वह 2016 की गर्मी का मौसम था। मैंने एक नाटक देखा था जिसमें एक मंत्री अपने पीए से कहता है कि दुनिया का पहला सफल सिर प्रत्यारोपण यानी हेड रिप्लेसमेंट भगवान गणेश का था। पटकथा के दूसरे हिस्से में मंत्री कहता है कि कुतुब मीनार वास्तव में विष्णु स्तंभ था। इस पर दर्शकों में मतभेद पैदा हो गया। लेकिन इसके तुरंत बाद एक लेख से मुझे झटका लगा जिसमें बताया गया था कि हकीकत में ये सब आरएसएस के स्कूलों में पढ़ाए जाने वाले पाठ्य पुस्तकों के अंश हैं। मुझे महसूस हुआ कि इस चीज को मैं अपने उस उपन्यास में इस्तेमाल कर सकता हूं जिसका खाका मैं उस वक्त बना रहा था। इसके लिए मुझे शिक्षकों और छात्रों से बात करने की आवश्यकता थी।
लेकिन तब मुझे पता चला कि आरएसएस के स्कूल अपने परिसर में बाहरी लोगों को इजाजत नहीं देते हैं। शिक्षकों से बात करने के लिए संघ में घुसपैठ करना ही एकमात्र रास्ता बचा था। शुक्र है कि बंगाल में खुद को स्थापित करने के लिए आरएसएस पूरे जी जान से कोशिश कर रहा था और नए चेले चपाटों/मतावलंबियों/कार्यकर्ताओं की तलाश में था।
मैंने ऑनलाइन आवेदन कर दिया। मुझे एक स्वत: उत्तर मिला, जिसमें आरएसएस के एक सदस्य का नंबर भी था। अगले दिन टेलीफोन पर मेरा विस्तृत साक्षात्कार हुआ। उसके बाद कई अलग-अलग लोगों के फोन आए। उन्हें मेरी इस बात पर यकीन नहीं हो रहा था कि मैं एक नाटककार हूं। सभी से हुई बातचीत में यह सवाल अनिवार्य रूप से पूछा गया कि कहीं मैं वास्तव में पत्रकार तो नहीं हूं। आखिरकार मुझे अपनी पसंद के इलाके में आरएसएस की रोजाना लगने वाली शाखा में जाने के लिए कह दिया गया।
निश्चित तौर पर मैंने सावधानी बरती हुई थी। फॉर्म में मैंने अपना नाम शोइबल मजूमदार लिखा था। अगर वे सैबल दासगुप्ता (मैं अपना नाम O से लिखता हूं) के नाम की पड़ताल करते तो उन्हें मेरे नाम वाले टाइम्स ऑफ इंडिया के पत्रकार के बारे में पता चल जाता। सोएबल मजूमदार 100 प्रतिशत गूगल प्रूफ था और मैं पूरी तरह आश्वस्त था कि मेरी फर्जी पहचान कायम रहेगी।
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चिनार पार्क में लगने वाली शाखा में हम गाना गाते, एक धूल से पटे भगवा झंडे को सलामी देते, जिसे देखकर लगता था कि वह साल दो साल से नहीं धोया गया था। हम हल्की-फुल्की कसरत भी किया करते थे। हम वहां धर्म या राजनीति की ज्यादा चर्चा नहीं करते थे। शाखा में दिनचर्या तय थी और यह बताया जाता कि आरएसएस किस तरह एक व्यक्ति की अनुशासन के जरिये विकास में मदद करता है और हमें देश सेवा करने की आवश्यकता है।
हालांकि, सत्र खत्म होने पर हम प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की महिमा गान से जुड़ी बातचीत में लग जाते। हमें अनौपचारिक रूप से हिंदू संस्कृति, देशभक्ति और राष्ट्रवाद पर आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के प्रवचन वाले वीडियो भी दिये जाते।
मैं स्वीकार करता हूं कि उन शुरुआती दिनों में मेरे अंदर संघ के लिए एक जुड़ाव पैदा हो गया था। यही वह समय था जब मैंने अपना ज्यादातर वक्त दक्षिणपंथी हिंदू साहित्य को पढ़ने में लगाया। जैसे-जैसे दिन बीतते गए, मैंने धीरे-धीरे बंगाल में आरएसएस के अंदरूनी केंद्र तक अपना रास्ता बना लिया। अब मैं एक बाहरी व्यक्ति नहीं रह गया था, बल्कि आरएसएस का एक हिस्सा बन गया था।
