हाल में नेटफ्लिक्स पर आई मार्टिन प्राक्कत की फिल्म ‘नायट्टू’ पहली नजर में ही एक रोचक और दमदार थ्रिलर लगती है। यह अल्फ्रेड हिचकॉक की कुछ पंसदीदा फिल्मों में से एक का ईमानदारी से अनुसरण करती है, बार-बार घटने वाले प्रसंग– मासूम आदमी जो बस भाग रहा है। यह सब उन्होंने ‘द मैन हू न्यूटू मच’, ‘39 स्टेप्स’, ‘यंग एंड इनोसेंट’, ‘नॉर्थ बाई नॉर्थवेस्ट’ आदि में खूब खंगाले हैं। प्राक्कत ने बड़ी कुशलता से केरल में चुनाव के समय में इसे संदर्भयुक्त बना दिया और उससे भी ज्यादा चतुराई के साथ इसे कानून के रखवालों, यानी पुलिसवालों की दुनिया में संदर्भित कर दिया। ‘नायट्टू’ (इसका मोटा-मोटी अर्थ होता है हंट, यानी शिकार) को एक विशिष्ट रोचक मोड़ देते हुए उन्होंने इसे एक ऐसी कहानी में बदल दिया जिसमें पुसिलवाले पुलिसवालों से ही बचकर भाग रहे हैं और उनके पीछे सरकार और मीडिया भाग रही है। वह पुलिस स्टेशन, पुलिसवालों के घरों और पुलिसवालों के सरकारी वाहन में गश्त करते हुए एक दिन के छोटे-छोटे दृश्यों को रखकर इसकी शुरुआत करते हैं। युवा सीपीओ प्रवीण माइकल (कुंचाको बोबन) की मां की सेहत काफी खराब है, एएसआई केपी मनियन (जोजू जॉर्ज) की बेटी एक ड्रामा प्रतिस्पर्द्धा की तैयारी कर रही है और लेडी कॉन्स्टेबल सुनिता कृष्णा (निमिषा सजयन) को उनका कजन प्रताड़ित कर रहा है और वह इस विषय में सर्कल ऑफिसर की मदद हासिल करने की कोशिश कर रही है।
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इन सब अलग-अलग धागों को बड़े ही रचनात्मक तरीके से चुनावी राजनीतिकी पृष्ठभूमि में बुन दिया गया है। सारे समय पृष्ठभूमि में चुनावी खेल चल रहा होता है। पोस्टल बैलेट के बारे में बात होती है, विपक्ष को हराने की रणनीतियों पर बात होती है, मुख्यमंत्री द्वारा अपने बहुत ही विशेष आदमी (राइट हैंड मैन) को टिकट देने से इनकार पर बात होती है। एक मंत्री अपने विरोधियों के साथ मामला बराबर करने के लिए एक ऐसे युवा व्यक्ति को एक गैर-जमानती मामले में फंसा देता है जो उसकी बेटी से गुपचुप मुलाकात करता रहा है। इस मासूम लड़के पर लगाया गया झूठा केस उस बहुत बड़े खेल की घोषणा करता है जो बाद में फिल्म में देखने का मिलता है। लेकिन शुरुआत में हमारे सामने जो दृश्य आता है, वह कुछ ऐसे वर्दीधारियों का है जिनका आत्म सम्मान, आदर्श और नैतिक मूल्य बहुत ही कमतर हैं। ये पुलिसवाले किसी भी तरह से स्वतंत्र तो नहीं हैं बल्कि कहा जाए तो एक समझौते का जीवन जी रहे हैं और राजनेताओं के हाथों की कठपुतलियां हैं। “जो अच्छा काम करते हैं वे मुसीबत में पड़ते हैं”, ऐसा सिनिकल मनियन कहता है और जल्द ही इसकी सच्चाई हमारे सामने पर्दे पर आ जाती है।
