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मानक बनतीं ये दो दक्षिण भारतीय फिल्में, सुपरहीरो फिल्म में ऐसा पहला प्रयास जो पूरी तरह हैं सफल

टोविनो थॉमस मलयालम सिनेमा के उभरते हुए सितारे हैं। उन्हें ‘मिन्नल मुरली’ फिल्म में एक भ्रमित अनिच्छुक प्यारे सुपर हीरो के रूप में देखकर आपको इसका एहसास हो जाएगा। सुपरहीरो फिल्म में भारत का यह ऐसा पहला सफल प्रयास है जो मजेदार, मनोरंजक और पूरी तरह से संतोषप्रद है।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया 

बासिल जोसफ की मलयालम ब्लॉकबस्टर ‘मिन्नल मुरली’ निश्चय ही साल 2021 की सर्वश्रेष्ठ भारतीय फिल्म है। भाषा का बंधन तोड़कर यह न सिर्फ भारत के हर हिस्से के दर्शकों से जुड़ती है बल्कि भारतीय सुपरहीरो फिल्म को यह उस मुकाम तक लेकर जाती है जो फलक खेल-शैली की फिल्मों में ‘लगान’ ने हासिल किया था। ‘मिन्नल मुरली’ मलयालम सिनेमा की पहली सुपरहीरो फिल्म है। इसके बारे में हम यह भी कह सकते हैं कि सुपरहीरो फिल्म में भारत का यह ऐसा पहला सफल प्रयास है जो मजेदार, मनोरंजक और पूरी तरह से संतोषप्रद है।

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यह देखते हुए कि भारतीय सिनेमा की इस शैली में क्या परोसता रहा है- रेमो डी सूजा की ‘द फ्लाइंग जट्ट’ को याद करके मैं आज भी सिहर उठता हूं जिसमें टाइगर श्रॉफ एक सुपरहीरो बने थे। ऐसे में, ‘मिन्नल मुरली’ का न केवल स्वागत करना चाहिए बल्कि यह एक ऐसी फिल्म है जिसकी प्रशंसा इसलिए भी की जानी चाहिए क्योंकि यह सुपरहीरो की भावना को मनोरम रूप में पेश करने के साथ-साथ देसी स्वाद बनाए रखती है। यह कुछ-कुछ ऐसा है कि मांस के कोफ्ते को सांभर में डुबोएं और फिर जब उसे बाहर निकालें, तो वह बिल्कुल ताजा हो और लजीज भी। निर्देशक बासिल जोसफ ने बेहद बुद्धिमानी से केरल के एक छोटे से उनींदेशहर को अपना ठिकाना बनाया है। यह न सिर्फ कहानी के सांस्कृतिक विस्तार को रोकता है बल्कि लगे हाथ स्पेशल इफेक्ट्स पर जोर देने के बजाय कथानक और पात्रों पर विशेष तवज्जो देता है।

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एक मामूली दर्जी का यूं एक मजाकिया सुपरहीरो बनना कभी-कभी सच के करीब जान पड़ता है। जैसे, जैसन (टोविनो) अपने सुपरहीरो की क्षमता को जांचने के लिए हवा में उड़ने की कोशिश करता है, तो औंधे मुंह गिर पड़ता है। इस तरह हीरो को हवा में उड़ाने में लगनेवाली लागत से भी फिल्म बच जाती है। जैसन का बुद्धिमान किताबी कीड़ा भांजा (वशिष्ठ उमेश) सुझाव देता है कि ‘इसे धक्का न दो’, तो मानो यह ऐसी सलाह है जो फिल्म के निर्माताओं ने भी बखूबी माना, जो जानते हैं कि कहां कहानी को चुस्त रखनी है और उलझन की सीमा कहां तक होनी चाहिए।

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हालांकि प्रस्तुति के नजरिये से यह एक औसत फिल्म है लेकिन कहीं भी भद्दी नहीं लगती। फिल्म के क्लाइमेक्स को काफी प्रभावशाली तरीके सेफिल्माया गया है। इसमें अच्छा सुपरहीरो विलेन सुपरहीरो से मुकाबला करता है, पर यह जंग उस तरह नहीं होती जैसा कि मार्वल फिल्मों में दिखता है। यहां फोकस इस बात पर है कि कैसे सुपरहीरो की ताकतें पात्रों को प्रभावित करती हैं, बिना किसी शोशेबाजी और स्पेशल इफेक्ट्स के।

सुपरहीरो की यह शुरुआत तब होती है जब दो अलगअलग पात्र जैसन (टोविनो थॉमस) और शिबू (गुरु सोमसुंदरम) एक ही समय में बिजली की चपेट में आ जाते हैं, हालांकि यह घटना एक ही स्थान पर नहीं घटती। वे दोनों शारीरिक ताकत और भावनात्मक उथल-पुथल के साथ होश में आते हैं जो उनके नियमित जीवन को अधिक साहसी बना देते हैं।

