सऊदी अरब में पहली बार रेड सी इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल होने जा रहा है। इसका आयोजन यूनेस्को के विश्व विरासत स्थलों की सूची में शामिल पुराने जेद्दा शहर में 6 से 15 दिसंबर के बीच होगा। पहले इस फिल्मोत्सव का आयोजन 2020 में 12 से 20 मार्च के बीच होना था लेकिन कोविड-19 के कारण इसे स्थगित कर देना पड़ा। इस फिल्मोत्सव में 65 देशों की 130 फीचर फिल्में और शॉर्ट फिल्में दिखाई जाएंगी। इनमें से करीब 35% फिल्में ऐसी हैं जिनकी निर्माता महिला हैं। इसमें भारत का प्रतिनिधित्व सत्यजीत रे की ‘जय बाबा फेलुनाथ’ करेगी और नए निदेशक की श्रेणी में नितिन लुकोसे की फिल्म ‘पाका’ एशिया, अरब और अफ्रीका की 15 अन्य फिल्मों से स्पर्धा करेगी। 1980 के दशक से सऊदी अरब में सिनेमा हॉल पर प्रतिबंध था और 35 साल के बाद पहली बार 2018 में सिनेमा हॉल चालू हो सका। इस फिल्मोत्सव से यह उम्मीद की जा रही है कि इससे सऊदी अरब के उभरते फिल्म उद्योग को फलने- फूलने में मदद मिलेगी। सऊदी में इस भव्य आयोजन को लेकर तरह तरह की भ्रांतियां और शंकाएं हैं लेकिन इनका सीधा और सरल जवाब यही है कि व्यवहार में क्या और कैसे होता है, इसे देखना चाहिए। आयोजन से जुड़े विभिन्न आयामों पर संडे नवजीवन के लिए जूम कॉल के जरिये प्रबंध निदेशक शिवानी पांड्या मल्होत्रा और अंतरराष्ट्रीय प्रोग्रामिंग निदेशक कलीम आफताब ने बात की। बातचीत के अंशः
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प्रोग्रामिंग के संदर्भ में क्या आपका रुझान एशिया, अफ्रीका और अरब जगत की फिल्मों की ओर है?
कलीम आफताब: जब हम फिल्मोत्सव के विभिन्न खंडों की रूपरेखा तैयार कर रहे थे तो हमारे जेहन में यह बात जरूर थी कि अरब सहित एशियाई, अफ्रीकी फिल्मों को कैसे बढ़ावा दें। इसलिए हमने इन देशों को ही ध्यान में रखते हुए प्रतियोगिता के विजेता के लिए पर्याप्त पुरस्कार के साथ एक कार्यक्रम तैयार करने का भी फैसला किया। इस फिल्मोत्सव की खासियत यह है कि यह दनिु या के सबसे बड़े फिल्म पुरस्कारों में से एक है लेकिन इसमें अफ्रीका, एशिया और अरब दनिु या के फिल्म निर्माता ही जीत सकते हैं। जाहिर है कि अरब की फिल्मों पर ज्यादा ध्यान दिया गया था लेकिन ऐसा नहीं कि हमने बाकी क्त्षेरों की फिल्मों को भुला दिया।
प्र. भारत की भागीदारी पर क्या कहेंगे?
कलीमः भारत फिल्में बनाने वाला प्रमुख देश है। हमारे पास 62 एंट्री आईं और सभी को देखा गया। हमारे लिए फैसला करना मुश्किल था लेकिन हमने ‘पाका’ के पक्ष में फैसला किया। 16 फिल्मों में से दो भारतीय उपमहाद्वीप से आई हैं। फिर हम यह भी सुनिश्चित करना चाहते थे कि एक अफ्रीकी फिल्म हो, इसलिए हमने ‘सलौम’ को रखा। मुझे लगता है कि हमने एक बड़ा काम यह किया कि चयन के लिए ईरानी फिल्मों पर भी विचार किया। हम चाहते थे कि फिल्मोत्सव में नए सिनेप्रेमियों का ध्यान रखा जाए जिससे भौगोलिक सीमाओं को तोड़ते हुए नए तरह के फिल्म निर्माताओं के लिए एक बड़ा बाजार तैयार हो सके। इससे दनिु या भर के स्वतंत्र फिल्म निर्माताओं की मदद होगी।
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प्र. तो क्या स्वतंत्र और यवुा वर्ग पर जोर होगा?
कलीमः हमारी कोशिश हर वर्ग, हर उम्र, हर पृष्ठभूमि के दर्शकों का ध्यान रखने की है। इन मापदंडों पर फिट बैठने वाली फिल्मों पर हमारा ध्यान है। उदाहरण के लिए, भारत से हमने कई बेहतरीन फिल्में देखीं - दोस्तोजी, पेबल्स, फायर इन दि माउंटेंस। ये बहुत अच्छी फिल्में थीं लेकिन वे इस साल समारोह की थीम पर बिल्कुल फिट नहीं बैठीं लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि ये गुणवत्ता में कम थीं।
प्र. अन्य भारतीय फिल्म है जोई बाबा फेलुनाथ...
