राजनीति में छह महीने का वक्त लंबा होता है। मई, 2019 मे बीजेपी ने भारी बहुमत के साथ सत्ता में वापसी की थी। लेकिन जाड़ा आते-आते लगा कि सरकार ने अपनी दिशा, अपनी साख खो दी है। साफ है कि अर्थव्यवस्था की स्थिति में आमूलचूल बदलाव न हुआ, तो सरकार गंभीर राजनीतिक भंवर में फंस जाएगी।
सच्चाई तो यह है कि खतरे में डालने वाली सरकारी नीतियों की वजह से ही अर्थव्यवस्था गहरे तक संकट में फंस चुकी है। इस संकट से लोगों का ध्यान भटकाने के लिए बीजेपी विघनटनकारी राजनीतिक एजेंडे को सामने रखकर अर्थव्यवस्था के इस संकट का शमन करने की कोशिश कर रही है, लेकिन इससे, अधिक-से-अधिक उसे कुछ मोहलत भर मिल जाएगी। उसका वक्त कम होता जा रहा है। घृणा, अंततः, जनमत या मुख्य चालक के तौर पर विकास का विकल्प नहीं हो सकता। वह समय बिल्कुल नजदीक आ चुका है, जब लोग पूछने लगेंगे कि इस मार्ग पर चलना क्या उचित है। बहुत तेजी से आशा समाप्त हो रही है।
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अर्थव्यवस्था उस मुकाम पर पहुंच गई है, जहां से थोड़ी-सी फिसलन का भी गंभीर और घातक परिणाम होगा। बेरोजगारी दुखद स्तर पर पहुंच गई है, बाजार में मांग लगातार गिरती जा रही है और करों का संग्रहण वहां तक पहुंच गया है कि सरकार के पास उतना भी पैसा नहीं कि वह संकट से उबरने के लिए विश्वसनीय कदम उठा सके। अगर हम आज जहां हैं, स्थितियां वैसी ही बनी रहती हैं, तो यह संकट इस साल के अंत तक सड़कों पर दिख सकता है क्योंकि आने वाले महीनों में स्थितियों के बदतर ही हो जाने के चिह्न दिख रहे हैं।
भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर बीजेपी सरकार जिस तरह का व्यवहार कर रही है, उसमें एक मूलभत दोष है। इन्हें लगता है कि ऊंचे स्तर वाले विकास को निचले स्तर वाली अर्थव्यवस्था से बदला जा सकता है। विचार यह था कि अगर उद्योगों को पर्याप्त टैक्स छूट दी जाए, तो वे अधिक निवेश करेंगे, अधिक रोजगार पैदा होंगे और वह विकास का अच्छा चक्र बन जाएगा। उन्हें उम्मीद थी कि यह अर्थव्यवस्था के लिए उच्च स्तर की वक्र रेखा बन जाएगी।
अर्थव्यवस्था का यह माॅडल विफल हो गया। सरकार इतनी दूर चली गई कि अब उसके लिए वापसी मुश्किल ही है और अगर सरकार भूल सुधार के कुछ उपाय अब करना भी चाहे, तो परिणाम दिखने में कुछ साल लग जाएंगे। अर्थव्यवस्था, और संभवतः जीवन के भी, स्वर्णिम नियम यह हैं कि विनाश आसान है लेकिन निर्माण में कुछ वक्त लगता है। यह ऐसी बात है जो इस सरकार की समझ में नहीं है।
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इस सरकार के लिए सबसे बड़ी समस्या भारतीय अर्थव्यवस्था के गति विज्ञान की समझ में अक्षमता है। 2014 में भारी बहुमत से जीत के गुबार में सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समझा कि वे डाॅ. मनमोहन सिंह से ज्यादा चतुर हैं और भारत को अपनी अर्थव्यवस्था के मार्ग में नई दिशा की जरूरत है। वे भारत को उस तरह के स्पीड बोट पर ले जाकर संभवतः गलती कर बैठे जो तेजी से टर्न तो ले सकती है, जबकि उन्हें विशाल कार्गो शिप की जरूरत थी, जिसे टर्न लेने के लिए थोड़े वक्त की जरूरत होती है।
