अर्थतंत्र

भारी आर्थिक मंदी की कगार पर एक तिहाई विश्व, अमेरिका-चीन जैसे साम्राज्यवादी देशों के लिए अवसर

यूक्रेन युद्ध जब शुरू हुआ तब ब्रेंट क्रूड की कीमत 78.25 से 82.82 डॉलर तक थी। रूस पर प्रतिबंधों के बाद तेल की कीमतों में तेजी आई जो 133.18 डॉलर प्रति बैरल तक गई, लेकिन फिर कीमतें तेजी से गिरीं। इसलिए यह नहीं कह सकते कि मुद्रास्फीति की वजह यूक्रेन युद्ध था।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की प्रबंध निदेशक क्रिस्टालिना जॉर्जीवा ने अब खुलकर मान लिया है कि 2023 में वैश्विक अर्थव्यवस्था की रफ्तार इतनी कम होगी कि इसकी एक तिहाई की जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में सिकुड़न देखी जाएगी। इसकी वजह है दुनिया की तीनों आर्थिक महाशक्तियां- अमेरिका, यूरोपीय संघ और चीन- में अर्थव्यवस्था का सुस्त पड़ना। चीन तो कोविड की वजह से ऐसी स्थिति में होगा। जॉर्जीवा का मानना है कि अमेरिका अपने श्रम बाजार के लचीलेपन के कारण अपेक्षाकृत बेहतर प्रदर्शन करेगा और अमेरिकी श्रम बाजार का यही लचीलापन वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए उम्मीद जगाने वाला है।

जॉर्जीवा की टिप्पणियों में दो विडंबनापूर्ण बातें हैं। पहली यह कि आज विश्व अर्थव्यवस्था के लिए यह बड़ी उम्मीद है कि अमेरिका में श्रमिकों की आय में ज्यादा गिरावट नहीं होगी। एक संस्था के लिए जिसने व्यवस्थित रूप से मजदूरी में कटौती की वकालत की है- चाहे वह पारिश्रमिक के रूप में हो या सामाजिक लागत के रूप में, यह एक आश्चर्यजनक किंतु स्वागत योग्य स्वीकारोक्ति है।

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कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि आईएमएफ की स्थिरीकरण-सह-संरचनात्मक समायोजन नीतियां आम तौर पर उन अर्थव्यवस्थाओं के लिए हैं जो संकट में हैं और इसे ध्यान में रखना चाहिए कि यह विकास के लिए ‘रामबाण’ नहीं। इसलिए इससे आईएमएफ की श्रम की समझ में किसी मौलिक बदलाव का संकेत नहीं मिलता। इतना जरूर है कि आईएमएफ जो कह रहा है, वह निश्चित रूप से उससे इतर है, जैसा वह आम तौर पर कहता रहा है।

वह मान रहा है कि अमेरिका का लचीला श्रम बाजार इसके विकास के लिए फायदेमंद है। तो फिर सवाल उठता है: अन्य अर्थव्यवस्थाओं को संकट में होने पर भी लचीले श्रम बाजारों के लिए प्रयास क्यों नहीं करना चाहिए, और आयात नियंत्रण एवं मूल्य नियंत्रण जैसे अन्य प्रत्यक्ष माध्यमों के जरिये संकट का सामना क्यों नहीं करना चाहिए?

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जॉर्जीवा की टिप्पणी में दूसरी विडंबनापूर्ण बात उनका मानना है कि ऐसा लचीला श्रम बाजार, अमेरिकी विकास के लिए फायदेमंद होने के साथ-साथ अमेरिका में मुद्रास्फीति की दर को भी ऊपर बनाए रखेगा जिससे फेडरल रिजर्व बोर्ड को ब्याज दरों में और वृद्धि करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। इसके दो स्पष्ट निहितार्थ हैं। सबसे पहले, इसका मतलब है कि अमेरिकी विकास दर कम प्रभावित होने के बावजूद आने वाले महीनों में संकुचित होगी क्योंकि फेड ब्याज दरों में वृद्धि करेगा।

इस तरह 2023 में अमेरिका जो यूरोपीय संघ और चीन की तुलना में अपेक्षाकृत बेहतर प्रदर्शन करने जा रहा है, वह लंबे समय तक चलने वाली घटना नहीं। चूंकि अमेरिका के खराब प्रदर्शन का पूरी विश्व अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, इसका यह मतलब निकाला जा सकता है कि अगर चीन की कोविड स्थिति में अपेक्षित सुधार नहीं होता तो आने वाले महीनों में वैश्विक मंदी बदतर हो जाएगी। इसका यह भी मतलब हुआ कि भले 2023 में दुनिया के एक तिहाई अर्थव्यवस्था को ही मंदी झेलनी पड़े, इसका बहुत बड़ा हिस्सा बाद में मंदी का शिकार हो जाएगा। यह निश्चित रूप से बेहद भयानक भविष्यवाणी है।

