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शुक्रिया ‘पैडमैन’ : अब खुलकर होने लगीं उन ‘खास दिनों’ की बातें

माहवारी के दौरान तमाम समस्याओं से जूझती महिलाओं को केंद्र में रख कर बनायी गयी फिल्म ‘पैडमैन’ इस मायने में एक महत्वपूर्ण फिल्म है कि आज तक भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में इस विषय पर कोई फिल्म नहीं बनी है।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया पैडमैन महिलाओं से जुड़े सबसे अहम विषय पर बात करती है

हमारा समाज विरोधाभासों का एक अजीब गुण्ताड़ा बन गया है। एक तरफ ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान है तो दूसरी तरफ महिलाओं के खिलाफ अपराधों की बाढ़ सी आ गयी है; एक तरफ औरतें भूख और कुपोषण से या सड़ी-गली परम्पराओं और अंधविश्वासों का शिकार होकर जान गंवा रही हैं, दूसरी तरफ माहवारी से जुडी समस्याओं, अंधविश्वासों, अंतरजातीय और अंतर्धार्मिक शादियों पर चर्चा दिन पर दिन जोर पकड़ रही है।

विरोधाभासों के इस विचित्र घालमेल के बीच आई है फिल्म ‘पैडमैन’ जो माहवारी के दौरान तमाम समस्याओं से जूझती महिलाओं को केंद्र में रख कर बनायी गयी है। आज तक हमारे समाज में माहवारी शब्द को संकोच और दबे स्वर में लिया जाता है। इससे जुड़े अनेक रिवाज और अन्धविश्वास हैं, जो ना सिर्फ महिलाओं के लिए अपमानजनक हैं, बल्कि उनकी सेहत के लिए नुक्सान दायक भी। ऐसे में माहवारी पर एक कमर्शियल फिल्म बनाना अपने आप में एक बड़ा कदम है। ‘पैडमैन’ इस मायने में एक महत्वपूर्ण फिल्म है कि आज तक भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में इस विषय पर कोई फिल्म नहीं बनी है।

यह फिल्म अरुणाचलम मुरुगनान्थम की वास्तविक कहानी पर आधारित है, जिन्होंने महिलाओं के लिए सस्ते और पर्यावरण के अनुकूल सैनेटरी नैपकिन्स बनाने की मशीन इजाद की। यह भारत की उन ग्रामीण महिलाओं के लिए एक क्रन्तिकारी आविष्कार है, जो माहवारी के दौरान गंदे कपड़ों से लेकर घास और पत्तियों तक तमाम तरह के सस्ते और अनहाइजीनिक तरीकों का इस्तेमाल करने के लिए अभिशप्त हैं।

फिल्म के प्रमोशनल कैंपेन ने ‘मेन्स्ट्रूअल हाइजीन’ शब्द को सोशल मीडिया पर काफी मशहूर कर दिया है। हालांकि, इस कैंपेन के दौरान यह सवाल जरूर लोगों के जेहन में उठता रहा कि इतने सैनेटरी नैपकिन्स को फिल्म के विज्ञापन में बर्बाद करने की क्या जरूरत थी, जबकि इन सैनेटरी नैपकिन्स को फ्री में जरूरतमंद महिलाओं में बांट कर वाकई उनकी मदद की जा सकती थी।

