव्यवस्था की प्रमुख समस्याओं, जैसे ईज ऑफ डूंइंग बिजनेस, बैंकों के एनपीए. एफडीआई. इंफ्रास्ट्रक्चर और नुकसान वाले उद्योगों को बंद करने जैसे काम किए। उनका मानना है कि, "सरकार के विकास अभियानों ने अच्छे नतीजे दिए हैं। आंकड़ों से पता चलता है कि अगले वर्ष ऑर्डर की संख्या और कंपनियां की क्षमता का उपयोग बेहतर होगा।"
वहीं भारतीय सांख्यिकी संस्थान के पूर्व अर्थशास्त्र के प्रोफेसर दीपांकर दासगुप्ता मानते हैं कि अर्थव्यवस्था ने नोटबंदी से हुए नुकसान की भरपाई को अभी तक हासिल नहीं किया है। जीएसटी से उम्मीद है कि वह समय के साथ स्थिर हो जाएगी। उन्होंने कहा कि, "अन्य देशों, जहां इसे पेश किया गया था, वहां भी शुरुआत में समस्याएं आई थीं।"
उनके मुताबिक सरकार ने बैंकों की ऋण प्रणाली को दुरुस्त करने का भी काम किया है। लेकिन नोटबंदी के सदमे के बाद कई बैंकिंग घोटालों और बढ़ते एनपीए के कारण लोगों का बैंकों पर भरोसा कम हो गया है। उन्होंने कहा, "सावधानी के साथ पुनर्पूंजीकरण पर काम किया जाना चाहिए, ताकि राजकोषीय घाटा बढ़ न पाए।"
देश के लोगों के लिए 'अच्छे दिन' जिसका मोदी ने अपने भाषणों में वादा किया था, वे चार सालों में पूरे नहीं हुए, बल्कि बीजेपी के 'बेस्ट सेल्समैन' ने लोगों को जरूरत से ज्यादा ही उम्मीदें बेच दीं।
दासगुप्ता ने एक अलग अंदाज में कहा, "मैं इस सरकार को दोष नहीं देता कि वह अच्छे दिन लाने में सक्षम नहीं है, क्योंकि आजादी के बाद कोई सरकार अच्छे दिन नहीं लाई है।"
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