कलीमः इस फिल्म का अंग्जी में टाइटल रे है- दि एलीफेंट गॉड। इस साल सत्यजीत रे का जन्मदिन हम मनाना चाहते थे। वह ऐसे फिल्म निर्माता हैं जो पश्चिम में बहुत प्रसिद्ध हैं। तमाम सिनेप्रेमियों के लिए वह भारतीय सिनेमा के पितामह हैं। भारत में स्वतंत्र सिनेमा ज्यादा लोकप्रिय नहीं हैं और हम दर्शकों के सामने यह बात लाना चाहते थे कि भारतीय फिल्मों की एक बहुत ही समृद्ध विरासत है। देखने वाली बात है कि हम इन समृद्ध स्मृतियों को कैसे संरक्षित कर सकते हैं। आज हमारे बीच ऐसे कई लोग हैं जिनकी फिल्मों के संग्रह में रुचि है और वे लगातार इस दिशा में काम कर रहे हैं कि भारतीय सिनेमा की स्मृतियों को कैसे संरक्षित किया जाए। हम इस तरह के प्रयासों को बढ़ावा देते हैं। हम यह भी देखते हैं कि दनिु या में कहां-कहां नए संग्रह बना सकते हैं। इन कोशिशों को हॉलीवुड, ब्रिटेन और फ्रांस की पुरानी फिल्मों तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए।
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प्र. प्रोग्रामिंग के लिए हम क्या करें और क्या न करें-जैसे मानकों का पालन किया जाता है?
कलीमः मैं अरब देशों में ऐसा कोई समारोह नहीं जानता जिसमें वैसी फिल्में दिखाई गई हों जिन्हें हम यहां दिखाने जा रहे हैं। हम यहां बिना सेंसर की फिल्में दिखा रहे हैं। हम नहीं जानते कि सीमाएं क्या हैं। हम नहीं जानते कि क्षमताएं क्या हैं। जाहिर है, एक मुस्लिम पृष्ठभूमि होने और एक बहुत ही पारंपरिक परिवार में पले-बढ़े होने के कारण मुझे कुछ सीमाओं और कुछ वैचारिक संघर्षों की समझ है जो सिनेमा और परंपरा के बीच हो सकते हैं। हम सीमाओं का दायरा बढ़ा भी रहे हैं और इसके साथ ही हम उन लोगों का भी ध्यान रख रहे हैं जो परिवार के साथ देख सकने वाली फिल्मों को पसंद करते हैं। शिवानी पंड्या मल्होत्रा: 65 अलग-अलग देशों और 34 अलग-अलग भाषाओं की करीब 130 फिल्में हैं। तो, यह काफी व्यापक चयन है और हम जो चित्रित कर रहे हैं उसके संदर्भ में हमने भारी विविधता रखी। कई फिल्में हैं महिला केन्द्रित यह स्वाभाविक रूप से हुआ। इस बार की श्रेष्ठ फिल्म महिला आधारित केन्द्रित हैं। फिल्म जगत के इतिहास में महिला आवाज को बहुत कम प्रतिनिधित्व दिया गया और अब चीजें बदल रही हैं। उनकी आवाज के लिए कुछ तो जगह बनी है लेकिन यह अब भी पर्याप्त नहीं। अभी हम उस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं।
प्र. दुनिया से कैसी प्रतिक्रिया आ रही है? मुझे लगता है, लोगों को कुछ गलतफहमियां भी होंगी?
शिवानी: मैं तो यही कहूंगी कि हमें बहुत अच्छी प्रतिक्रिया मिली है। निश्चित रूप से ऐसे लोग हैं जो आशंकित हैं, लेकिन मैं हमेशा कहती हूं कि उन्हें आना चाहिए और देखना चाहिए कि जमीनी स्तर पर हम क्या कर रहे हैं। हमारा उद्शदे्य रचनात्मक वर्ग को सबल बनाने, फिल्म निर्माताओं की मदद करना है। हम एक अंतरराष्ट्रीय स्तर का फिल्म समारोह आयोजित कर रहे हैं। हम पूर्णता के साथ फिल्में दिखा रहे हैं, दनिु या भर से फिल्में ला रहे हैं, हमने किसी तरह की सीमा नहीं बांध रखी है। हम एक फिल्म समारोह हैं, हम एक सांस्कृतिक कार्यक्रम हैं, हम सांस्तिकृ क पुल बनाने की बात कर रहे हैं, हम यह दिखाने की बात कर रहे हैं कि दनिु या के इस हिस्से में सांस्तिकृ क पहलू क्या हैं। पिछले कुछ सालों में काफी बदलाव आ रहा है। और यह काफी अविश्वसनीय है।
प्र. आप अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कितने लोगों के महोत्सव में भाग लेने की उम्मीद कर रही हैं?
शिवानीः अभी तो मुझे यही लगता है कि 800 से 1,200 लोग होंगे। मुझे नहीं पता कि अगले कुछ हफ्तों में क्या होने जा रहा है। हो सकता है कुछ और लोग शामिल हो जाएं।
प्र. महोत्सव की फिल्में जो आपकी पसंदीदा हैं?
कलीम: वे सभी किसी-न-किसी तरह से मेरी पसंदीदा हैं ... मुझे लगता है कि ऐसी तीन फिल्में हैं जो अरब दनिु या में कभी नहीं दिखाई गईं। अब सऊदी इससे बाहर होगा क्योंकि हम उन्हें यहां दिखाने जा रहे हैं। इस क्रम में पहली फिल्म है दीना आमेर की ‘यू रिसेम्बल मी’। यह ऐसी फिल्म है जो पूरी तरह से अलग नजरिया सामने रखती है और यह बताती है कि मीडिया कैसे किसी नजरिये को आगे बढ़ाता है जबकि सच्चाई कुछ और होती है। एक फिल्म है टी लिंडेबर्ग की ‘ऐज इन हेवन’। यह एक बहुत ही मजबूत फिल्म है जो शिक्षा और कार्यस्थल के लिए घर से बाहर निकलने के लिए लगातार किए जा रहे संघर्ष के बारे में है।
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