अर्थतंत्र

बजट 2020ः जुबानी जमा खर्च से नहीं चलती सरकारें, आखिर आंकड़े देखकर भी हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठी है मोदी सरकार

जुबानी जमा खर्च से सरकारें नहीं चलतीं, यह बात अब मोदी सरकार को भलीभांति समझ में आ जानी चाहिए। अगर काम होगा तो आंकड़ों में दिखेगा, लोगों की जिंदगी में झलकेगा। लेकिन हो तब तो।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

समय बजट का हो, तो यह देखना उचित होगा कि विकास और रोजगार संबंधी योजनाओं का क्या हाल है। सरकार के लिए खुद उसके आंकड़े निराशाजनक हैं।

बात शुरू करते हैं स्मार्ट सिटी मिशन से। इसकी शुरुआत 25 जून, 2015 को बड़े तामझाम के साथ की गई। कहा गया कि पांच साल के भीतर देश के 100 शहरों को स्मार्ट बनाया जाएगा। दो साल केवल शहरों का चयन करने में ही बीत गए। जून, 2020 में पांच साल पूरे हो जाएंगे। लेकिन जो शहर स्मार्ट सिटी की फेहरिस्त में शामिल हैं, उनके हालात देखेंगे तो पता चलेगा कि हालात सुधरने की बजाय और बिगड़ गए। निर्धारित लक्ष्य के मुताबिक, 100 शहरों में 2.05 लाख करोड़ रुपये के काम कराए जाने हैं, लेकिन रिपोर्ट्स बताती हैं कि दिसंबर, 2019 तक केवल 15,260 करोड़ रुपये के काम हुए हैं जो केवल 7.45 फीसदी बनता है। काम पूरे तो तब होंगे जब शुरू होंगे, अब तक केवल 1.36 लाख करोड़ रुपये के काम ही शुरू हो पाए हैं। मतलब 70 हजार करोड़ रुपये के काम शुरू ही नहीं हो पाए।

दरअसल, 2012 में किए गए एक सर्वे में पाया गया था कि शहरों में लगभग 2 करोड़ घरों की जरूरत है। 2014 चुनाव में नरेंद्र मोदी जब प्रधानमंत्री के दावेदार थे तो वह देश भर में घूम-घूमकर वादा करते थे कि उनकी सरकार बनी तो देश में दो करोड़ घर बनाए जाएंगे। बीजेपी ने अपने घोषणापत्र में भी कहा कि देश में 2 करोड़ घर बनाए जाएंगे। सत्ता की बागडोर संभालने के बाद राजीव आवास योजना का नाम बदलकर प्रधानमंत्री आवास योजना कर दिया गया और कहा गया कि इस योजना के तहत शहरों में 2022 तक दो करोड़ घर बनाए जाएंगे।

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लगभग दो साल तक दो करोड़ घरों का ही राग अलापा गया, लेकिन जब लगा कि इस लक्ष्य को हासिल करना संभव नहीं है तो चुपचाप लक्ष्य घटाकर एक करोड़ कर दिया गया। पिछले दिनों यह दावा भी कर दिया कि लक्ष्य हासिल कर लिया गया है और 1 करोड़ घर बनाने की मंजूरी दे दी गई है। बीजेपी समर्थक खुश हो सकते हैं कि सरकार ने 1 करोड़ घरों का लक्ष्य हासिल कर लिया है, लेकिन यहां सरकार की चालाकी शायद उन्हें समझ नहीं आएगी।

दरअसल सरकार ने कहा कि एक करोड़ घर बनाने के प्रस्ताव को मंजूरी दी गई है ,यानी अभी केवल प्रस्ताव को ही मंजूरी दी गई है- अब तक एक भी ऐसा फ्लैट नहीं बना है जो किसी गरीब झुग्गी बस्ती वाले को दिया गया है। महाराष्ट्र और गुजरात में लगभग 4 हजार फ्लैट तैयार हैं जो झुग्गी-बस्ती वालों को दिए जाने हैं लेकिन वे उन्हें अब तक नहीं दिए गए हैं। यही नहीं, जवाहरलाल नेहरू अर्बन रिन्यअल मिशन के तहत 2014 से पहले झुग्गी वालों के लिए मकान का निर्माण शुरू हुआ था, उन्हें भी अब तक झुग्गी-बस्ती वालों को नहीं दिया गया है।

दरअसल, 2012 के सर्वे के मुताबिक, दो करोड़ में से लगभग 85 फीसदी घरों की जरूरत आर्थिक रूप से कमजोर (ईडब्ल्यूएस) और निम्न आय वर्ग (एलआईजी) को है। लेकिन मोदी सरकार ने इस स्कीम में मिडिल इनकम ग्रुप और हाई इनकम ग्रुप को शामिल कर उन्हें सब्सिडी बांट दी। इस स्कीम का फायदा बिल्डर्स ने उठाया है। जबकि असली जरूरतमंद को इस स्कीम को फायदा नहीं मिला।

