मौजूदा केंद्र सरकार और इसके वैचारिक पूर्वजों की बदौलत, एनसीईआरटी (नेशनल काउंसिल ऑफ एजुकेशनल रिसर्च एंड ट्रेनिंग) 2014 से ही चर्चा में है। और अब एक बार फिर यह इतिहास और राजनीति विज्ञान के साथ ही संभवतः अन्य विषयों की स्कूली पाठ्यपुस्तकों में व्यापक बदलाव की खबरों के साथ सुर्खियों में है। नि:स्संदेह इसके विवरण महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इन बदलावों का इस बात पर गहरा असर पड़ेगा कि हमारे बच्चे अपने देश और उसके इतिहास के बारे में क्या जानकारी हासिल करेंगे - लेकिन हमें उस राजनीतिक कवायद को नहीं भूलना चाहिए जो सार्वजनिक स्मृति को फिर से अभियंत्रित करने के लिए की जा रही है। संक्षेप में समझें, और यदि पाठकों के मन में कोई संदेह है, तो समझना होगा कि इस देश की कहानी, इसकी संस्कृति और सांस्कृतिक प्रभावों को राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ की कट्टर हिंदू श्रेष्ठतावादी कल्पनाओं के चश्मे से देखते हुए फिर से बताया जा रहा है।
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एनसीईआरटी ((नेशनल काउंसिल ऑफ एजुकेशनल रिसर्च एंड ट्रेनिंग) संभवत: एक स्वायत्त संस्था है जिसकी स्थापना देश में शैक्षिक मानकों की स्थापना के उद्देश्य से 1961 में की गई थी। एनसीईआरटी द्वारा निर्धारित पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकों का पालन न केवल केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) और 23 अन्य राज्यों के परीक्षा बोर्डों द्वारा किया जाता है, बल्कि कुछ निजी स्कूलों और अन्य बोर्डों द्वारा भी कुछ मामूली बदलाव के साथ किया जाता है। तात्पर्य यह है कि एनसीईआरटी अपनी पाठ्यपुस्तकों में जो बदलाव करता है, वह इस देश के बड़ी संख्या वाले छात्रों के सीखने को प्रभावित करता है। मोदी सरकार के सत्ता संभालने वाले वर्ष 2014 के विभक्ति बिंदु से पहले, इन अभ्यासों पर शायद ही कभी संदेह पैदा हुआ हो - उन्हें नियमित प्रक्रिया माना जाता था, और शायद ही कभी उन पर विवाद हुआ हो और मोटे तौर पर ये बदलाव आलोचना से परे होते थे।
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अपने 60 वर्षों से अधिक के इतिहास के अधिकतर हिस्से में एनसीईआरटी ने अपनी अकादमिक श्रेष्ठता के बूते एक प्रतिष्ठा अर्जित की है। इसके विशेषज्ञों ने जो पाठ्यक्रम तैयार किए और पाठ्यपुस्तकें लिखवाईं और बदलावों की जिस तरह निगरानी की, उससे इन विशेषज्ञों के प्रति जनता में एक भरोसे का भाव रहा है। लेकिन हाल के वर्षों में जिस तरह से परिवर्तन करने का सिलसिला शुरु हुआ है और जो परिवर्तन किए जा रहे हैं, उससे स्वंय ही संदेह पैदा होता है कि संशोधनवादी प्रक्रिया कुछ भी हो, लेकिन अकादमिक तो निश्चित रूप से नहीं हो सकती। आधिकारिक तौर पर कहा जा रहा है कि ये परिवर्तन या संशोधन एनसीईआरटी द्वारा पिछले साल चलाए गए एक रेशनालाइजेशन यानी 'युक्तिकरण' अभ्यास का हिस्सा हैं, जिसका उद्देश्य छात्रों पर पाठ्यक्रम के बोझ को कम करना है ताकि कोविड महामारी के दौरान छात्रों के सीखने की प्रक्रिया में जो कमी आई है, वे उससे उबर सकें।
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लेकिन जो परिवर्तन या संशोधन किए गए हैं उनके कुछ उदाहरण देखिए और खुद तय कीजिए कि क्या यह तर्क सही है:
एनसीईआरटी की सामाजिक विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों में से 2002 के गुजरात दंगों के सभी संदर्भ को हटा दिया गया है। (गुजरात 2002 जैसे हुआ ही नहीं)
मुगलकाल और जाति व्यवस्था से संबंधित पृष्ठों को बुरी तरह कांट-छांट दिया गया है। मसलन, 7वीं कक्षा की उस पाठ्यपुस्तक में जिसमें बाबर, हुमायूं, अकबर, जहांगीर, शाहजहां और औरंगजेब जैस मुगल बादशाहों की उपलब्धियों को बताया गया था, उनमें कांट-छांट कर दी गई है।
विरोध और सामाजिक आंदोलनों के अध्याय को पूरी तरह हटा दिया गया है
7वीं कक्षा की इतिहास की पाठ्यपुस्तक में वर्ण व्यवस्था पर आधारित अध्याय को काटकर आधा कर दिया गया है और वर्णों की आनुवांशिक प्रकृति और अछूत माने जाने वाले लोगों के वर्गीकरण से जुड़े संदर्भों को हटा दिया गया है।
ऐसे ही नाथूराम गोडसे द्वारा महात्मा गांधी की हत्या और गोडसे के हिंदू महासभा और आरएसएस से संबंधों के साथ ही गांधी की हत्या के बाद कुछ समय के लिए दूसरी बार आरएसएस पर लगे प्रतिबंध का वर्णन अब नहीं मिलेगा
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और भी बहुत कुछ बदला गया है, लेकिन आपको तस्वीर साफ दिख गई होगी: यह इतिहास के उन अंशों को मिटाने का प्रयास और इच्छा है जो संघ की हिंदू राष्ट्र के रूप में भारत की अवधारणा के अनुरूप नहीं हैं, और उन अंशों पर लीपापोती करना है जो इसके संदिग्ध इतिहास की पोल खोलते हैं। किसी भुलावे में न रहें: इस प्रोजेक्ट में एनसीईआरटी को भी हथियार बनाया गया है। यहां यह ध्यान देने वाली बात है कि 2017 में ही, परिषद ने 182 पाठ्यपुस्तकों में 1,334 संशोधन किए थे। इसके अगले ही साल, ऐसी खबरें आईं कि एनसीईआरटी पर पाठ्यक्रम के लगभग आधे पाठ्यों को हटा देने का दबाव था। जो कुछ हो रहा है, उस पर आक्रोशित, प्राचीन भारतीय इतिहास के एक इतिहासकार ने कहा कि एनसीआईआरटी एक तरह से 'सांस्कृतिक नरसंहार' का दोषी है। लेकिन सिर्फ एनसीईआरटी के सिर ही इस सबका दोष मढ़ना, एक ऐसी संस्था या उसे हासिल स्वायत्तता पर दोष मढ़ना है, जो अब स्वायत्त रह ही कहां गई है।
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