फिल्म में अक्षय कुमार लक्ष्मी की भूमिका में हैं जो एक सीधा-सादा सा वेल्डर है और अपनी बीवी (राधिका आप्टे) से बहुत प्यार करता है, उसे कष्ट में नहीं देख सकता। लेकिन जब वो माहवारी के दौरान अपनी बीवी को गंदे कपड़ों का इस्तेमाल करते देखता है, तो बेचैन हो उठता है और यहीं से शुरू होता है उसका एक चुनौतीपूर्ण सफर और जुनून जिसके दौरान वह तमाम दिक्कतों से जूझते हुए सैनेटरी नैपकिन वेंडिंग मशीन बनाता है। उसके रास्ते में तमाम तरह की रुकावटें आती हैं। सबसे बड़ी रूकावट है ‘शर्म’, जब उसकी बीवी कहती है कि हम औरतें किसी शर्म की बनिस्पत किसी बीमारी से मरना ज्यादा पसंद करती हैं। फिर उसका सामना होता है उन अंधविश्वासों से जिनके तहत माहवारी के दौरान महिलाओं को छुआछूत का शिकार होना पड़ता है। पुरुष भी माहवारी के दौरान औरतों की खिल्ली उड़ाते हैं। लक्ष्मी पुरुषों के इस सेक्सिस्ट रवैये से भी जूझता है।

महिलाएं खुद माहवारी के लिए कितनी लापरवाही बरतती हैं, यह इस बात से जाहिर होता है कि उसकी पत्नी 55 रुपये का नैपकिन ना खरीद कर पैसे की बचत करती है, लेकिन मंदिर में 51 रुपये खर्च करने में उसे कोई संकोच नहीं होता। लक्ष्मी अपने मिशन में आखिरकार कामयाब होता है और बाद में अपनी बीवी और एक एमबीए छात्रा परी (सोनम कपूर) की मदद से मेंसट्रूअल हाइजीन का पैगाम फैलाने और महिलाओं को इसके प्रति जागरूक करने में लग जाता है। छोटी-छोटी घटनाओं के जरिये फिल्म महिला सशक्तिकरण और आत्मनिर्भरता की बातें भी करते चलती है। अपनी कुशल सिनेमेटोग्राफी के चलते ‘पैडमैन’ खूबसूरत फिल्म लगती है जिससे इसके सन्देश में एक आकर्षण भी जुड़ जाता है।

हाल के सालों में अक्षय कुमार ने सामाजिक तौर पर अहम् मुद्दों पर फिल्में बनाना और ऐसी फिल्मों में अभिनय करना शुरू किया है और इसके लिए उन्हें प्रशंसा और पैसा दोनों मिला है। लेकिन ‘पैड मैन’ में उनके किरदार में कहीं-कहीं ‘टॉयलेटः एक प्रेम कथा’ के किरदार की बहुत साफ झलक दिख जाती है और अचानक ऐसा लगता है कि फिल्म और किरदार में मौलिकता की कमी है। एक अभिनेता के तौर पर अक्षय को अपनी भूमिकाओं में बहुत सजग होना पड़ेगा, वर्ना बहुत संभव है कि दर्शक उनके किरदारों की एकरसता के कारण बोर हो जाएं। राधिका आप्टे पत्नी की भूमिका में खरी उतरी हैं, लेकिन सोनम कपूर का किरदार (जो निर्देशक ने कहानी को दिलचस्प बनाने के लिए जोड़ा है) बहुत प्रभावित नहीं करता। बल्कि लक्ष्मी और उसकी पत्नी के बीच परी के साथ लक्ष्मी के रोमांस का छोटा सा प्लॉट गैर जरूरी और उबाऊ लगता है।

कुल मिला कर फिल्म अक्षय कुमार की है। एक अभिनेता के तौर पर अक्षय में काफी परिपक्वता आई है और कहानी भी उनके किरदार को ही सपोर्ट करती है। यह कोई क्लासिक फिल्म नहीं है, लेकिन फिल्म के मकसद और संदेश की प्रशंसा तो होनी ही चाहिए। यह बॉलीवुड इंडस्ट्री खासकर निर्देशक आर बाल्की का एक बोल्ड प्रयास है कि ऐसे संवेदनशील मुद्दे पर उन्होंने एक कमर्शियल फिल्म बनाने की कोशिश की है। मनोरंजक होने के साथ-साथ फिल्म को उसके संदेश और उसे बनाने के पीछे की मंशा के लिए भी जरूर देखा जाना चाहिए।

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