केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) के चालू वित्त वर्ष 2019-20 के सकल घरेलू अनुमानों से आगामी बजट की तैयारियों और वित्तीय आकांक्षाओं को तेज धक्का लगा है और उसने मोदी सरकार की दिक्कतों को चरम पर पहुंचा दिया है। मोदी सरकार की आर्थिक निर्णय और नीतियां अर्थव्यवस्था के तमाम सेक्टरों और आर्थिक संकेतकों को गर्त में पहुंचाने में अव्वल नजर आ रही है। सीएसओ के अग्रिम अनुमान के अनुसार, वित्त वर्ष 2019-20 में वास्तविक विकास दर (महंगाई रहित) 5 फीसदी रहेगी जो पिछले दस सालों में सबसे कम है। इससे भी आतंकित करने वाली खबर यह है कि नॉमिनल (सामान्य) विकास दर 7.5 फीसदी रहेगी जो पिछले 42 सालों में सबसे कम है।
सामान्य विकास दर में महंगाई दर शामिल रहती है और इसके आधार पर ही सरकार अपने राजस्व संग्रह और सरकारी घाटे के लक्ष्यों को निर्धारित करती है। विकास दर के अग्रिम अनुमान और बढ़ती महंगाई से अब मोदी सरकार पर आगामी बजट में आय-मांग में वृद्धि के लिए टैक्स तथा अन्य आर्थिक राहत देने और निवेश बढ़ाने का दबाव बढ़ गया है। अभी समाप्त दिसंबर में खुदरा महंगाई दर मोदी राज के पिछले छह साल के सर्वोच्च स्तर 7.35 फीसदी पर पहुंच गई है, जिससे मोदी सरकार की आर्थिक कठिनइयां चार गुनी बढ़ गई हैं।
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सीएसओ के अनुसार, चालू वित्त वर्ष 2019-20 की दूसरी छमाही (अक्टूबर, 2019 से मार्च, 2020) में विकास दर मामूली सुधार के साथ 5.2 फीसदी रहेगी जो पहली छमाही (2019 में अप्रैल से सितंबर) में 4.8 फीसदी थी, यानी पूरे वित्त वर्ष में 5 फीसदी। पर सीएसओ के विकास दर के अग्रिम अनुमान के रेकॉर्ड अच्छे नहीं रहे हैं। पिछले साल जनवरी में वित्त वर्ष 2018-19 के लिए सीएओ ने विकास दर का अग्रिम अनुमान 7.2 फीसदी आंका था जो असल में 6.8 फीसदी ही रह गया। अनेक गैरसरकारी अर्थ विशेषज्ञों का कहना है कि इस वित्त वर्ष में विकास दर 5 फीसदी से कम ही रहेगी।
अर्थव्यवस्था के विभिन्न सेक्टरों की वृद्धि दर के जो अग्रिम अनुमान सामने आए हैं, उनसे किसी की भी चिंता का बढ़ना स्वाभाविक है। इस वर्ष में कृषि की वद्धि दर 2.8 फीसदी रहेगी जो पिछले चार सालों में सबसे कम है। विनिर्माण (मैन्यूफैक्चरिंग) की वृद्धि पिछले साल के वृद्धि दर 6.9 फीसदी से घटकर महज 2 फीसदी रह जाने का अनुमान है। यह पिछले 15 सालों में सबसे कमजोर वृद्धि दर है। कंस्ट्रक्शन सेक्टर में वृद्धि दर के 3.2 फीसदी रह जाने का अनुमान है, जो पिछले 5 सालों में सबसे कम है। निजी उपभोग का भी 8.1 फीसदी से गिर कर 5.8 फीसदी रह जाने का अनुमान है जो पिछले 6 सालों का सबसे कमजोर उपभोग स्तर है। इसका सीधा असर सकल पूंजी निर्माण पर पड़ा है जिसके 10 फीसदी से घटकर इस साल महज 1 फीसदी रह जाने का अनुमान है जो पिछले 16 सालों में सबसे कम है। कृषि, कंस्ट्रक्शन और मैन्यूफैक्चरिंग देश में सबसे ज्यादा रोजगार देने वाले क्षेत्र हैं। इन क्षेत्रों की वृद्धि दर गिरने का सीधा असर बेरोजगारी दर पर पड़ा है जो पिछले 45 सालों के शीर्ष पर है।