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हमें यहां दो विनम्र सुपरहीरो की सुपर-एक्टिंग को सलाम करना चाहिए जो नकाबपोश योद्धा की इस आकर्षक कल्पित कथा को गति देते हैं। टोविनो थॉमस मलयालम सिनेमा के उभरते हुए सितारे हैं। उनको एक भ्रमित अनिच्छुक प्यारे सुपरहीरो के रूप में देखकर आप इसका बखूबी एहसास करेंगे। हालांकि, यह गुरु सोमसुंदरम हैं जिनके पात्र की नई शक्तियों के प्रति भावनात्मक प्रतिक्रियाएं कथानक को सहारा देती हैं। सोमसुंदरम की कृतज्ञता का भाव देखिए कि जब वह महिला जिससेवह जीवन भर प्यार करता है, उसके प्रेम को स्वीकार कर लेती है। यहां भावनात्मक सशक्तिकरण का मानो पाठ्यपुस्तक रच दिया गया हो।

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एक स्टाइलिश मार्बल के चरित्र से अधिक (इसमें दंड देना मकसद होता है) ‘मिन्नल मुरली’ ताकत और लालच में डूबी दुनिया में सुपर-ताकत के उपयोग का एक अध्ययन है। फिल्म में कुछ शानदार एक्शन सीक्वेंस हैं जो डराने से ज्यादा हंसाते हैं। इनमें पात्र सुपर-हीरोइज्म की एक दिलेर बाल-सरीखी हास्यास्पद भूमिका निभाता है। एक जबर्दस्त दृश्य में टोविनो का सुपरहीरो प्रतिशोधी पुलिस वाले की भूमिका में है जिसकी पृष्ठभूमि में ‘अनदर वन बाइट्स द डस्ट’ का हिस्सा चल रहा होता है।

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शुरू से आखिरी तक यह तार्किक कल्पनाशीलता से पोषित एक आनंददायक सफर है जिसमें एक उड़ाकू धर्मयोद्धा का स्वाभाविक बेतुकापन जमीनी साहस में तब्दील होता है। और यह साहस दर्पजनित नहीं, बल्कि आवश्यकता की उपज है। हां, यह देसी सुपरहीरो फिल्म उम्मीद से भी आगेनिकल जाती है। लेकिन आप जानते हैं कि हम भारतीय कैसे हैं! हम कभी नहीं रुकते और यही वजह है कि इसे पसंद करते हैं।

इसी तरह, पहुंच के लिहाज से काफी छोटी, फिर भी अव्यवस्था से लोहा लेनेवाली तेलुगू फिल्म ‘मेल’ की पटकथा की एक तथ्यात्मक गलती को छोड़ दें, तो यह फिल्म तेलंगाना के कंबापल्ली गांव जहां अभी-अभी कंप्यूटर का प्रवेश हुआ है, की निरीह मासूमियत पर एक आकर्षक निगाह डालती है। यदि आप देहाती दुनिया के भोलेपन (जो अब बची नहीं है) के कायल हैं, तो इस फिल्म में 18 साल के एक युवक रवि (नवोदित हर्षित मलगिरेड्डी) की उत्सुकता न सिर्फ बेहद मनोरंजक है बल्कि बहुत गहरे तल पर चलती है।

कंप्यूटर को लेकर फैली भ्रांतियों पर पटकथा कटाक्ष करती है: गांव के जिस एकमात्र शख्स के पास कंप्यूटर है, उसका विश्वास है कि डिजिटल देवता के उस पवित्र कक्ष में किसी भी जूते-चप्पल के प्रवेश सेवायरस का प्रवेश हो सकता है। इसमें कंप्यूटर कुछ बेहतरीन लेकिन गूढ़ हास्य का आधार बन जाता है। कई बेहतरीन दृश्यों में से एक में, रवि घबरा जाता है जब कंप्यूटर स्विचऑफ की आवाज करता है, और वह नहीं जानता कि आने वाले मुश्किलों से पार पाने के लिए बिजली की स्विच कैसे ढूंढ़ी जाए।

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यह मालगुड़ी नहीं, मेल-गुड़ी डेज हो सकती है। और हर्षित मलगिरेड्डी अपनी युवावस्था में नारायण के आम आदमी हो सकते हैं। नई प्रतिभा वास्तव में शानदार है। मलगिरेड्डी हर वक्त जिज्ञासु तकनीकी-अनाड़ी हैं, रवि के अच्छे दोस्त के रूप में मनु सेगुरला और भी बेहतर हैं। सेगुरला की थोड़ी-बहुत सावधानी और कटाक्ष आपको घायल कर देगी।

साफ है, यह भारतीय सिनेमा की अब तक की सर्वश्रेष्ठ कॉमेडी फिल्म होनी चाहिए। इसमें महज एक तथ्यात्मक चूक है। इसमें पात्रों को जीमेल का उपयोग करते हुए दिखाया गया है जबकि कंप्यूटर के शुरुआती वर्षों में यह मेल नहीं था।

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