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उनमें से ज्यादातर की बंगाल और बंगालियों के प्रति घृणा भरी सोच थी और उसके बारे में जानना काफी परेशान करने वाला था। उनके लिए बंगाली बोलने वाले सभी लोग बांग्लादेशी थे जो संघ के रथ को रोकने के लिए साजिश कर रहे थे। मैंने एक बार एक जाने-माने लॉ कॉलेज में कानून के छात्र आशुतोष झा को भोपाल निवासी मयंक जैन द्वारा यह कहकर ललकारे जाने के बारे में सुना था कि या तो 50 बांग्लादेशियों की पिटाई करे या संघ छोड़ दे। दूसरे लोग खुलेआम सदस्यों से मुसलमानों और राज्य पुलिस पर हमला करने के लिए हथियार इकट्ठा करने के लिए कहते थे।
मैं भाग्यशाली रहा कि मुझे संघ के कुछ वरिष्ठ सदस्यों की अच्छी किताबें पढ़ने का मौका मिला। प्रशांत भट्ट से डॉ. विजय पी भाटकर तक मेरे जानने वाले संघ के लगभग हर बुद्धिजीवी ने हिंदू धर्म पर मेरे काम की प्रशंसा की।
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मुझे यह भी स्वीकार करना चाहिए कि अपने निजी फायदे के लिए मैं संघ का इस्तेमाल करना चाहता था। मैं अनिश्चित आय वाला एक संघर्षरत लेखक हूं। मेरे दिमाग में ख्याल आया कि मैं सिर्फ किताबें लिखकर और संघ को उन्हें बेचने के लिए इस्तेमाल कर फायदा उठा सकता हूं। बड़ी संख्या में लोग आरएसएस से जुड़े किसी भी व्यक्ति द्वारा लिखी गई किताबें खरीदना चाहते थे।
लेकिन इसके बावजूद, सिद्धांत और मानवता भी कोई चीज होती है, जिन्हें बेचा नहीं जा सकता। मैंने अब आरएसएस के कई दिग्गजों और नेताओं की बातचीत और बयान रिकॉर्ड कर लिए हैं। लेकिन मेरा इरादा सिर्फ उस उपन्यास के लिए सामग्री का उपयोग करना है जिसे मैं लिख रहा हूं। संभवतः "अनफेट्टर्ड" शीर्षक से यह उपन्यास इस साल के अंत तक तैयार होने की उम्मीद है।
विश्व आयुर्वेद कांग्रेस (डब्ल्यूएसी) 2016
इस कहानी में मोड़ तब आया जब मैंने 2016 में कोलकाता में विश्व आयुर्वेद कांग्रेस की मेजबानी करने वाले आयोजकों की सहायता करने के लिए स्वयंसेवा की। वो पांच दिन आंख खोलने वाले थे
आयुर्वेद कांग्रेस की शुरुआत से एक दिन पहले मुझे साल्ट लेक में राष्ट्रीय आयुर्वेदिक औषधि विकास अनुसंधान संस्थान (एनआरआईएडीडी) में ले जाया गया। वहां मेरी अगवानी करने वाले मेरे दोस्त ने मुझे गर्व से बताया कि वहां के निर्देशक को विज्ञान भारती के आदेश मानने के लिए कहा गया है। उसने संतोष के साथ चहकते हुए कहा, "हमारी पार्टी केंद्र में शासन कर रही है।" उसने आगे बताया कि आरएसएस से संबंधित एक व्यक्ति को परिसर में कमरा आवंटित करने के लिए संस्थान को मजबूर किया गया था। वास्तव में मैंने देखा कि प्रशासनिक ब्लॉक में विज्ञान भारती ने एक कमरा कब्जाया हुआ था।