सरकार के पास भाग्यशाली समय भी था जब कच्चे तेल के अंतरराष्ट्रीय दाम में भारी गिरावट आई हुई थी। पांच साल पहले के दिल्ली चुनावों के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने इसी आधार पर अपने को ’नसीबवाला’ कहा भी था। पेट्रोलियम टैक्सेस से सरकार की अतिरिक्त आमदनी भारी भरकम 11 लाख करोड़ रुपये तक हो गई लेकिन उन्होंने यह नहीं देखा कि यह अर्थव्यवस्था की गति को किस तरह बदल रही है क्योंकि यह उपभोक्ता सामग्रियों की कीमतों को कम रही थी और कृषि तथा ग्रामीण आय पर प्रभाव डाल रही थी। वे इस बारे में अनजान थे कि यह उपभोग (कन्जंप्शन) पर किस तरह असर डालेगी।
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बीजेपी ने स्वामिनाथन आयोग की सिफारिशों को पूरा करने का वायदा किया था लेकिन उसकी सरकार बिल्कुल दूसरी दिशा की ओर चली गई। न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में मामूली बढ़ोतरी की गई और इसे बहुत ढीले-ढाले तरीका से लागू किया गया। इससे मुद्रास्फीति को कम किए रखने में तो मदद मिली लेकिन इससे कृषि कार्य में फायदा धीरे-धीरे कम होता गया और इसने ग्रामीण भारत को परेशानी की तरफ धकेल दिया। मोदी सरकार के पहले चार साल में कृषि क्षेत्र की विकास दर 2.5 प्रतिशत रही और स्थिति तब से बेहतर नहीं है। जब 60 फीसदी आबादी 2.5 फीसदी की दर से विकास कर रही तो यह आमदनी और खर्च करने के तरीकों पर असर डालेगी ही। लेकिन सरकार शायद अर्थव्यवस्था की मजबूती के संकेतक के तौर पर सिर्फ स्टाॅक मार्केट को देखती रही।
नवंबर, 2016 में प्रधानमंत्री ने नोटबंदी की घोषणा की। यह अब भी साफ नहीं है कि प्रधानमंत्री ने ऐसा क्यों किया लेकिन तीन साल और करीब दो माह बाद इसका असर सबको स्पष्ट है। नोटबंदी के सात माह बाद जुलाई, 2017 में सरकार जीएसटी ले आई और एक देश, एक टैक्स के तौर पर इसकी मार्केटिंग की लेकिन जिस तरह से इसे लागू किया गया, उसने महज यह सुनिश्चित किया कि अनौपचारिक क्षेत्र को इसे पूरा करने और अपने उद्योगों में बड़े खिलाड़ियों के साथ प्रतिद्वंद्विता करने में गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़े।
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सरकार ने उसके बाद का समय नकारने, विकास की संख्या को छिपाने और अखबारी शीर्षकों का जुगाड़ करने में बिताया। संकट बढ़ता गया लेकिन सरकार को भरोसा था कि यह संकट राजनीतिक षड्यंत्र है और कुछ जगहों से उठने वाली आवाज का मतलब कोई गंभीर आर्थिक संकट नहीं है। लेकिन 2019 आते-आते कल्पना के लिए कुछ नहीं रह गया क्योंकि 2019-20 की दूसरी तिमाही में विकास दर 7.2 से घटकर 4.5 फीसदी तक पहुंच गई। यह पिछले साल की तुलना में करीब 3 प्रतिशत की कमी थी।
विकास में गिरावट तो बुरी थी ही, कुछ दूसरे आंकड़े भी आने लगे और इन सबने संकेत दिया कि अर्थव्यवस्था पिछले 40 साल में सबसे नीचे स्तर पर है। बेरोजगारी 45 साल में सबसे ऊंचे स्तर पर है जबकि 40 साल में पहली दफा सबसे कम उपभोग हो रहा है। इन सबके अतिरिक्त, पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम के एक विस्तृत लेख ने संकेत दिया कि बिजली उत्पादन पिछले 30 साल के सबसे कम स्तर पर है और जो निर्यात दर 2017-18 में 9 फीसदी थी, वह घटकर -1 प्रतिशत हो गई है।
सबसे निराशाजनक आंकड़ा सेंटर फाॅर माॅनिटरिंग इंडियन इकोनाॅमी (सीएमआईई) से आया जिसने संकेत दिया कि बढ़ती बेरोजगारी अब राष्ट्रीय संकट बन गया है। इसका सितंबर-अक्टूबर, 2019 का आंकड़ा बताता है कि 20-24 वर्षआयु की शहरी बेरोजगारी 37 फीसदी तक पहुंच चुकी है।