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आय के सारे अनुमान ध्वस्त- नॉमिनल विकास दर कम होने का सबसे ज्यादा असर सरकारी आय पर पड़ता है जिसे बजट में ‘प्राप्तियां’ कहा जाता है। वित्त वर्ष 2019-20 के जो आधिकारिक ब्यौरे सामने आए हैं, उनके अनुसार कर राजस्व और विनिवेश प्राप्तियों के अनुमान सिरे से लड़खड़ा गए हैं। चालू वित्त वर्ष की पहली छमाही, यानी सितंबर तक प्रत्यक्ष कर संग्रह में महज 5 फीसदी वृद्धि हुई है जबकि बजट में अनुमान 17 फीसदी वृद्धि का था। इस कर संग्रह का अंतर और बढ़ सकता है क्योंकि सितंबर महीने में आर्थिक धीमेपन को दूर करने के लिए मोदी सरकार ने कॉरपोरेट टैक्स में ऐतिहासिक राहत दी थी। इससे कर संग्रह में 1.45 लाख करोड़ रुपये का नुकसान होने का अनुमान है।
कम खपत और उपभोग में कमी का प्रभाव जीएसटी संग्रह पर पड़ा है। जीएसटी संग्रह में 12 फीसदी वृद्धि हुई है जबकि बजट में 15 फीसदी वृ्द्धि का अनुमान लगाया था। पर सीजीएसटी (सेंट्रल जीएसटी) के कर संग्रह में ज्यादा तेज गिरावट आई है। जीएसटी के इस हिस्से का संग्रह केवल केंद्र सरकार के खाते में जाता है। इसका राज्यों और केंद्र के बीच बंटवारा नहीं होता है। अप्रैल-दिसंबर की अवधि में 3.72 लाख करोड़ रुपये का सीजीएसटी संग्रह हुआ है जबकि लक्ष्य इस अवधि में 5.26 लाख करोड़ रुपये का था, यानी इस मद में दिसंबर तक लक्ष्य से तकरीबन 40 फीसदी कम संग्रह हुआ है। देश में कम आयात के कारण सीजीएसटी में यह तीखी गिरावट दर्ज हुई है।
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केंद्र सरकार की आय का एक बड़ा स्रोत विनिवेश है। पिछले दो वित्त वर्षों में सरकार विनिवेश के लक्ष्य से अधिक उगाही में सफल रही थी। इससे सरकार अति आत्मविश्वास से लबालब भरी थी। सरकार ने 1.02 लाख करोड़ रुपये विनिवेश का लक्ष्य इस साल रखा था, जबकि इस मद में वह दिसंबर तक तकरीबन 18 हजार करोड़ रुपये ही जुटा सकी है। इस वित्त वर्ष में मार्च तक एयर इंडिया, बीपीसीएल और कॉनकॉर में बड़ा विनिवेश होना था। पर अब सरकार ने खुद ही आस छोड़ दी है कि यह विनिवेश निर्धारित समय-सीमा यानी मार्च तक हो पाएगा। विनिवेश का जिम्मा डिपार्टमेंट ऑफ इनवेस्टमेंट एंड पब्लिक एसेट मैनेजमेंट का होता है जिसका नाम बड़े गाजे-बाजे के साथ ‘दीपम’ रखा गया था। पर इस विभाग में एक ही साल में दो बार सचिव स्तर पर फेरबदल होने से अफरा-तफरी का माहौल रहा जिससे विनिवेश की योजना लक्ष्य से काफी पिछड़ गई है।
कहां रुकेगा सरकारी घाटा