उसके बाद हम साइंस सिटी जाने के लिए निकले, जहां तैयारी चल रही थी। वहां मेरा परिचय आरएसएस के एक वरिष्ठ सदस्य आनंद पांडे से करवाया गया। उनके बारे में प्रसिद्ध था कि वह केवल दूग्ध उत्पादों पर ही जिंदा हैं। मैंने प्रभावित दिखने का प्रयास किया और आश्चर्य जाहिर करते हुए उनसे पूछा कि कैसे वह नियमित तौर इस दिनचर्या का अनुसरण कर पाते हैं। हालांकि, पांडे एक अच्छे व्यक्ति लगे, जिन्होंने कहा कि वह सभी की समानता में विश्वास करते हैं। वह भी एक खुले विचार के व्यक्ति प्रतीत हो रहे थे।
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किसी भी मामले में अंग्रेजी बोलने वालों की वहां भारी कमी थी और एनएएसवाईए के डॉ अर्का जना ने मुझे अपने समूह में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया, जिसके ऊपर प्रतिनिधियों की देखभाल की जिम्मेदारी थी। मेरी अंग्रेजी धाराप्रवाह थी लेकिन मैंने अनौपचारिक ठंग के कपड़े पहने थे। पूजा सभरवाल नाम की एक महिला ने हमें औपचारिक कपड़े पहनने को कहा और टाई पहनने का फैसला हमारे ऊपर छोड़ दिया।
पुरुषों में से एक ने मजाक किया कि कोलकाता का मौसम औपचारिक कपड़ों के लिए अनुकूल नहीं है। जब डॉ जना ने पारंपरिक बंगाली पोशाक पहनने का सुझाव दिया, तो हमारा और भी मजाक उड़ाया गया। एक अधिकारी ने पूछा, 'क्या पारंपरिक? क्या आप चप्पल पहनकर अंतरराष्ट्रीय प्रतिनिधियों को लेने जा रहे हैं?' वहां मौजूद लोग ठहाका लगाने लगे और बोले कि बंगाली लोग हर जगह चप्पल में घुमते हैं। ‘ऊपर से नीचे तक, यहां हर कोई चप्पल में घूमता है।‘
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मुझे रोहित वेमूला की याद आ गई। उन लोगों ने पल भर में मुझे मेरी बंगाली पहचान में सीमित कर दिया था। वहां व्यक्तित्व, कपड़ों और आदतों के लिए बंगालियों का लगातार अपमान किया जा रहा था और समूह के बंगाली अपने चेहरे पर एक बीमार सी मुस्कुराहट लिए खामोशी के साथ खड़े थे। यह सब संघ के कम से कम पांच वरिष्ठ बंगाली सदस्यों के सामने हो रहा था।
इस कार्यक्रम के दौरान मैं देवेश पांडे से भी मिला। उसके बारे में मुझे बताया गया था कि वह उन कुछ युवा सदस्यों में से एक है जिन्हें मोहन भागवत जी से आमने सामने की मुलाकात का अवसर प्राप्त हुआ था।
उसने मुझे समझाया कि क्यों एक व्यक्ति या तो एक बंगाली या एक हिंदू हो सकता है। उसने कहा, 'बंगाली संस्कृति अब संस्कृति नहीं रही: यह एक विकृति है, बंगाली हिंदुओं में केवल 10% वास्तविक हिंदू हैं।'
वास्तव में बीजेपी और आरएसएस सदस्यों, जिनमें बंगाली भी शामिल हैं, में एक आम धारणा है कि बंगाली हिंदू, हिंदी बोलने वाले हिंदुओं से नीच हैं। यह समस्या वाली बात थी, लेकिन जब मैंने संघ में ज्यादा समय गुजार लिया तो मेरी समझ में आ गया कि बीजेपी में बंगालियों के पास चुनने के लिए केवल दो ही विकल्प हैं- या तो हिंदी बोलने वालों की श्रेष्ठता स्वीकार करें या बंगालियों की हीनता को स्वीकार कर लें। बंगाल बीजेपी युवा मोर्चा के उपाध्यक्ष उमेश राय के शब्दों में पश्चिम बंगाल बीजेपी में हिंदी बोलने वाली आबादी का वर्चस्व है।
दो आयोजकों के आदेश के अनुसार, बंगालियों को कोई भी जिम्मेदारी उठाने से रोक दिया गया था। पूरे कार्यक्रम के दौरान कई स्टॉल खाली रहे, लेकिन आमंत्रित गरीब चिकित्सकों को जमीन पर बैठने पर मजबूर किया गया, जिनमें से ज्यादातर दबे कुचले समुदायों से थे। जबकि कुछ दक्षिणपंथी संगठन स्टालों पर कब्जा जमाए हुए थे, जिनका आयुर्वेद से कोई लेना-देना तक नहीं था। भेदभाव बिल्कुल स्पष्ट नजर आ रहा था।