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इन सबसे ऐसी स्थिति बन गई है कि जो बिल्कुल किनारे पर जीवन-यापन कर रहे हैं, वे गरीबी में गिर रहे हैं। यूपीए सरकार के दस साल के दौरान करीब 14 करोड़ लोगों को गरीबी से बाहर निकाला गया था, अंग्रेजी बिजनेस अखबार मिन्ट के विश्लेषण ने संकेत दिया कि पिछले छह साल के दौरान 3 करोड़ लोग गरीबी में चले गए हैं।
पर्याप्त और अन्य संकेत हमें बताते हैं कि अर्थव्यवस्था गंभीर संकट में है और इसका असर जमीन पर हर भारतीय महसूस कर रहा है लेकिन सरकार अब भी इसे नकार रही है। 2019 में वित्त मंत्री अरुण जेटली के बीमार रहने के कारण बजट पेश करने वाले पीयूष गोयल ने फिर कहा है कि अर्थव्यवस्था छलांग लगाने को तैयार है। ऐसा ही जेटली भी कहते रहे थे। जो यकीन करते हैं कि अर्थव्यवस्था जिस तरह गहरे संकट में अभी है, उसकी हालत एक बजट से ठीक हो जाएगी, तो वे शायद अब भी चमत्कार और जिन्न वगैरह की कहानियों पर यकीन करने वाले हैं। वे अब भी यह मानते हैं कि यह सरकार अर्थव्यवस्था समझती है और इसकी योजनाएं काम कर जाएंगी।
पूर्व प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह ने कहा था कि यह कोई नन्ही कमान और नियंत्रण वाली अर्थव्यवस्था नहीं है जिसे इच्छा के अनुरूप खींचा और दिशा दिया जा सके। न इसका रंगीन शीर्षकों और मीडिया टिप्पणियों से प्रबंधन किया जा सकता है। शीर्षकों का प्रबंधन बाजार को मदद कर सकता है, लेकिन अर्थव्यवस्था को इससे कोई लाभ नहीं हो सकता।
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सरकार अगर अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए गंभीर हो, तो उसका प्रमुख कदम उपभोग (कन्जंप्शन) विकास मुख्य कदम होना चाहिए। कृषि विकास दर 2 फीसदी और निर्माण के नकारात्मक होने से 70 फीसदी से अधिक आबादी मंदी की शिकार है। रोजगार के खयाल से, इन दो सबसे बड़े क्षेत्रों में धीरज खत्म होता जा रहा है। सुधार की प्रक्रिया और कुछ भी करने से पहले कृषि और ग्रामीण मांग के साथ शुरू होनी चाहिए। जब तक यह नहीं होता है, वापसी की कोई भी बातचीत महज वाकपटुता है। लेकिन दिक्कत यह है कि सरकार प्रधानमंत्री किसान कार्ड खेल चुकी है और यह भी बहुत कुछ प्रभाव डालने में विफल रहा है।
प्रधानमंत्री किसान योजना में थोड़ी-सी वृद्धि दिखावटी भर होगी और गंभीर ढंग से बेहतरी तब ही होगी जब कीमतों में बढ़ोतरी हो लेकिन इसका भी सीमित ही असर होगा, क्योंकि बढ़ी हुई कीमतों का बहुत कम हिस्सा ही किसानों को मिलता है। खाद्यान्न मुद्रास्फीति दिसंबर में 14 फीसदी पहुंच गई और यह ऐसी जगह पहुंच गई है कि यह गरीब और श्रमिक वर्ग को साल रही है। डाॅ. मनमोहन सिंह ने मुद्रास्फीति जनित मंदी (स्टैगफ्लेशन)- ऊंची मुद्रास्फीति और अवरुद्ध विकास के मिश्रण, को लेकर चेताया था। पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार सुब्रह्मण्यम उन प्रमुख अर्थशास्त्रियों में हैं जिन्हें लगता है कि और गहरा दर्द होने वाला है, क्योंकि कुछ बेहतर होने से पहले और बुरा होने जा रहा है। यही सच भी लगता है।
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