बजट के नाम से हर किसी की बेचैनी बढ़ जाती है कि राहत मिलेगी या टैक्स का शिकंजा और कसेगा। पर अब आदमी क्या, राज्य सरकारों की बेचैनी भी बढ़ जाती है कि कर राजस्व संग्रह की वृद्धि से उनकी हिस्सेदारी बढ़ेगी या नहीं। जीएसटी के बाद से राज्य सरकारों का टैक्स लगाने का दायरा बेहद सिमट गया है और अब बजट और जीएसटी की ओर ताकना उनकी मजबूरी है। संवैधानिक प्रावधानों के कारण केंद्र को राजस्व संग्रह का एक हिस्सा राज्यों को देना होता है। पर मोदी सरकार ने चालाकी से कुल टैक्स राजस्व तो बढ़ा लिया, लेकिन उसमें राज्यों की हिस्सेदारी कम हो गई जिससे राज्यों की आर्थिक हालत खराब हो रही है।
मोदी राज में सेस (उपकर), सरचार्ज (अधिभार) लगाकर या उन्हें बढ़ाकर आमदनी बढ़ाने का विवादित रास्ता अपना लिया है, जो संघीय ढाचे को कमजोर करता है। संविधान ने टैक्स लगाने के अधिकार केंद्र को ज्यादा दिए हैं, पर उनका विधिवत बंटवारा केंद्र और राज्य में होता है। पर कुछ टैक्स ऐसे हैं जिनका राजस्व केंद्र सरकार अपने पास रख लेती है। सेस और सरचार्ज ऐसे ही टैक्स हैं। केंद्र सरकार इन्हीं टैक्सों का बेजा इस्तेमाल कर संघीय व्यवस्था को खोखला कर रही है। कहना न होगा कि मोदी राज में पेट्रोल और डीजल पर बेइंतेहा शुल्क वृद्धि लूट में तब्दील हो चुकी है।
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पहले प्रदेश विरोधी सेस पर चर्चा। विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी ने 15वें वित्त आयोग को सौंपी एक रिपोर्ट में सेस और सरचार्ज पर सनसनीखेज जानकारी दी है। 2011-12 में कुल टैक्स राजस्व में सेस और सरचार्ज की हिस्सेदारी क्रमशः 7 और 2 फीसदी थी, जो 2018-19 में बढ़कर 11.9 और 6.4 फीसदी हो गई। 2019-20 में इन दोनों टैक्स साधनों से तकरीबन 3 लाख 69 हजार करोड़ रुपये का संग्रह हुआ, जिसमें से एक फूटी कौड़ी राज्यों को नहीं मिली। अनेक राज्यों ने 15वें वित्त आयोग से शिकायत की है कि बढ़ते सेस और सरचार्ज से सकल टैक्स राजस्व में उनको वाजिब हिस्सा नहीं मिल पा रहा।
कैग की रिपोर्ट के मुताबिक, जीएसटी के कारण 17 किस्म के सेस और अन्य कर उसमें समाहित हो गए हैं, फिर भी ऐसे 35 टैक्स अब भी हैं। कैग के अनुसार, 2.7 लाख करोड़ रुपये विभिन्न सेस और सरचार्जों से संग्रहित हुए लेकिन उनमें से नियत विशेष रिजर्व और फंडों में 1.64 लाख करोड़ रुपये हस्तांरित किए गए, बाकी रकम केंद्र सरकार के मनचाहे खर्च के लिए उपलब्ध रही है जो संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन है। कच्चे तेल पर एक सेस है। इसे ऑयल इंडस्ट्री (विकास) सेस कहते हैं। इस सेस से 1.25 लाख करोड़ रुपये जमा हुए लेकिन किसी भी ऑयल इंडस्ट्री (विकास) निकाय को एक कौड़ी नहीं मिली। हेल्थ और एजुकेशन सेस की व्यथा भी यही है।
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कैग के मुताबिक, सेस और सरचार्ज से संग्रहित 2.18 लाख करोड़ रुपये का कोई इस्तेमाल मोदी सरकार नहीं कर पाई। माध्यमिक एवं उच्चतर शिक्षा कोष के 94 हजार करोड़, सेंट्रल रोड फंड के 72 हजार करोड़, नेशनल क्लीन एनर्जी फंड के 44 हजार करोड़ रुपये भारत के समेकित फंड में फालतू पड़े हुए हैं। और तो और, प्रधानमंत्री मोदी के सबसे पसंदीदा कार्यक्रम स्वच्छ भारत अभियान के लिए लगाए सेस के राष्ट्रीय स्वच्छता कोष के तकरीबन 4 हजार 8 सौ करोड़ निष्क्रिय पड़े हुए हैं। सेस लगाने और उनके संग्रह में पारदर्शिता की भारी कमी है जिसके कारण निर्धारित लक्ष्यों के लिए उनका पूरा इस्तेमाल नहीं हो पाता है।
