बड़ी-बड़ी घोषणाएं करना, पुरानी सरकारों की कमियों को कुरेद-कुरेद कर लोगों के सामने रखना, उससे हुए कथित नुकसान के कसीदे पढ़ना, बिना सोचे-समझे ऐसे फैसले कर लेना जिन्हें न्यायोचित ठहराने में पूरी सरकारी मशीनरी को पसीने छूट जाएं और पहले से जारी योजनाओं को नए नाम के साथ पेश करना...यह है केंद्र की मोदी सरकार की कार्यशैली। एक और तरीका अपनाती रही है मोदी सरकार, वह यह कि उग्र और आक्रामक राष्ट्रवादी सोच में धार्मिक तड़का लगाकर लोगों में एक जुनून पैदा करना और असली राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों से लोगों का ध्यान भटकाना।
लेकिन जब अमीर से लेकर गरीब से गरीब आदमी, जिसमें रिक्शे वाले से लेकर सड़क किनारे रेहड़ी लगाने वाला शामिल है, सरकार के अंदर और बाहर मौजूद अफसरों और अर्थशास्त्रियों ने भी देश की अर्थव्यवस्था पर टिप्पणियां शुरु कर दे, तो अहंकारी सरकार की नींद उड़ने लगी है। तभी सरकार को संभवत: समझ आया है कि लोग अब सिर्फ वही बातें नहीं मानेंगे जो सरकार चाहती है या चाहती रही है।
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मोदी सरकार को साफ नजर आ रहा है कि जीएसटी और नोटबंदी पर उसकी दलीलें बेअसर और नाकाम हो रही हैं, लोगों की निराशा नजर आ रही है और लोग रोजगार, कारोबार, विकास दर के बारे में वो सवाल पूछ रहे हैं जो देखने सुनने में भले ही आम लगें, लेकिन दरअसल हैं अर्थव्यवस्था से जुड़े हुए।
इसीलिए मंगलवार को सरकार की तरफ से संदेश दिया गया कि देश की आर्थिक सेहत एकदम दुरुस्त है, बैंकों को उबारने के लिए सवा दो लाख करोड़ की मदद दी जा रही है, लाखों करोड़ की सड़के बन रही हैं और जीएसटी का ट्रांजिशन फेज चल रहा है, इसे गब्बर सिंह टैक्स देने वालों को इसकी समझ नहीं है।
दरअसल यह सार है वित्त मंत्री की उस प्रेस कांफ्रेंस का जो उन्होंने हड़बड़ी में बुलाई थी। प्रेस कांफ्रेंस के दौरान हड़बड़ी और अटपटापन साफ झलकता रहा। लेकिन यह प्रेस कांफ्रेंस बुलाई ही क्यों गई थी, इसका कोई खुलासा या कारण सामने नहीं आया है। हो सकता है वित्त मंत्री को भी न पता हो कि आखिर इस प्रेस कांफ्रेंस की जरूरत क्यों थी?
इसका कोई साफ कारण सामने नहीं आया है। लेकिन इतना तो जरूर है कि चुनाव आयोग बुधवार यानी 25 अक्टूबर को गुजरात विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान कर सकता है, इसीलिए संभवत: यह प्रेस कांफ्रेंस बुलाकर कुछ घोषणाएं की गईं। दरअसल बीते दिनों अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर सरकार की हालत खराब हो गई है। सरकार को जवाब देते नहीं सुझा रहा है। और जो जवाब सरकार ने दिए भी हैं, उन जवाबों पर ही नए सिरे से सवाल खड़े हो गए हैं। यूं भी राहुल गांधी और दूसरे विपक्षी दल लगातार सवाल उठा रहे हैं। 8 नवंबर को नोटबंदी का एक साल पूरा होने पर विपक्ष काला दिवस भी मनाने जा रहा है। माना जा रहा है कि इन्हीं वजहों से सरकार ने यह प्रेस कॉन्फ्रेंस की।
इसका मतलब यही है कि मोदी सरकार ने मान लिया है कि अगला लोकसभा चुनाव सिर्फ राजनीतिक मुद्दों पर नहीं, बल्कि अर्थव्यवस्था के मुद्दे पर भी आधारित होगा। फौरी तौर पर देखें तो सरकार के दिमाग पर गुजरात के चुनाव हावी हैं।
करीब सौ मिनट तक चली पॉवर प्वाइंट प्रेजेंटेशन वाली इस पूरी प्रेस कॉन्फ्रेंस की सबसे बड़ी सुर्खी थी मोदी कैबिनेट के कुछ फैसले। इन फैसलों में सड़क निर्माण परियोजनाओं पर 7 लाख करोड़ रुपए का खर्च और सरकारी बैंकों को नए सिरे से पूंजी मुहैया कराने यानी रिकैपिटलाइजेशन के लिए 2.11 लाख करोड़ रुपए की सहायता। वैसे ध्यान दें तो सरकारी बैंकों की ये मदद पहले की घोषणाओं की ‘रिपैकेजिंग’ ही है।