आईटी मिलन के लिए आमंत्रण
डब्ल्यूएसी 2016 के समाप्त होने के बाद, मैंने फिर से प्रतिदिन शाखा में भाग लेना शुरू कर दिया। जल्द ही मुझे केश्टोपुर में आईटी मिलन में शामिल होने का निमंत्रण मिला। मुझे बताया गया कि यह एक साप्ताहिक बैठक है, लेकिन आम लोगों के लिए नहीं है। शाखाओं के विपरीत यह एक घर के अंदर होती है और इसके बारे में सार्वजनिक तौर पर चर्चा नहीं की जाती है। यह बैठक मिथ्या प्रचार, भविष्य की योजनाओं और उच्च स्तर पर ब्रेनवाश करने के बारे में गंभीर चर्चाओं के लिए होती है।
कोलकाता में आरएसएस के प्रभारी प्रशांत भट्ट को मैंने अपना इंतजार करते पाया। हमारे बीच आम बातचीत हुई। भट्ट भी समाज में किसी प्रकार की विविधता के खिलाफ थे। हम आधे घंटे तक धर्म और राष्ट्रवाद पर चर्चा करते रहे, जब तक हमें दूसरे कमरे में बुलाया नहीं गया जहां मोहन भागवत के दौरे की तैयारी चल रही थी। हमें उनकी मौजूदगी में आयोजित होने वाले कार्यक्रम का अभ्यास करना था। बाद में, प्रशांत भट्ट के मार्गदर्शन में हमने एक बंगाली गीत याद किया। उस गीत को बहुत खूबसूरती से तैयार किया गया था और भट्ट की आवाज भी बहुत सुंदर थी। ये गीत आरएसएस के प्रति बंगालियों के समर्थन को साबित करने के लिए था, हालांकि इसके अधिकतर सदस्य गैर-बंगाली थे।
तैयारी खत्म होने के बाद, बिपिन पाठक (उर्फ बिपीन बिहारी) के नेतृत्व में बौद्धिक या ज्ञान के उपदेशों की शुरुआत हुई, जो कि एक स्वघोषित बुद्धिजीवी और आईटी क्षेत्र के कर्मचारी थे। मैंने उन्हें तुरंत पहचान लिया, लेकिन शुक्र है कि उन्होंने मुझे नहीं पहचाना। मैं युवकों के उस समूह का हिस्सा था जिसका जनवरी 2016 में कलकत्ता पुस्तक मेले में उनके साथ झगड़ा हो गया था। हम वहां वेमुला की आत्महत्या के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे थे।
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वह मुझसे बेहद शिष्टाचार से मिले और जब उन्हें पता चला कि मैं एक नाटककार हूं तो उन्होंने फौरन मुझसे एक पटकथा लिखने को कहा जिसमें मुसलमानों का 'अन्य' के रूप में वर्णन किया गया हो। उन्होंने सुझाव दिया कि मैं एक ऐसा दृश्य गढ़ूं जिसमें एक ममता की बारिश करने वाली मां द्वारा अपनाए जाने पर एक बच्चे को यह पता चलता है कि उसकी असली मां तो एक चुड़ैल थी, जाहिर है कि वह अल्पसंख्यक समुदाय की बताई जाएगी। प्रशांत भट्ट समेत संघ के कई दूसरे सदस्यों के सामने खुले तौर पर इस पर चर्चा हुई।
उन्होंने विश्वास दिलाया कि उनके पास सब कुछ तैयार है। एक यूट्यूब चैनल, अभिनेता, दर्शक और वैसे लोग भी जो इसे विभिन्न प्लेटफार्मों पर साझा करेंगे। उन्हें बस एक पटकथा की जरूरत थी।
मैं चिल्लाया, 'यह दृश्य बहुत शानदार है, हमें किसी दिन मिलना चाहिए और इस पर काम करना चाहिए।' उन्होंने तत्काल सहमति दे दी और अगले हफ्ते सेक्टर -5, सॉल्ट लेक में एक बैठक तय हो गई। जैसे ही बैठक खत्म हुई, दूसरे लोग चले गए लेकिन मैं वहीं रुका रहा। मैंने निजी तौर पर प्रशांत भट्ट से मुलाकात की और हमने एक-दूसरे को अपना नंबर दिया।
