दिलीप कुमार के जाने के बाद उनकी संवाद अदायगी और वह हिंदुस्तानी जुबान याद आ रही है जिसके बारे में लिखा गया है कि वह नेहरू के बोलने की शैली जैसी थी। लेकिन उसका कुछ न कुछ संबंध पेशावर और वहां के उस किस्साख्वानी बाजार से है जिसके चौक पर शाम के समय लोग किस्से सुनने-सुनाने के लिए जुटते थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले मुंबई कूच करने के पहले दिलीप कुमार का बचपन पेशावर के इसी बाजार की गलियों में बीता था। अपनी आत्मकथा ‘वजूद और परछाई’ में उन्होंने किस्साख्वानी बाजार के किस्से खूब डूबकर सुनाए हैं। एक किस्से की महफिल उनके घर की छत पर आग के आसपास जमती थीं जिसमें उनकी दादी ऐसे किस्से सुनाने वालों को किस्सों की महफिल से सदा के लिए विदा कर दिया करती थीं जो ऐसे किस्से सुनाता था जिसे पूरे परिवार के सामने नहीं सुना जा सकता हो।
दिलीप कुमार को याद करते हुए किस्साख्वानी बाजार को याद करना इसलिए जरूरी है क्योंकि दिलीप कुमार के अभिनय, किरदारों की और कहानियों को लेकर उनकी अपनी राय पर इस सबके पीछे बचपन में सुनी उन कहानियों का असर रहा हो जो शाम के समय उस ऐतिहासिक बाजार के चौक पर सुनी थीं, जहां अलग-अलग देशों के व्यापारी किस्से सुनने-सुनाने के लिए जुटते थे। वहां जीवन भी किस्से की तरह ही जिया जाता था। जब मुंबई के पास देवलाली में दिलीप कुमार अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने लगे और उन्होंने एक अंग्रेजी कविता याद कर ली। जब छुट्टियों में पेशावर गए तो बच्चे यूसुफ का अंग्रेजी क़िस्सा सुनाना किस्साख्वानी बाजार का सबसे बड़ा किस्सा हो गया। उनके घर जो आता उनके पिता वही कविता सुनाने के लिए कहते और मेहमान भौंचक रह जाता।
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आजाद भारत के सबसे बड़े अभिनेताओं में एक दिलीप कुमार ने कभी अभिनय के बारे में सोचा भी नहीं था। उनके मित्र राज कपूर के पिता पृथ्वीराज कपूर और स्वयं राज कपूर फिल्मों में अभिनय करते थे और इस बात से दिलीप कुमार के अब्बा बहुत चिढ़ते थे। इसलिए फिल्मों के बारे में सोचने का सवाल ही नहीं उठता था। उनके पिता व्यापारी थे। इसके बावजूद कि दिलीप कुमार की तालीम अच्छी हुई थी लेकिन उनको घर चलाने की जिम्मेदारी का अहसास बहुत गहरा था। एक बार अपने पिताजी से झगड़कर वह चुपचाप पुणे चले गए और वहां सेना की कैंटीन में काम करने लगे। वहां उनके बनाए सैंडविच बहुत पसंद किए जाने लगे और फौज के अफसरों में उनकी लोकप्रियता बहुत हो गई। द्वितीय विश्वयुद्ध का जमाना था। एक दिन उनको भी युद्ध को लेकर अपने विचार रखने के लिए कहा गया और उन्होंने युद्ध को लेकर यह कह दिया कि भारत को इस युद्ध में तटस्थ रहना चाहिए। बस उनको गिरफ्तार कर लिया गया और यरवदा जेल में डाल दिया गया। एक दिन जेल में बिताने के बाद जब वह छूटे तो वापस मुंबई आ गए।
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दिलीप कुमार के बारे में यह जानना दिलचस्प है कि जब उनको फिल्म अभिनेता बनाने का प्रस्ताव मिला तब तक उन्होंने कोई फीचर फिल्म नहीं देखी थी। देवलाली के आर्मी कैंटीन में उन्होंने युद्ध की कोई फिल्म नहीं देखी थी। उनका फिल्मों में जाना अचानक हुआ। वह एक दिन मुंबई के चर्च गेट स्टेशन पर खड़े थे जहां उनको डॉक्टर मसानी मिल गए जिन्होंने उनको कॉलेज में पढ़ाया था। उन्होंने कहा कि वह बॉम्बे टॉकिज की मालकिन देविका रानी से मिलने जा रहे हैं। दिलीप कुमार से उन्होंने कहा कि वह भी उनके साथ चलें। क्या पता वहां कोई काम मिल जाए। देविका रानी जब उनसे मिली तो उनको युसूफ खान नामक उस नौजवान की हिंदुस्तानी जुबान बहुत पसंद आई। उस समय फिल्मों में कोई ऐसा अभिनेता नहीं था जो उर्दू इतनी अच्छी बोलता हो। हिंदी सिनेमा को एक नया सितारा मिल गया था।
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बस एक बदलाव किया गया। उनका नाम युसूफ खान से बदल कर दिलीप कुमार कर दिया गया। इसको लेकर दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि एक धर्मनिरपेक्ष छवि रहे अभिनेता के रूप में। हालांकि इस बात की तरफ कम ध्यान दिया गया कि देविका रानी को अपने अभिनेताओं के नाम बदलने की आदत थी। उन्होंने दिलीप कुमार से पहले स्टार अभिनेता अशोक कुमार का नाम कुमुदलाल कुंजीलाल गांगुली से बदलकर अशोक कुमार कर दिया था।
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दिलीप कुमार अपनी जुबान, अपने अभिनय की विशिष्ट शैली, किरदारों को जीने की अपनी अदा के लिए जाने गए। ‘मुगले- आजम’ फिल्म में उन्होंने सलीम का किरदार इस तरह से निभाया कि आज भी अकबर को याद करते ही दिमाग में उनकी छवि उभरती है। उसी तरह ‘देवदास’ के रूप में भी दिलीप कुमार ही याद आते हैं। उनका जाना आजाद भारत के पहले स्टार अभिनेता का जाना ही नहीं है बल्कि उस शख्सियत का जाना भी है जिसने हिंदुस्तानी भाषा को लोकप्रिय बनाने में सबसे बड़ी भमिू का निभाई।
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