भारतीय रिजर्व बैंक से 1.76 लाख करोड़ रुपये की एकमुश्त राशि मिलने के बाद भी सरकारी व्यय और आय (राजकोषीय या सरकारी घाटा) का अंतर नवंबर महीने के अंत तक लक्ष्य से अधिक रहा है। इस अवधि (अप्रैल-नवंबर) में सरकारी घाटा 8.07 लाख करोड़ रुपये रहा है, जबकि पूरे साल के लिए सरकारी घाटे का लक्ष्य 7.03 लाख करोड़ रुपये (जीडीपी का 3.3 फीसदी था) जो कुल सरकारी घाटे के लक्ष्य से 15 फीसदी अधिक है। पर अब नॉमिनल विकास दर कम होने से बजटीय आय-व्यय के अनुमान जस के तस भी रहते हैं, तब भी सरकारी घाटा जीडीपी के 3.3 फीसदी को लांघ जाएगा क्योंकि बजट में कुल जीडीपी का आकलन 12 फीसदी नॉमिनल विकास दर पर 2,11,00,607 करोड़ रुपये आंका गया था, जो अब 7.5 फीसदी विकास दर के अनुमान से 2,04,42,233 करोड़ रुपये रह जाएगा। 3.12 फीसदी कम जीडीपी होने के कारण खुद ही निर्धारित सरकारी घाटा 3.3 फीसदी से बढ़कर 3.95 फीसदी हो जाएगा। लेकिन कम राजस्व संग्रह और विनिवेश के कारण अनेक अर्थ विशेषज्ञों का आकलन है कि इस वित्त वर्ष में सरकारी घाटा 4 फीसदी से अधिक रहेगा।
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ऐसा नहीं है कि सरकार बढ़ते बेकाबू सरकारी घाटे से वाकिफ नहीं है। इसीलिए वित्त वर्ष की शेष अवधि जनवरी-मार्च में सरकारी व्यय पर अंकुश लगाने के लिए कुछ नए सरकारी दिशा-निर्देश जारी किए गए हैं। वित्त मंत्रालय ने सभी सरकारी विभागों से कहा है कि जनवरी-मार्च की अवधि में वे बजट आवंटन का 25 फीसदी ही खर्च कर सकते हैं। पहले यह व्यय सीमा 33 फीसदी थी। ऐसे ही जनवरी-फरवरी के लिए व्यय सीमा 18 फीसदी से घटाकर 15 फीसदी कर दी गई है। इसी प्रकार वित्त वर्ष के आखिरी महीने मार्च में सरकारी व्यय की सीमा 15 फीसदी से घटाकर 10 फीसदी कर दी गई है। इस व्यय कटौती से सरकार सरकारी घाटे को निर्धारित 3.3 फीसदी तक सीमित कर पाएगी, इसमें संदेह है क्योंकि कुछ ऐसे बड़े राजस्व खर्च हैं जिनमें कटौती करना असंभव है, जैसे ब्याज भुगतान (3.41 लाख करोड़ रुपये), आर्थिक सहायता यानी सब्सिडी (2.35 लाख करोड़ रुपये)। किसानों को नकद आर्थिक सहायता (75 हजार करोड़ रुपये) और रक्षा खर्च (3.11 लाख करोड़ रुपये) में कोई व्यय कटौती करने से सरकार परहेज ही करेगी।
कॉरपोरेट जगत को निगम कर में भारी राहत देकर सरकार ने आम कर दाताओं की टैक्स राहतों की उम्मीदों को बढ़ा दिया है जिसको जाने-माने अर्थ विशेषज्ञों और बड़े औद्योगिक संगठनों का भरपूर समर्थन मिल रहा है। अरसे से आयकर मुक्त सीमा में कोई बढ़ोतरी नहीं की गई है। जाहिर है, चालू बजट की काली छाया आगामी बजट पर अवश्य पड़ेगी। अवास्तविक बजटीय आकलन, बजट घाटे को कृत्रिम रुप से सीमित करने की कारगुजारी से बजट की विश्वसनीयता पर गहरी आंच आई है। बजट को अधिक विश्वसनीय, पारदर्शी बनाने की नितांत आवश्यकता है। तभी बजट के व्यय-आय का अपेक्षित प्रभाव अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। मांग, खपत, रोजगार, निवेश को बढ़ाने के लिए क्या उपाय सरकार आगामी बजट में करती है, इस पर अर्थव्यवस्था की चाल-ढाल निर्भर करेगी।
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