अगर यह घुमावदार चक्र नहीं है तो अर्थव्यवस्था ढलान की राह पर है। प्रधान मंत्री और उनके वित्त मंत्री सिर्फ ‘चीयर लीडर’ के तौर पर बेहतर हो सकते हैं, क्योंकि कुछ और करने के लिए उनके पास बहुत कम समय बचा है। पेट्रोलियम उत्पादों पर उत्पाद शुल्क में कटौती कर उन्होंने उस आखिरी मौके का इस्तेमाल कर लिया है। अब कच्चे तेल की कीमतों में जैसे ही थोड़ी नरमी आएगी उन्हें फिर से पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद शुल्क बढ़ाना होगा।
भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने पहले ही संकेत दे दिया है कि ब्याज दरों में गिरावट की समीक्षा हाल में होने की कोई संभावना नहीं है। केंद्रीय बैंक ने यह भी संकेत दिये हैं कि प्रोत्साहन पैकेज दिये जाने की कोई गुंजाइश नहीं है।
पेट्रोलियम उत्पादों पर सरकार द्वारा शुल्क कम करने के फैसले ने उपभोक्ताओं के लिए कीमतों को मामूली रूप से कम कर दिया है। लेकिन यह राहत सिर्फ थोड़े वक्त के लिए है, जब तक कि सरकार इन कीमतों के फिर से संशोधित नहीं करती है। फिहलाल सरकार के इस कदम से जहां उपभोक्ताओं को कुछ समय के लिए राहत मिलेगी, वहीं कीमतों में कमी आने पर बढ़ती राजकोषीय चिंताएं सरकार को फिर से शुल्क में बढ़ोतरी करने के लिए मजबूर कर सकती हैं।
उत्पाद शुल्क में दो रुपये की कमी का अर्थ शेष वर्ष के राजस्व में 13,000 करोड़ रुपये का नुकसान होगा। यह बात ध्यान में रखते हुए कि सरकार अगस्त में ही राजकोषीय घाटे के लक्ष्य के 96 फीसदी तक पहुंच चुकी है, अब सरकार के पास बहुत ज्यादा मौका नहीं बचा है। यह सिर्फ थोड़े समय की बात है, उसके बाद फिर सरकार को करों में बढ़ोतरी करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।
जब इस फैसले की घोषणा हुई तो 20 जुलाई और 3 अक्टूबर के बीच भारतीय क्रूड बास्केट की कीमत करीब 18 फीसदी बढ़ गई और पेट्रोल की कीमतों में 6.51 रुपये प्रति लीटर की भारी बढ़ोतरी हो गई, जिसने जुलाई 2013 के स्तर को छू लिया, जब कच्चे तेल की कीमतें वर्तमान दर की तुलना में 74 प्रतिशत ज्यादा थीं।
हाल के दिनों में बढ़ती मंहगाई से एक राजनीतिक हलचल पैदा हुई और मंदी से बुरी तरह प्रभावित बीजेपी का मूल आधार, मध्यवर्ग सरकार के खिलाफ आवाज उठाने लगा। इसने सरकार को करों में कटौती करने के लिए मजबूर कर दिया, ताकि चुनावी वर्ष में वह खेल में बरकरार रह सकें। लेकिन सरकार यह जानती है कि उसने उसी एकलौते इक्के को दांव पर लगा दिया है जो कि उनके पास आखिरी बचा था।
ऐसे समय में जब अर्थव्यवस्था के अन्य सभी क्षेत्रों में मंदी है, पेट्रोलियम उत्पादों पर कर से लगभग 2.5 से 3 लाख करोड़ रुपये का राजस्व आ रहा है। अर्थव्यवस्था की खराब हालत और निजी निवेश नहीं आने की स्थिति में भविष्य का विकास इस बात पर निर्भर करता है कि सरकार मांग को बढ़ाने के लिए कितना पैसा लगा सकती है। स्पष्ट तौर पर, सरकार के पास प्रोत्साहन पैकेज देने के लिए तब तक पैसा नहीं है, जब तक कि वह वित्तीय घाटे की लक्ष्मण रेखा को पार करने का फैसला नहीं करती है, जिसके अपने नतीजे होंगे।