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विश्व बैंक भी पूंजीवादी देशों पर मंडराती जर्बदस्त मंदी और विकासशील देशों के ऊपर पड़ने वाले इसके संभावित असर को लेकर आगाह करता रहा है। सितंबर, 2022 के इसके अध्ययन-पत्र में वर्ष 2023 में विश्व अर्थव्यवस्था के 1.9 फीसद की दर से बढ़ने की उम्मीद थी। आईएमएफ और विश्व बैंक- दोनों ही दुनिया पर मंडराती मंदी की बड़ी वजह यूक्रेन युद्ध और इसके कारण बढ़ी मुद्रास्फीति को बताते रहे हैं। इस मुद्रास्फीति की रफ्तार को थामने के लिए ब्याज दर को बढ़ाना होगा और यही मंदी का एक बड़ा कारण बनेगा।

यह विश्लेषण सही नहीं। यूक्रेन युद्ध से बहुत पहले ही जब विश्व अर्थव्यवस्था ने महामारी से उबरना शुरू किया था, मुद्रास्फीति बढ़ने लगी थी। तब बताया गया था कि महामारी के कारण आपूर्ति श्रृंखलाओं में व्यवधान आने से मुद्रास्फीति बढ़ रही है। हालांकि तब भी तमाम लोग इस तर्क से सहमत नहीं थे। उनका कहना था कि मुद्रास्फीति की वजह आपूर्ति में व्यवधान से ज्यादा बड़ी कंपनियों द्वारा कमी के अनुमान में मोटा फायदा बनाना रहा है। यूक्रेन का युद्ध तो इस पृष्ठभूमि में हुआ था।

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कच्चे तेल की कीमतों का उतार-चढ़ाव इस निष्कर्ष की पुष्टि करता है कि यूक्रेन युद्ध मुद्रास्फीति की वृद्धि की मूल वजह नहीं। ब्रेंट क्रूड की कीमतों में वृद्धि मुख्य रूप से 2021 में हुई जब विश्व अर्थव्यवस्था महामारी से उबर रही थी। वर्ष 2021 के दौरान वृद्धि 50 प्रतिशत से अधिक रही और यह 50.37 से बढ़कर 77.24 डॉलर प्रति बैरल हो गई। 2022 में, जब यूक्रेन युद्ध हुआ, कीमत 78.25 से 82.82 के बीच थी। रूस के खिलाफ प्रतिबंध के तुरंत बाद तेल की कीमतों में तेजी आई, जो 2022 में 133.18 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंची लेकिन फिर कीमतें तेजी से गिरीं। इसलिए यह नहीं कह सकते कि मुद्रास्फीति की वजह यूक्रेन युद्ध था।

सिर्फ ब्रेटन वुड्स संस्थान का विश्लेषण ही त्रुटिपूर्ण नहीं। इससे भी अधिक ध्यान देने योग्य बात यह है कि उन्हें कोई आभास नहीं कि विश्व मंदी कैसे समाप्त होगी। अगर यूक्रेन युद्ध मंदी की वजह है तो उन्हें यह मानकर चलना चाहिए था कि हालात जल्द ही बदल जाने वाले हैं। वैसे, पश्चिमी साम्राज्यवाद युद्ध को खींचना चाहता है ताकि रूस को घुटनों पर लाया जा सके। भले ही उन्होंने युद्ध को समाप्त करने के सवाल पर चुप रहना चुना हो, वे ब्याज दरों को बढ़ाकर और मंदी को दूर करने के अलावा किसी अन्य तरीके से मुद्रास्फीति संकट से निपटने के बारे में कह सकते थे।

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इसी तरह, यहां तक कि विश्व बैंक के अध्यक्ष डेविड माल्पास ने तीसरी दुनिया के ऋणग्रस्त देशों के साथ सहानुभूति व्यक्त की है जो आने वाले महीनों में बुरी तरह प्रभावित होने जा रहे हैं और यहां तक कहते हैं कि उनके कर्ज के बोझ का एक बड़ा हिस्सा खुद उच्च ब्याज दरों के कारण उत्पन्न हुआ है। उनके भाषण में ब्याज दरों को कम करने के पक्ष में एक शब्द भी नहीं है। दूसरे शब्दों में, ब्रेटन वुड्स की दोनों संस्थाएं सहानुभूति तो प्रकट करती हैं लेकिन दुनिया के गरीबों की मदद के लिए ठोस उपाय नहीं करतीं।

यदि पश्चिमी साम्राज्यवाद के ढांचे को बचाए रखना है, तो यूक्रेन युद्ध को जारी रखना होगा, ऐसे में मंदी के अभाव में मुद्रास्फीति को मौजूदा उच्च स्तर पर बनाए रखना अपरिहार्य हो जाता है। इसलिए विश्व पूंजीवाद के इस मार्ग को अपनाने पर हैरानी नहीं होनी चाहिए; मुद्दा इसका विरोध करना है।

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