भट्ट को एक साथी सदस्य ने रात के खाने पर आमंत्रित किया था लेकिन मेजबान के एक दक्षिण भारतीय होने की वजह से वह इससे खुश नजर नहीं आ रहे थे। हमारा दिन भट्ट के सरदारों और दक्षिण भारतीयों पर आधारित बेहूदा चुटकुलों के साथ खत्म हुआ, जो मुझे बिल्कुल भी मजाकिया नहीं लगे। लेकिन वह इन दो समुदायों की गढ़ ली गई मूर्खता पर ठहाके लगाकर हंसते रहे।
योजना के अनुसार, एक हफ्ते बाद मैं साल्ट लेक के सेक्टर 5 में बिपिन बिहारी से मिला। हमने दो घंटे तक बैठक की और इस दौरान कहानी या ज्यादा साफ कहूं तो मुसलमानों के प्रति उनके दृष्टिकोण पर चर्चा की।
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वे मुसलमानों के ‘वंदे मातरम’ नहीं कहने पर परेशान नजर आ रहे थे। वह मुझसे पटकथा में एक बड़े भाई (हिंदू) को शामिल कराना चाहते थे जो गोद लिये गए भाई (मुस्लिम) से इसलिए संबंध खत्म कर लेता है, क्योंकि वह उनकी मां को मां कहने से इंकार कर देता है।
मुसलमानों के खिलाफ उनका दोषारोपण जारी रहा और वह इस बात पर जोर देते रहे कि वास्तव में हिंदू हित के लिए एक फिल्म बनानी क्यों जरूरी है। उन्होंने मुझे हिंदू धर्म को लेकर बंगाली हिंदुओं के बीच मौजूद अज्ञानता पर प्रकाश डालने वाले संवादों को भी शामिल करने के लिए कहा।
आंतरिक जानकारी प्राप्त करना
मुझे रामकृष्ण आश्रम के स्वामी अपूर्वानंद का अनुसरण करने के लिए कहा गया। वह संघ में सबसे सम्मानित धर्मगुरुओं में से एक हैं। मुझे पता चला कि वह वड़ोदरा (गुजरात) में आत्मानंद अवधूत बाबाजी के रूप में जाने जाते थे। हालांकि, उनके अति जातिवादी और सांप्रदायिक बातों से मैं आश्चर्यचकित था। लेकिन यह एक सांचे में फिट प्रतीत हो रहा था।
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आरएसएस और बीजेपी ने पिछले कई वर्षों से रामकृष्ण मिशन के नाम का इस्तेमाल किया है। यहां तक कि रामकृष्ण मिशन के उपाध्यक्ष स्वामी प्रभानंद लोगों को भारतीय जनता पार्टी को समर्थन देने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। फेसबुक पर उनके फॉलोअर की संख्या पांच हजार से ज्यादा है और उनका पोस्ट हजार या उससे भी ज्यादा लोगों द्वारा साझा किया जाता है।
एक स्वघोषित शिक्षाविद् और बंगाल में बीजेपी का प्रवक्ता स्वरुप (सरूप) प्रसाद घोष अपना परिचय रामकृष्ण परंपरा के साधु के तौर पर भी कराता है। वह एक भगवा गमछा और एक टोपी पहनता है, जिसे लोग उस रामकृष्ण मिशन के साधुओं से जुड़ा मानते हैं, जो स्पष्ट तौर पर अपने साधुओं को राजनीति में प्रवेश करने से रोकता है। इसके साधुओं से ब्रह्मचारी होने की भी उम्मीद की जाती है। लेकिन घोष द्वारा चुनाव आयोग को दिये विवरण बताते हैं कि वह न तो ब्रह्मचारी है और न ही वह एक साधु है। मुझे अक्सर आश्चर्य होता है कि आरएसएस और बीजेपी ने ऐसे कितने नकली साधुओं को बंगाल में छोड़ रखा है।
कई महीने बीत गए। लेकिन जब मैं बंगाल में बीजेपी के अंदरखाने की बहुत सारी बातें जान गया तो मैंने आरएसएस के स्कूल में जाने की कोई कोशिश नहीं की। लेकिन अंततः मुझे हटियारा स्थित सरस्वती शिशु मंदिर विद्यालय में कलपतरू दिवस समारोह में भाग लेने का निमंत्रण मिला।