इस प्रेस वार्ता में, वैसे इसे वार्ता कम और सरकारी संदेश संदेश कहना ज्यादा उचित होगा, वित्त मंत्री आंकड़ों की बाजीगरी दिखाते ही नजर आए। सड़क से लेकर रेलवे तक और बंदरगाहों से लेकर गांवों की सड़क योजनाओं तक। हर आंकड़े की व्याख्या की गई। इतना ही नहीं पहले से घोषित सौभाग्य और उज्जवला जैसी योजनाओं की खूबियां भी गिनाई गईं।
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आम तौर पर अंग्रेजी में ही संवाद करने वाले वित्त मंत्री के साथ ही उनके अधीन विभागों के सचिव भी हिंदी में भी बात करते और जवाब देते नजर आए। सड़क निर्माण परियोजनाओं के बारे में बताया गया कि अगले 5 सालों में करीब 84 हजार किलोमीटर सड़कें और हाईवे बनाए जाएंगे, जिसमें से ‘भारतमाला’ परियोजना पर 5.35 लाख करोड़ का खर्च होगा।
यहां चुनावी जुमलों का इस्तेमाल किया गया और बताया गया कि ‘भारतमाला’ प्रोजेक्ट से 14.2 करोड़ दिनों का रोजगार पैदा होगा।
इस मुद्दे पर सरकार ने अपने उस फार्मूले को अपनाया, जिसके लिए मोदी सरकार माहिर है, यानी पुरानी योजनाओँ की रिपैकेजिंग, रिनेमिंग और रिब्रांडिग। ऐलान किया गया कि सरकारी बैंकों को 2.11 लाख करोड़ की मदद मिलेगी। लेकिन इसमें से बैंक 1.35 लाख करोड़ रुपए बॉन्ड के जरिए जुटाएंगे, बाकी 76,000 करोड़ रुपए बाजार और बजटीय सहायता से मिलेंगे। लेकिन ध्यान दिया जाए तो यह तो सिर्फ तकनीकी मदद है, न कि असलियत में बैंकों को पैसा दिया जा रहा है। इसका अंदाजा इसी बात से लग सकता है कि वित्त मंत्री ने खुद ही कह दिया कि बॉन्ड की बारीकियों पर अभी विचार चल रहा है, जिसका ब्योरा बाद में देंगे।
प्रेस कांफ्रेंस के अंत में जब जेटली अपनी बात खत्म कर रहे थे, तो अचानक उन्हें ध्यान आया कि आंकड़ों के इस जाल और मोटी-मोटी आर्थिक शब्दावली के इस्तेमाल में वह तबका तो रह ही गया जिससे वोट वसूले जाते हैं। तब वित्त मंत्री ने कहा कि बैंकों को पूंजी मिलने के बाद एमएसएमई यानी छोटे और मझोले उद्योग-धंधों और कारोबारों को कर्ज देने के कहा जाएगा।
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ध्यान रहे कि यही वह सेक्टर है जो नोटबंदी और जीएसटी से सबसे ज्यादा परेशान है। चुनावी नजरिए से यही सेक्टर सबसे अहम भी है। इसीलिए पूरी प्रेस कांफ्रेंस के दौरान यह प्रभाव देने की कोशिश की गई कि सरकार के इन कदमों से रोजगार पैदा करेंगे, बाजार में सामान की नई मांग बनेगी, कारोबार करने का माहौल सुधरेगा और आम आदमी की जिंदगी आसान होगी।
दरअसल अपने अहंकार और बड़बोलेपन में मोदी सरकार इस गलतफहमी में आ गई है कि करीब 43 महीने सरकार चलाने के बाद भी पुरानी सरकारों की नाकामी गिनाकर लोगों को भ्रमित किया जा सकता है। उसे यह गलतफहमी भी है कि गौरक्षा, धर्म, राष्ट्रवाद आदि के नाम पर खेले जाने वाले भावनात्मक कार्ड हमेशा चलते रहेंगे।
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इसी गलतफहमी और अहंकार में वह भूल गई कि जब गरीब के पेट में रोटी न हो, युवा के पास रोजगार न हो, मध्यम वर्ग के पास खर्च करने को पैसे न हों, छोटे और मझोले कारोबारी का कामकाज ठप हो, तो मजबूत से मजबूत सरकार का अहंकार भी टूट जाता है और जनता माफ नहीं करती है। मोदी सरकार यह भी भूल गई कि अर्थव्यवस्था और उलझे हुए गंभीर आंकड़ों वाली देश की आर्थिक सेहत भले ही अच्छे संकेत देती हो, लेकिन खाली जेब और लगी-लगाई नौकरी छूटने की तकलीफ इन संकेतों को नकार देती है।
मंगलवार की प्रेस कांफ्रेंस में सरकार की यही घबराहट और चिंता नजर आई। शायद इसीलिए वित्त मंत्री और उनके कई विभागों के सचिव यही बताते दिखे कि आर्थिक मोर्चे पर सबकुछ सही है। लेकिन, लोगों को यकीन तब होगा, जब यह बातें पॉवर प्वाइंट प्रेजेंटेशन की स्लाइडों से निकलकर हकीकत का रूप लेंगी।
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