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रोजगार की योजनाएं

स्टार्ट अप इंडियाः मोदी ने प्रधानमंत्री पद संभालने के बाद दावा किया था कि वह युवाओं को जॉब सीकर नहीं, बल्कि जॉब गिवर बनाएंगे, यानी कि नौकरी मांगने वाला नहीं बल्कि नौकरी देने वाला। इसी नाम पर उन्होंने स्टार्ट अप इंडिया का नारा दिया। 15 अगस्त, 2015 को लालकिले की प्राचीर से इस स्कीम की घोषणा की गई और 16 जनवरी, 2016 को इसे लॉन्च कर दिया गया। इसका मकसद देश में अपना काम शुरू करने वाले युवाओं को प्रोत्साहन और सहयोग देना था। लेकिन इस स्कीम के तहत जिन सुविधाओं की घोषणाएं की गई, उसकी प्रक्रिया इतनी जटिल थी कि स्टार्ट अप लगाने वालों को इसका लाभ नहीं मिला।

स्टार्ट अप इंडिया मिशन के संचालन का जिम्मा वाणिज्य मंत्रालय के अधीन काम कर रहे डिपार्टमेंट फॉर प्रमोशन ऑफ इंडस्ट्री एंड इंटरनल ट्रेड (डीपीआईईटी) को सौंपा गया था। डीपीआईआईटी की वार्षिक रिपोर्ट (2018-19) के मुताबिक, 31 मार्च, 2019 तक देश भर में 17, 390 स्टार्ट अप्स की पहचान की गई लेकिन इनमें से केवल 94 को इनकम टैक्स में छूट दी गई।

स्टार्ट अप्स को आर्थिक सहायता देने के लिए 10 हजार करोड़ रुपये का कॉरप्स फंड बनाने की बात थी। 31 मार्च, 2019 तक 2265.70 करोड़ रुपये सिडबी (स्मॉल इंडस्ट्रीज बैंक ऑफ इंडिया) को जारी भी कर दिए गए। लेकिन इसमें से 347 करोड़ रुपये का निवेश करने वाले 196 स्टार्टअप्स को ही फंड जारी किए गए। हालांकि, वार्षिक रिपोर्ट में यह नहीं बताया गया है कि फंड कितना जारी किया गया, बल्कि यह बताया गया है कि इन 196 स्टार्टअप्स में 347 करोड़ रुपये का निवेश किया गया है।

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प्रधानमंत्री रोजगार योजनाः मोदी सरकार 2 अक्टूबर, 1993 से चल रही इस योजना को भी नहीं संभाल पाई। इसके तहत 10वीं और उससे अधिक पढ़े-लिखे बेरोजगार युवाओं को लोन दिया जाता है। शुरू में एक लाख रुपये तक का लोन दिया जाता था। बाद में यह राशि धीरे-धीरे बढ़ती गई और अब 10 लाख रुपये तक का लोन दिया जाता है। लोन पर 15 से 25 फीसदी तक सब्सिडी दी जाती है और कोई गारंटी भी नहीं ली जाती। ऐसा दूसरी किसी योजना में नहीं है।

लेकिन अब इस योजना के तहत बैंक लोन देने से कतरा रहे हैं। इस योजना को अब प्रधानमंत्री इम्प्लॉयमेंट जनरेशन प्रोग्राम के नाम से जाना जाता है। पिछले बजट 2019-20 में प्रावधान किया गया था कि 31 मार्च, 2020 तक 73,241 यूनिट्स लगाई जाएंगी जो 5.80 लाख लोगों को रोजगार देगी। मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि 20 जनवरी, 2020 तक सरकार के पास 3,67,842 आवेदन आए। इसमें से 2,48,565 आवेदन को मंजूरी देकर बैंकों के पास भेजा गया। लेकिन बैंकों ने केवल 42,411 (लगभग 12 फीसदी) आवेदन को ही लोन मंजूर किया। इनमें से भी केवल 34,210 लोगों को ही मार्जिन मनी जारी की गई।

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प्रधानमंत्री मुद्रा योजनाः बेरोजगारों के नाम पर शुरू की गई इस योजना का भी यही हाल है। इसके तहत 50 हजार रुपये से लेकर 10 लाख रुपये तक का लोन दिया जाता है। योजना की शुरुआत पिछले बिहार विधानसभा चुनाव से कुछ समय पहले ही हुई और उस समय की रिपोर्ट बताती हैं कि बिहार में ही सबसे अधिक मुद्रा लोन दिए गए। लगभग चार साल बाद इसके परिणाम देखने को मिल रहे हैं। आनन-फानन में बांटे गए मुद्रा लोन का पैसा वापस नहीं आ रहा है।

