सरकार की विचारधारा संबंधी प्राथमिकताओं के कारण भी निर्यात पर प्रतिकूल असर पड़ाहै। गौ-रक्षकों के उत्पात के कारण मवेशी व्यापार से लेकर चमड़े और जूता-चप्पल उद्योग पर भी बुरा असर पड़ाहै। इससे भैंस के मांस का निर्यात भी घट गया है और 2013-14 में जहां 14.5 लाख टन(4.35 अरब डॉलर) के ये उत्पाद निर्यात किए गए, 2018-19 में यह घटकर 12.3 लाख टन (3.61 अरब डॉलर) रह गया। भारत भैंस मांस के निर्यात के मामले में पहले नंबर पर था। इसके कारण गांवों की अर्थव्यवस्थापर भी बुरा असर पड़ा। कृषि निर्यात भी 2013-14 में 42.6 अरब डॉलर से घटकर 2017- 18 में 34 अरब डॉलर का रह गया।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 जून को नीति आयोग की बैठक में भरोसा जताया कि 2024 में जब इस सरकार का कार्यकाल समाप्त होगा, देश की अर्थव्यवस्था 5 खरब डॉलर तक पहुंच जाएगी। उन्होंने कहा, ‘यह मुश्किल तो है, लेकिन इसे पाया जा सकता है’, अगर राज्य साथ दें।
भारत की अर्थव्यवस्था फिलहाल 2.72 खरब डॉलर यानी 190.5 लाख करोड़ की है। प्रधानमंत्री की इस महत्वाकांक्षा को पाने के लिए देश में वस्तु और सेवा की मौजूदा उत्पादकता में अगले पांच वर्षों के दौरान 84 फीसदी की वृद्धि होनी पड़ेगी। पिछले पांच साल में इस क्षेत्र में 53 फीसदी का इजाफा दर्ज किया गया। इसके साथ ही देश के जीडीपी में पिछले पांच साल के दौरान मुद्रा स्फीति को समायोजित किए बिना हासिल 10.89 फीसदी की वृद्धि को बढ़ाकर 15 फीसदी करना होगा।
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मुद्रा स्फीति को समायोजित करने के बाद 2018-19 में अर्थव्यवस्था 7 फीसदी की दर से बढ़ी जो पिछले पांच सालों में न्यूनतम है। यह गिरावट यात्री वाहनों की बिक्री में भी झलकी। भारतीय ऑटोमोबाइल एसोसिएशन के मुताबिक अप्रैल में वाहनों की बिक्री में 17 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई जो आठ सालों में न्यूनतम है। इस सेगमेंट में यात्री वाहनों में अप्रैल, 2018 की तुलना में 20 फीसदी की गिरावट आई है। पिछले साल यात्री वाहनों की बिक्री में 2.7 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई थी जो अपने आप पांच सालों में न्यूनतम थी।
उद्योग यह तो मान रहा है कि मई में भी गिरावट का सिलसिला जारी रहा, हालांकि यह गिरावट कितनी रही, इसका खुलासा नहीं किया। सबसे बड़ी कार निर्माता मारुति की बिक्री में मई, 2019 में पिछले साल की समान अवधि की तुलना में 22 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई। पिछले वित्तीय वर्ष में कंपनी की बिक्री में 17 फीसदी की गिरावट रही थी।
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कमर्शियल गाड़ियों की बिक्री लगभग 18 फीसदी की दर से बढ़ी और पिछले साल की तुलना में कम रहने के बाद भी इसे अच्छी ही स्थिति कहा जा सकता है। वैसे, चूंकि कुल मांग में मंदी है, इसका असर कमर्शियल वाहनों की बिक्री पर भी पड़ना लाजिमी है। बाजार असुसंधान एजेंसी नील्सन इंडिया का आकलन है कि इस कैलेंडर वर्ष में मूल्य और मात्रा के संदर्भ में जरूरी उपभोक्ता उत्पादों की बिक्री में 2-3 प्रतिशत अंकों की गिरावट रहेगी। शहरी बाजार की तुलना में ग्रामीण बाजार में यह गिरावट अधिक रहेगी।
काबिले गौर है कि पिछले साल जुलाई से ही ग्रामीण बाजार में जरूरी उपभोक्ता उत्पादों की बिक्री में गिरावट महसूस की जा रही है। अगर मॉनसून खराब रहा तो स्थिति और खराब हो सकती है।