अगर सरकार जमीनी स्तर पर किसी तरह का बदलाव दिखाने में सक्षम हो, तो उसे मुद्रास्फीति में 1 प्रतिशत की संभावित वृद्धि के बारे में चिंतित नहीं होना चाहिए। लेकिन 40,000 करोड़ रुपये का प्रोत्साहन पैकेज जमीन पर महत्वपूर्ण प्रभाव लाने के लिए पर्याप्त नहीं है। सरकार द्वारा घोषणा करने और जमीन पर पैसे पहुंचने के बीच समय का अंतराल होगा। चुनावों में बस एक साल बचे होने के कारण सरकार के हाथों में शायद ही समय बचा है।
इन परिस्थितियों में, एयर इंडिया की बिक्री, पवन हंस और एनपीसीआईएल में रणनीतिक विनिवेश और जीआईसी, न्यू इंडिया एश्योरेंस जैसी कंपनियों के सूचीकरण का फैसला सरकार को इस वित्तीय वर्ष में 72,500 करोड़ रुपये के महत्वाकांक्षी विनिवेश के अपने लक्ष्य के करीब पहुंचने में मदद कर सकता है, लेकिन इसका बहुत हद तक सकारात्मक असर नहीं दिखाई पड़ रहा है।
जीएसटी एक महत्वपूर्ण समस्या बना हुआ है क्योंकि अभी यह देखना है कि सरकार को इससे कितना राजस्व मिलेगा और राजस्व में संभावित गिरावट को इसके द्वारा संभाल लेने का राज्यों से किया गया वादा पूरा करने में यह कितना सक्षम है। सरकार ने संभावित घाटे को पूरा करने के लिए स्वच्छ ऊर्जा अधिभार से 56,700 करोड़ रुपये का स्थनांतरण किया है, लेकिन हमें अभी भी नहीं पता कि हमें किस तरह के घाटे का सामना करना होगा और हमारे राज्यों को किस तरह के अवरोधों का सामना करना पड़ेगा। इधर कांग्रेस शासीत राज्यों के वित्त मंत्रियों ने राज्य के राजस्व संग्रह में भारी गिरावट के संकेत दिये हैं।
यह सब कुछ 2019 के लोकसभा चुनावों के करीब पहुंच रहे देश में सरकार के राजकोषीय प्रबंधन कौशल की परीक्षा लेगा, क्योंकि सरकार के पास ज्यादा वक्त नहीं है। जब तक सरकार को कोई चमत्कार नहीं बचा लेता है, हम सरकार को राजकोषीय घाटे के लक्ष्यों का अतिक्रमण करते हुए देख रहे हैं।
राजकोषीय घाटे के लक्ष्यों को नजरअंदाज करने के परिणाम के तौर पर एक निवेश स्थल के तौर पर भारत की रेटिंग में गिरावट नजर आने की संभावना है और एक आखिरी चीज जो अब सभी चाहते हैं, वह है भारत की क्रेडिट रेटिंग में गिरावट। विदेशी संस्थागत निवेशकों ने शेयर बाजारों से अगस्त से ही 40,000 करोड़ रुपये से ज्यादा का निवेश वापस निकाल लिया है। इससे अर्थव्यवस्था पतली रस्सी पर झूल रहा है क्योंकि पीई अनुपात का 26 के करीब होने का मतलब है कि बाजारों को अधिमूल्यांकित कर लिया गया है।
मोदी सरकार ने एक चमत्कार का वादा किया था, लेकिन सरकार के पास अब बचे हुए एक साल में दिखाने के लिए कुछ नहीं है और इससे ज्यादा खराब बात यह है कि आखिरी क्षण के चमत्कार के लिए बहुत कम गुंजाइश बची है। इतिहास में मोदी सरकार के कार्यकाल को ऐतिहासिक जनादेश को व्यर्थ करने के रूप में अंकित किया जा सकता है।
Published: 10 Oct 2017, 1:49 PM IST
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Published: 10 Oct 2017, 1:49 PM IST