बीते 17 दिसंबर, 2019 को केंद्रीय वित्त राज्यमंत्री अनुराग ठाकुर ने राज्यसभा में जानकारी दी कि मुद्रा स्कीम के तहत लगभग 17,251.52 करोड़ रुपये का एनपीए हो चुका है। आलम यह है कि पिछले दिनों रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर शक्तिकांत दास ने बैंक के मुख्य प्रबंधकों के साथ बैठक में मुद्रा स्कीम के तहत दिए जाने वाले लोन में सतर्कता बरतने को कहा।

वैसे, एक रिपोर्ट के मुताबिक, अब तक 1 लाख 85 हजार करोड़ रुपये का मुद्रा लोन जारी करने का दावा तो है, पर इसमें से केवल 20 फीसदी लोन ही बेरोजगारों को दिए गए। शेष 80 फीसदी लोन पहले से कारोबार कर रहे उन लोगों को दिया गया जो बैंक अधिकारी या कर्मचारियों की ‘जान-पहचान’ के थे।

सरकार के समक्ष प्रधानमंत्री मुद्रा स्कीम की समीक्षा का भी मुद्दा है। दावा किया जा रहा है कि इस स्कीम के तहत 18 करोड़ से अधिक लोन बांटे गए हैं, लेकिन यह स्कीम भी बैंक प्रबंधकों की मनमानी का शिकार है। बैंक प्रबंधक नया कारोबार शुरू करने वाले युवाओं या बेरोजगारों को लोन देने से कतराते हैं। रिपोर्ट्स बताती हैं कि केवल 20 फीसदी लोन नया कारोबार शुरू करने वालों को दिया गया। बाकी लोन बैंक प्रबंधकों ने अपने टारगेट हासिल करने के लिए अपने व्यवसायिक ग्राहकों को दे दिया। वहीं, इस स्कीम में एनपीए बढ़ने की रिपोर्ट्स आ रही हैं। संभव है कि बजट में इसका समाधान ढूंढ़ने का प्रयास किया जाए।

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नेट परियोजना

साल 2015 में ग्रामीण क्षेत्रों के लिए भारत नेट परियोजना की शुरुआत की गई। इसका मकसद मार्च, 2019 तक देश की सभी ढाई लाख ग्राम पंचायतों में ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी पहुंचाना था। दावा किया गया था कि ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी पहुंचने के बाद हर गांव में कम-से-कम 100 एमबीपीएस की इंटरनेट स्पीड दी जाएगी। मकसद यह बताया गया कि इंटरनेट के जरिये पंचायतों के माध्यम से ई-गवर्नेंस, ई-एजुकेशन, ई-हेल्थ जैसी सुविधाएं गांवों के लोगों तक पहुंचानी है। इस स्कीम का गांवों को तो फायदा नहीं पहुंच रहा, लेकिन ऑप्टिकल फाइबर बिछाने के नाम पर कुछ गिनी चुनी कंपनियों को जरूर फायदा पहुंच रहा है। 2011 में इस परियोजना की लागत 20 हजार करोड़ रुपये आंकी गई थी। लेकिन चार साल बाद नरेंद्र मोदी सरकार ने जब स्कीम की शुरुआत की तो इस परियोजना की लागत 45 हजार करोड़ रुपये तक पहुंच गई।

यह परियोजना 31 मार्च, 2019 को पूरी हो जानी चाहिए थी। लेकिन उसका स्टेटस 20 जनवरी, 2020 तक यह था कि 1,46,229 गांवों में ओएफसी पहुंची है, इसके अलावा 45,769 ग्राम पंचायतों में वाइफाई इंस्टॉल हो चुकी है, लेकिन केवल 17,370 ग्राम पंचायतें वाइफाई ऑपरेशनल हैं। यानी कि अब तक केवल 17,370 ग्राम पंचायतों को ही इसका फायदा मिल रहा है।

वैसे, ये आंकड़े भी सरकारी हैं, इसलिए जरूरी नहीं है कि जहां वाइफाई ऑपरेशनल दिखाई गए हैं, वहां वाइफाइ काम कर रही हो। यह स्कीम 31 मार्च 2020 तक ही थी। ऐसे में, यदि सरकार ने इसकी अनदेखी की तो जिन गिने-चुने गांवों में वाइफाई मिल भी रही है, उन्हें 1 अप्रैल, 2020 तक शुल्क का भुगतान करना होगा।

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