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मरहूम फिल्म समीक्षक राशिद ईरानी: ऐसी राहें सबके लिए नहीं होतीं

देश के अग्रणी फिल्म समीक्षकों में शुमार राशिद ईरानी का बीते जुलाई माह में मुंबई में निधन हो गया। सौभाग्य से उनके जीवन पर बना एक वृत्तचित्र और उनकी तमाम यादें हमारे साथ हैं जो उनकी असाधारण सृजनयात्रा को उन्हें हमारे बीच बनाए रखेंगे।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया 

राशिद ईरानी मुंबई के उन कुछ अत्यंत जहीन लोगों में शुमार थे जिनके लिए सिनेमा जुनून था और किताबें प्यार। वह सिनेमा ही नहीं, मुंबई के लुप्त होते सांस्कृतिक अतीत के भी अद्भुत पारखी थे। कुछ भी बोलने से पहले, तमाम अवसरों और स्मृतियों के साक्षी रहे इस अद्भुत शख्सियत वाले इंसान का तकिया कलाम था- ‘अगर मेरी याददाश्त ठीक है तो।’

अब इसे संयोग कहें या कुछ और कि ईरानी पर रफीक इलियास की डाक्यूमेंटरी का शीर्षक भी वही है जो ईरानी के मुंह से अक्सर सुनाई देता था, जो मुंबई से पुणे की ट्रेन यात्राओं, भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान और राष्ट्रीय फिल्म अभिलेखागार की चर्चाओं में आता था। इन यादों में अपने ही जैसे जुनूनी फिल्मरसिया दोस्तों के साथ यासूजिरो ओजू, रॉबर्ट ब्रेस्सों, ज्यां रेनुआ जैसे महान फिल्मकारों की बातें शामिल होती थीं। फिल्म संस्थान के पूर्व निदेशक, प्रोफेसर, क्यूरेटर और इतिहासकार सुरेश छाबड़िया का नाम ऐसी हर बातचीत में अनिवार्य रूप से शामिल होता।

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छाबड़िया से बातचीत में ईरानी कहते हैं- यह उन दिनों की बात है जब सिनेमा आज जैसा सुलभ नहीं था। जेब में धेला और ठहरने का जुगाड़ सोचे बिना हम पुणे भाग जाते थे। इतना भरोसा रहता था कि पीके नायर के रहमोकरम से किसी क्लासिक विश्व सिनेमा का दुर्लभ प्रिंट देखने का जुगाड़ तो हो ही जाएगा। वही पीके नायर, यानी प्रमेश कृष्णन नायर जो फिल्म और टेलीविजन संस्थान के संस्थापक और निदेशक भी थे।

‘इफ मेमोरी सर्व्ज़ मी राइट’, कैमरे की पैनी नजर के साथ ईरानी के हर उस लमहे को पकड़ने की कोशिश है जहां कुछ नया निकल सकता है। कई दुर्लभ वार्तालाप हैं जिनमें बातों के साथ-साथ उनके मूड्स को पकड़ने में कैमरे का बखूबी इस्तेमाल हुआ है।

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मुहावरों की धुरी पर खड़ी यह फिल्म तमाम रेशों को खूबसूरती से बुनती है। एक सिरा फिल्मों के प्रति उनकी जुनूनी यात्रा पर है। इसमें फिल्मों के प्रति उनके प्रेम की दास्तान है और वह कहानी भी जब इस जुनूनी प्रेम में मर्लिन मुनरो से हुई आकस्मिक मुठभेड़ ने आग लगा दी थी। यह हेनरी हेथवे की ‘नियाग्रा’ थी जिसमें मर्लिन केन्द्रीय भूमिका में थीं। 1953 में बनी यह फिल्म ईरानी ने क्लास बंक करके देखी थी।

ईरानी बड़े प्यार से याद करते हैं कि मर्लिन की दिव्य, मोहक और कामुक छवि का उन पर ऐसा असर पड़ा कि उसके बाद थिएटर में हर बार वह वही अक्स तलाशते थे। उनकी नजर में यह फिल्म और उस कलाकार के साथ एक मुकम्मल पहचान का मामला था। जेम्स डीन दूसरा नाम है जिसने उनके दिल दिमाग पर जादुई असर डाला। वह मार्निंग शो में देखी गई माइकल एंजेलो एंटोनियोनी की द पैसेंजर, ब्लोअप और जब्रिस्की पॉइंट जैसी फिल्मों को याद करते हैं, तो स्टर्लिंग में देखी गई इंग्मार बर्गमैन और इरोस में लुचिनो विस्कोंटी जैसे महान फिल्मकारों की फिल्में भी। यह यूरोपीय सिनेमा से उनका पहला परिचय था।