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2019 की पहली तिमाही के दौरान हिंदुस्तान लीवर के उत्पादों की बिक्री वृद्धि में 7 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई जबकि पिछले साल समान अवधि में 11 फीसदी का इजाफा रहा था। डाबर की बिक्री 4.3 फीसदी की दर से बढ़ी जबकि पिछले साल की पहली तिमाई की तुलना में यह धीमी है। इसी तरह की गिरावट गोदरेज साबुन, ब्रिटानिया, बजाज कंज्यूमर केयर और मैरिको के मामले में भी दर्ज की गई। मार्च में समाप्त तिमाही के दौरान हिंदुस्तान यूनिलीवर के परिणामों की घोषणा के बाद प्रेस कांफ्रेंस में कंपनी के चेयरमैन संजीव मेहता ने कहा, ‘आप यह नहीं कह सकते कि एफएमसीजी मंदी से महफूज रहा है। हां, यह मंदी को रोके रखने में काफी हद तक कामयाब जरूर रहा। जब हालात मुश्किल हो जाते हैं तो लोग नहाने के साबुन और दांत साफ करने के पेस्ट वगैरह खरीदने में कंजूसी करने लगते हैं। एक परिवार किसी उत्पाद के भिन्न-भिन्न ब्रांडों की जगह एक ब्रांड पर टिक जाता है और बड़े पैक की जगह छोटे पैक से काम चलाने लगता है।’
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अमेरिका में लगातार दो तिमाही में नकारात्मक विकास दर रहने के बाद ही इसे मंदी माना जाता है। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिका की अर्थव्यवस्था कहीं बड़ी है, 2017 के आंकड़ों के मुताबिक इसका आकार 19.48 खरब डॉलर है और इससे भारतीय अर्थव्यवस्था की दर से बढ़ने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। अमेरिकी अर्थव्यवस्था 2017 में 2.2 और 2018 में 2.9 फीसदी की दर से बढ़ी। दूसरी ओर, पिछले दशक के दौरान दहाई अंक की दर से विकास करने वाली भारतीय अर्थव्यवस्था के 6 फीसदी से नीचे चले आने को ही बड़े झटके के रूप में देखा जाना चाहिए।
इस साल जनवरी-मार्च के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर 5.8 रही। पिछले पांच साल के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था का जो हाल रहा, लगता है वैसी ही स्थिति आज भी है। हालांकि सरकार यह दावा करती रही है कि भारत सबसे तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था है, लेकिन अनुभव इसकी तस्दीक नहीं करते। सरकार कहती है कि 2016-17 के दौरान अर्थव्यवस्था 8.2 फीसदी की दर से बढ़ी, लेकिन पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा कि इन आंकड़ों को निष्पक्ष एजेंसी से पुष्ट कराया जाना चाहिए।
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अरविंद ने यह भी लिखा कि उन्हें लगता है कि 2011- 2012 से ही विकास दर को अमूमन 2.5 फीसदी बढ़ाकर दिखाया जाता रहा है। अरविंद ने बिजली खपत, वाहन बिक्री, रेलवे-हवाई यात्रा, औद्योगिक उत्पादन सूचकांक जैसे 17 मानदंडों के आधार पर अनुमान जताया कि इस दशक के दौरान भारत की विकास दर 7 की जगह 4.5 फीसदी रही होगी। उनके अनुसार इसमें दो राय नहीं कि भारत की अर्थव्यवस्था मजबूती से बढ़ रही है, लेकिन इसे शानदार नहीं कहा जा सकता।
रोजगार के आंकड़ों के मामले में भी स्थिति सही नहीं। सरकार ने हर पांच साल पर होने वाले कामगारों से जुड़े सर्वेक्षण के नतीजों को छह माह तक दबाकर रखा। प्रधानमंत्री के शपथ लेने के अगले दिन इसे जारी किया गया। इससे यह बात साबित हुई कि जनवरी में बिजनेस स्टैंडर्ड ने अपनी रिपोर्ट में जो आंकड़े दिए थे, वे सही थे। 2017-18 में बेरोजगारी की दर 6.1 फीसदी रही जो 45 साल में सबसे खराब थी। मुंबई स्थित निजी अनुसंधान संगठन सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी का कहना है कि जनवरी से अप्रैल के बीच बेरोजगारी दर 6.87 रही।