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प्राक्कत तनाव को दृश्य-दर-दृश्य, क्षण-दर-क्षण निर्मित करते हैं। थूकने पर एक बहस विकराल रूप ले लेती है। एक दलित नेता गिरफ्तार कर लिया जाता है। जाति-आधारित वोट की राजनीति भड़क उठती है और प्रदर्शन के दौरान जमीन और कॉलेज की डील तय हो जाती है। इसी के समानांतर एक शादी हो रही है, रात में कुछ लोग घर वापस जा रहे हैं, एक अनेपक्षित दुर्घटना हो जाती है। एक मृत व्यक्ति है जो गिरफ्तार किए गए दलित नेता का मित्र होता है और फिर जल्द ही चारों ओर नरक की आग जलने लगती है। बहुत जल्दी हमें पता चलता है कि मनियन, प्रवीण और सुनीता भगोड़े हो गए हैं और उसी पुलिस से भाग रहे हैं जिसका वे हिस्सा हैं। क्राइम ब्रांच उनके पीछे लगी हुई है।
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प्राक्कत द्वारा बिना सोचे-समझे दलित नेता का एक गुंडे के रूप में सतही चित्रण बहुत ही निराशा जनक है और इसकी अपेक्षा नहीं थी। यह बिल्कुल ऐसा था जैसे वह बहुसंख्य विशेषाधिकार वर्ग के लिए हाथों में मोमबत्ती लेकर खड़े हों। ज्यादा इसलिए क्योंकि खुद वोट बैंक की राजनीति का इशारा हवाओं में है और इसे इंगित करके निर्णायक तरीके से हमें नहीं बताया गया है।
जो सहायक रहता है, वह यह है कि फिल्म यहां से भी आगे बढ़ जाती है और थोड़ा जल्दी ही बढ़ जाती है। जिस खेल की ओर यह फिल्म बढ़ रही है, उसमें एक महत्व और प्रासंगिकता का भाव आने लगता है कि कैसे गैर-कानूनी घोषित किए गए पुलिसवाले एक बहुत बड़े राजनीतिक सर्कस में प्यादे बन जाते हैं। एक-दूसरे पर आरोप लगाना, सच्चाई को तोड़-मरोड़ देना, सबूतों के साथ छेड़छाड़ और उन्हें नष्ट करना, बेशर्मी से अन्याय करना तथा एक के बाद एक झूठे नैरेटिव के लिए मीडिया को इस्तेमाल करना- यह सब नपे-तुले, निर्मम और बहुत ही ठंडे दिमाग से किए गए अपराध हैं। सब सच नहीं लगता? हां, सही है, हमारे इस पोस्ट ट्रूथ संसार में जहां तथ्यों को नकार दिया जाता है और अनदेखा कर दिया जाता है लेकिन फेक वाट्सएप फॉरवर्ड पर आंख मूंद कर विश्वास किया जाता है; जहां अपराधी खुल्ले घूमते हैं जबकि मासूम लोगों को अपने सिद्धांतों पर टिके रहने के कारण जेल में डाल दिया जाता है; जहां टेलीविजन पर दिखाए जाने वाले समाचार सच्चाई के बारे में कम बल्कि नाटकबाजी और धारणा बनाने केलिए ज्यादा होते हैं।
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अंततः हमारी सारी हमदर्दी उस मासूम पुलिसवाले के साथ होती है जो अपना फर्ज निभाने में इतना मशगूल रहता है कि वह अपनी नवजात बच्ची से भी 15 दिन बाद मिलता है। बाद में यह पुलिसवाला संलग्नता से तैयारी कर रही अपनी बेटी की प्रतियोगिता में भी उपस्थित होने के वादे को नहीं निभा पाता। क्या सरकार उसके लिए जवाब देह होगी? या फिर उसका अपनी जरूरतों के लिए ऐसे ही इस्तेमाल करती रहेगी? यह वास्तव में एक बार-बार दोहराया जाने वाला प्रश्न है। राजनीति की दुनिया में आम आदमी सबसे बड़ी कैजुअल्टी है।
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