ऐसी कर व्यवस्था से राज्यों को सबसे ज्यादा घाटा है। शिक्षा, स्वास्थ्य और कृषि इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। इन पर कुल खर्च में राज्यों की हिस्सेदारी औसतन 79-86 फीसदी है। लेकिन इन समवर्ती विषयों पर सेस लगाएगी केंद्र सरकार जिनका हिस्सा राज्य सरकारों को नहीं मिलता। इसलिए सार्वजनिक स्वास्थ्य, शिक्षा और कृषि क्षेत्र की हालत दिन-प्रतिदिन संगीन होती जा रही है। इसके बाद भी राज्य सरकारों को केंद्र से मिलने वाला 40 फीसदी फंड केंद्र प्रवर्तित स्कीमों (सीएसएस) के कारण सशर्त होता है, यानी इस राशि को राज्य अपनी जरूरत के हिसाब से खर्च नहीं कर सकते। ये कार्यक्रम केंद्र सरकार बनाती हैं, राज्य उन्हें लागू करते हैं। ऐसे कार्यक्रमों के खर्च में केंद्र और राज्य की हिस्सेदारी 60:40 फीसदी होती है। प्रधानमंत्री ग्रामीण आवास योजना और प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना में नाम केंद्र सरकार का होता है जिसका ढिंढोरा वह चुनावों में पीटती है। ऐसी कुल 29 योजनाएं हैं।
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एक रिपोर्ट के अनुसार, 2019-20 में सेस और सरचार्ज के सकल टैक्स राजस्व में हिस्सेदारी 13.3 फीसदी थी और इनसे 3,69,111 करोड़ रुपये का संग्रह हुआ। यदि इस संग्रह का हिस्सा अन्य करों की भांति राज्यों को मिल जाता तो अधिक आबादी वाले राज्य- बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश का टैक्स राजस्व 7-8 फीसदी बढ़ जाता और अरुणाचल जैसे प्रदेशों का 10 फीसदी। कोविड-19 महामारी से राज्यों के राजस्व में भारी गिरावट आई है और उन्हें भारी आर्थिक तंगी के कारण वेतन बांटने के लिए उधार लेना पड़ा है, क्योंकि केंद्र की तरह टैक्स लगाने या बढ़ाने की राज्य के पास पर्याप्त शक्तियां नहीं हैं।
केंद्र सरकार के पास आय बढ़ाने के तमाम विकल्प हैं। उनमें सबसे आसान है पेट्रोल-डीजल पर टैक्स बढ़ाना। लेकिन इससे भी राज्य सरकारों के हितों पर चोट करने में मोदी सरकार को कोई हिचक नहीं है। पेट्रोल और डीजल के दामों ने अब तक के सारे रेकॉर्ड तोड़ दिए हैं। पेट्रोल-डीजल की कीमत में 69 फीसदी टैक्स होते हैं। मोदी सरकार 2015 से लगातार पेट्रोल और डीजल पर टैक्स बढ़ाने में लगी हुई है। नतीजा यह है कि नेपाल, भूटान, श्रीलंका, बांग्लादेश जैसे पड़ोसी राज्यों में पेट्रोल-डीजल भारत से बहुत सस्ता है। 2013-14 में अंतरराष्ट्रीय बाजारों में कच्चे तेल की कीमतें 100 डॉलर को पार कर गई थी, तब पेट्रोल पर प्रति लीटर उत्पाद शुल्क 9.48 रुपये था जो अब 32.98 रुपये प्रति लीटर हो गया है। 2014 में डीजल पर प्रति लीटर उत्पाद शुल्क था 3.56 रुपये जो अब 31.83 रुपये है।
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महंगे डीजल और पेट्रोल ने लागतों को अस्पर्धी बना दिया है और अर्थव्यवस्था मांग के अभाव के बाद भी महंगाई से त्रस्त है। परिवहन लागत में बेतहाशा वृद्धि से खाद्य महंगाई चरम पर है। 2018 में मोदी सरकार ने दो रुपये उत्पाद शुल्क में कम किए और 6 रुपये अतिरिक्त उत्पाद शुल्क में। पर 8 रुपये का रोड सेस लगाकर उत्पाद शुल्क कटौती के लाभ को खत्म कर दिया क्योंकि उत्पाद शुल्क संग्रह का विभाजन केंद्र और राज्य के बीच होता है, सेस का नहीं। यह संघीय व्यवस्था पर बड़ा कुठाराघात था।
मोदी सरकार ने कोविड-19 महामारी की आपदा को भी क्रूरता के साथ अपने राजस्व बढ़ोतरी के अवसर में बदल डाला। बजट के माध्यम से मार्च में एक संशोधन कर पेट्रोल-डीजल पर विशेष उत्पाद शुल्क बढ़ाने की अपनी शक्ति बढ़ा ली और फिर मई, 2020 में पेट्रोल पर 10 रुपये प्रति लीटर और डीजल पर 13 रुपये प्रति लीटर उत्पाद शुल्क बढ़ा दिया। पर आगामी बजट में क्या वित्त मंत्री बेलगाम सेस, सरचार्ज और पेट्रोल-डीजल के बेहिसाब बढ़े उत्पाद शुल्क से अर्थव्यवस्था में जो विसंगति और असंतुलन पैदा हुआ है, उसको दूर कर का कोई प्रयास करेंगी? ऐसी उम्मीद बेमानी होगी। वैसे, वित्त मंत्री ने बेमिसाल-बेजोड़ बजट पेश करने का भरोसा उद्योगपतियों को दिया है।
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