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चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री और उनकी पार्टीने अर्थव्यवस्था के मुद्दे पर मौन साध रखा था, लेकिन उन्हें भी पता था कि आजीविका से जुड़े मुद्देको नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यही कारण था कि सरकार ने कर्मचारियों और नियोक्ता के लिए ईएसआई के मद में किए जाने वाले अंशदान को 6.5 फीसदी से घटाकर 4 फीसदी कर दिया। अनुमान है कि इससे 3.6 करोड़ कर्मचारियों और 12.85 लाख नियोक्ताओं पर असर पड़ेगा और इससे उन्हें सालाना 8,000 करोड़ बचेगा। साथ ही, गैरसंगठित क्षेत्र के उद्यमों को संगठित क्षेत्र में आने के लिए प्रोत्साहन मिलेगा।
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इसके अलावा सरकार श्रम कानूनों को और उदार बनाने की तैयारी कर रही है जिसमें ऐसी उद्यमों को भी कंपनी बंद करने से पहले सरकार से अनुमति लेने की जरूरत नहीं होगी जिसमें बड़ी संख्या में कर्मचारी हों। 2001 में अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री रहते जब इस दिशा में कोशिश की गई तो इसका भारी विरोध हुआ था, लेकिन अब जबकि नरेंद्र मोदी सरकार के पास लोकसभा में ठोस बहुमत है, सरकार फिर इस दिशा में बढ़ने की तैयारी कर रही है।
किसी भी देश की विकास दर तेज नहीं हो सकती अगर निर्यात का मोर्चा कमजोर हो। पिछले साल भारत ने 331 अरब डॉलर का निर्यात किया जो 2013- 14 की तुलना में 5 फीसदी अधिक था। जिस तरह वैश्विक व्यापार में गिरावट आई है और अमेरिका की ओर से अभी और भी बाधाएं खड़ी की जानी हैं, ऐसे में भारत भी अपनी अर्थव्यवस्था को और प्रतिस्पर्धी बनाने के लक्ष्य से पिछड़ गया है। मेक इन इंडिया को बढ़ावा देने के लिए भारत ने कई वस्तुओं पर शुल्क बढ़ा दिए हैं। लेकिन इससे निर्यात नहीं बढ़ने जा रहा। सरकार की विचारधारा संबंधी प्राथमिकताओं के कारण भी निर्यात पर प्रतिकूल असर पड़ा है।
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गौ-रक्षकों के उत्पात के कारण मवेशी व्यापार से लेकर चमड़े और जूता-चप्पल उद्योग पर भी बुरा असर पड़ा है। इससे भैंस के मांस का निर्यात भी घट गया है और 2013-14 में जहां 14.5 लाख टन (4.35 अरब डॉलर) के ये उत्पाद निर्यात किए गए, 2018-19 में यह घटकर 12.3 लाख टन (3.61 अरब डॉलर) रह गया। भारत भैंस मांस के निर्यात के मामले में पहले नंबर पर था। इसके कारण गांवों की अर्थव्यवस्था पर भी बुरा असर पड़ा।
कृषि निर्यात भी 2013-14 में 42.6 अरब डॉलर से घटकर 2017-18 में 34 अरब डॉलर का रह गया। अभी निवेश बढ़ाने की जरूरत है जो 2011-12 में जीडीपी के 3.4 फीसदी के स्तर से गिरकर पिछले पांच साल के दौरान औसतन 29 फीसदी के स्तर तक गिर गया है। चुनाव प्रचार के दौरान अपनी मार्केटिंग करने में तो प्रधानमंत्री मोदी सफल रहे लेकिन अब उन्हें काम करके दिखाना है। कारोबार करने के लिए उपयुक्त माहौल बनाने के साथ ही उन्हें गैर-भाजपाई सरकारों को भी साथ लेकर चलना होगा वर्ना 2024 तक भारत को 5 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने के उनके दावे का वही हश्र होगा जो 2022 तक किसानोंकी आय को दोगुना करने का हुआ।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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