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तमाम शानदार लमहे हैं जिन्हें ईरानी बार-बार याद करते हैं। मसलन- केरल के अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में वर्नर हर्जोग से मुलाकात और और उनकी वह बात जहां वह कहते हैं - ‘मुद्रित शब्द चलती छवियों की तुलना में हमेशा ज्यादा देर तक रहेंगे।’ या मुंबई में ‘साइको’ की शुरुआती स्क्रीनिंग का वह अहसास जब फिल्म के अंत में नॉर्मन बेट्स की मां दर्शकों की ओर घूमी तो एक कंकाल दिखी और हाल भयावह चीखों से गूंज उठा था। अनायास नहीं था कि ईरानी अंत तक इस मामले में शुद्धतावादी रहे और कभी भी फिल्म के प्रिंट पर डिजिटल मीडियम के हावी होने को कभी मान्यता नहीं दी। इसमें विशाल सिंगल स्क्रीन और महंगे स्नैक्स व पॉपकॉर्न वाले मल्टीप्लेक्स की बहस का सिरा भी है।

‘इफ मेमोरी सर्व्ज़ मी राइट’ नास्टेलजिया में डूबी हुई है। आकर्षक ईरानी रेस्तरां- काफे एडवर्ड, लॉर्ड इर्विन, पेरिस बेकरी की चर्चाओं के बीच ‘वे भी क्या दिन थे’, ‘वे गौरव भरे दिन’... जैसे वाक्यांश बार-बार सुनाई देते हैं जो महज फिल्म भर नहीं, पूरी मुंबइया जीवनशैली का बयान भी हैं। इन यादों में कालबादेवी भी है जहां से ईरानी ने अपनी सबसे पसंदीदा किताबों में से एक आर्थर वाली की चीनी कविताएं खरीदीं। ईरानी इन्हें ‘प्राचीन मुंबई के अवशेष’ बताते हैं।

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फिल्म उनके उन साढ़े सत्रह वर्षों के निजी जीवन में झांकने की खिड़की भी खोलती है जब वह एक निजी शिपिंग कंपनी में एकाउंटेंट थे या उस पारिवारिक रेस्तरां में ले जाती है जो उन्होंने अपने दो भाइयों के साथ बिना किसी व्यावसायिक कौशल के संभाला था। अपने जीवन में आई महिलाओं या उनकी अनुपस्थिति को लेकर वह बहुत साफगोई से बात करते हैं और इसके लिए बिली लियर जैसी एक काल्पनिक दुनिया में खुद को पाते हैं जिसमें महिलाओं की अलहदा स्थिति थी। हालांकि इसके विपरीत साठ से ज्यादा वर्षों तक रहे वह अपने अस्त-व्यस्त निवास में अपनी हजारों किताबों के साथ ही। उनके जाने के बाद इनके इस संग्रह का क्या होगा? छोटे से जीवन पर पूरे दार्शनिक अंदाज में ईरानी कहते हैं- ‘सबको जला डालो!’ इंसान की मृत्यु के बाद इस सब का कोई अर्थ नहीं!

मृत्यु के लिए इस तरह सोचने वाले इस शख़्स को हमने जीवन के अंतिम कुछ महीनों, महामारी के दौर में जीवन से संघर्ष करते देखा। शारीरिक ही नहीं, मानसिक स्वास्थ्य पर भी ऐसा असर हुआ कि वह हर उस चीज के प्रति निरपेक्ष दिखे जो कल तक अनिवार्य थे। घर में एक स्टोव या फ्रिज या किचन भी चालू हालत में नहीं बचा। चाय से भोजन तक सब बाहर ही होता। ज्यादातर मुंबई प्रेस क्लब में जहां फिल्में उनके साथ रहतीं। लॉकडाउन ने उनका जीवन लगभग ठप कर दिया था।

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इन्हीं हालात में ईरानी 30 जुलाई, 2021 को हमेशा के लिए दुनिया छोड़कर चले गए। ईरानी घर में ही गिर गए थे और यही उनकी मौत का कारण बना। मृत्यु का पता तीन दिन बाद चला जब दोस्तों ने कोई खोज-खबर न मिलने पर फ्लैट का दरवाज़ा तोड़ा और उनकी लाश मिली।

यह सिनेमाई श्रद्धांजलि उन्हें याद रखने का एक बड़ा जरिया बनकर आई है। यहां नकारात्मक बातें नहीं हैं। यह उनकी बीमारी में नहीं जाती। उस गरिमा, अनुग्रह और परिष्कृत मानवता की बात करती है जिसके लिए ईरानी जाने जाते थे। जिससे ईरानी थे। फिल्म उन संस्थानों और लोगों की उदार स्वीकृति के साथ खत्म होती है जिनका ईरानी के जीवन, खासकर मुश्किल दिनों में बड़ा योगदान रहा। लक्ष्मीबाई उनमें शायद सबसे खास हैं जो घर की सीढ़ियों से मुंबई प्रेस क्लब तक उनका बैग लेकर जाती थीं। वही प्रेस क्लब जो उनका अड्डा और दूसरा घर भी था।

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