हमें बागिहाती से तीन-चार किलोमीटर चलना पड़ा और तब जाकर हम एक मुस्लिम बहुल इलाके में पहुंचे। हमें एक वरिष्ठ प्रचारक के रूप में केशव जी से मिलवाया गया। हमने उनके पैर छुए लेकिन जब उन्होंने हमें आशिर्वाद दिया तो उनकी उदासीनता स्पष्ट दिख रही थी। जब हमें एक ग्रुप फोटो के लिए एक समूह में शामिल होने के लिए कहा गया तो मैं घबरा गया। मैं अब तक अपनी फोटो खींचे जाने से बचता रहा था, लेकिन यहां बचना मुश्किल लग रहा था। मैं तत्काल अपनी आगवानी करने वाले को वहां से अलग ले गया और उससे मुझे शिक्षकों से बात करने की अनुमति दिलाने के लिए कहा। सौभाग्य से चाल कामयाब हो गई और हम जल्दी में वहां से चल दिए।
मैं उस दुखद दृश्य का साक्षी हूं जब एक वरिष्ठ गैर-बंगाली नेता के खिलाफ शिकायत लेकर एक महिला केशव जी के पास पहुंची थी। उसे अपने बेटे की उम्र के लड़कों द्वारा रोका और घसीटा गया। केशव जी दयालुता से मुस्कुरा दिये, जब किसी ने उसके बारे में कहा, 'पागल है'।
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शिक्षकों का साक्षात्कार करने के मेरे अनुरोध से सचिव खुश नहीं थे। वह सशंकित थे, लेकिन जब मेरी आगवानी करने वाले ने मेरे बारे में कहा कि यह संघ के ही हैं, तब वह निश्चिंत हुए। मैंने एक शिक्षक, जिससे मैं बातें कर पाया, सांप्रदायिक बातें करते सुना। लेकिन फिर यह बात संघ में आम थी। मैंने कुछ नया नहीं खोज निकाला था।
कुछ दिनों बाद, मैं केशव भवन जाकर प्रशांत भट्ट से मिला और उन्हें शिक्षकों से बात कर बीजेपी के एक घोर समर्थक अखबार के लिए एक लेख लिखने की अपनी योजना के बारे में बताया। भट्ट ने मेरे मकसद पर संदेह नहीं किया क्योंकि वह और संघ के अन्य लोगों ने हिंदू धर्मशास्त्र पर मेरे ज्ञान की प्रशंसा करना शुरू कर दिया था। उनके हस्तक्षेप से, बिना किसी देरी के अनुमति मिल गई।
सरस्वती शिशु मंदिर में
मुझे बागुहाती से 30सी नंबर की बस पकड़ने और आखिरी स्टॉप पर उतरने का निर्देश दिया गया था। मुझे बताया गया था कि स्कूल बस स्टैंड से थोड़ी ही दूरी पर होगा। लेकिन ऐसा लगता था कि कोई भी सरस्वती शिशु मंदिर जाने का रास्ता नहीं जानता था। एक दुकानदार ने पूछा कि क्या मैं मिशन स्कूल खोज रहा हूं। मैंने इंकार किया और आगे चल दिया। मेरे मोबाइल पर मौजूद गूगल मैप में भी कुछ नहीं दिखा रहा था। ज्यादातर लोगों ने उस नाम से किसी भी स्कूल के बारे में नहीं सुना था।
जब मैंने एक स्कूल के बारे में पूछा जिसके अंदर एक मंदिर है तब जाकर लोगों ने मुझे स्कूल का रास्ता बताया। स्कूल के समन्वयक, कालीदास भट्टाचार्य, जो अपने जीवन के पांचवें दशक के मध्य में थे, मेरा इंतजार कर रहे थे। मैंने उन्हें एक घंटे देरी से आने की वजह बताई। उन्होंने बड़ी मासूमियत से बताया, आप को उनसे रामकृष्ण मिशन स्कूल जाने का रास्ता पूछना चाहिए था। वे इसे एक मिशन स्कूल के रूप में जानते हैं। आखिर में यह सबूत है इस बात का कि आरएसएस एक पूरा स्कूल एक झूठे आवरण के तहत चला रहा था।
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