अर्थतंत्र

अमीरों की अर्थव्यवस्था दुरुस्त करने में लगी है मोदी सरकार, आम लोगों की नहीं

अर्थव्यवस्था में आम आदमी का जिक्र भी नहीं है। बुलेट ट्रेन है, हाईवे हैं, औद्योगिक गलियारे हैं, लेकिन शिक्षा, स्वास्थ्य और कृषि कहीं नहीं है।

फोटो: महेन्द्र पाण्डेय
फोटो: महेन्द्र पाण्डेय 

मौजूदा अर्थव्यवस्था की स्थिति को लेकर कांग्रेस समेत अन्य विरोधी पार्टियों ने आवाज उठाई। डॉ मनमोहन सिंह और पी चिदम्बरम ने अनेक बार रसातल में जाती अर्थव्यवस्था की बात की। अंत में बीजेपी के ही वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा ने मुखर आवाज में मौजूदा अर्थव्यवस्था की खामियों को उजागर किया। हरेक बार सरकार ने अपनी पीठ ठोंकने के अलावा कुछ नहीं किया और गलत आंकड़ों के आधार पर जुमलों की बारिश की। अर्थव्यवस्था की हालत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पहली बार यह आम आदमी के बीच में चर्चा का विषय बन गया। पहले नोटबंदी और फिर जीएसटी की परेशानियों पर लोग बातचीत करते थे, पर अब तो पूरी अर्थव्यवस्था पर बहस शुरू हो गई है। लगभग सभी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने भारत की वृद्धि दर को पूर्वानुमानित दर से कम कर के आंका है।

इस बीच जीएसटी में किसी किस्म की खामियों से इंकार करने वाली सरकार ने इसमें अनेक परिवर्तन कर दिए हैं। राजस्व सचिव ने कहा कि इसमें मौलिक परिवर्तन जरूरी है। पर, सरकार जुमलों के सहारे आत्ममुग्ध होकर विकास के दावे करती रही। जयंत सिन्हा तथ्यों से परे एक लेख के द्वारा अपने पिता यशवंत सिन्हा को जवाब देने के बाद शांत हो गये।

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वित्त मंत्री अरुण जेटली ने फिर एक बार अर्थव्यवस्था की मजबूती का बखान करते हुए भी अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के लिये 9 लाख करोड़ के पैकेज की घोषणा की। फिर से जनता सवाल कर रही है कि यदि सब कुछ ठीक था, जिसकी घोषणा प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री और अन्य मंत्री बार-बार कर रहे थे, तो फिर अचानक यह पैकेज क्यों? नोटबंदी के बाद बिना आंकड़ों के ही जनता के बीच यह बात पहुंचाने की कोशिश की गई कि अब बैंकों में पैसे की कमी नही है, बैंक के पास जरूरत से ज्यादा पैसा आ गया है। सरकार ने यह भी बताया था कि बैंकों से कर्ज लेकर न चुकाने वालों से सख्ती से निपटा जायेगा। अब इसका ठीक उल्टा हो रहा है। जून, 2017 में बैंकों का एनपीए बढ़कर 7.33 लाख करोड़ रूपये हो गया, जबकि मार्च 2015 में यह 2.75 लाख करोड़ रूपये ही था। कर्ज न चुकाने वाले पूंजीपति चैन की नींद सो रहे हैं और सरकार इसके बदले बैंकों की आर्थिक मदद कर रही है।

दूसरी तरफ, सरकार लोगों को रोजगार देने के दावे करती रही। कोई भी परियोजना हो, चाहे वह चले या न चले, करोड़ों लोगों को रोजगार का दावा कर दिया जाता है। अकेले अमित शाह ने अपनी रैलियों में इतने युवाओं को रोजगार दिला दिया होगा, जितनी भारत की जनसंख्या भी नहीं होगी! पीएम मोदी हवा में हाथ लहराकर बताते हैं, “आज का युवा रोजगार मांगता नहीं देता है।” जिस दिन अरुण जेटली ने आर्थिक पैकेज की घोषणा की, रोजगार के दावे अपने आप ध्वस्त हो गये। आर्थिक पैकेज में रोजगार बढ़ाने की भी चर्चा है।

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सरकार में मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने नोटबंदी और जीएसटी की तुलना जूते से की है। उनके अनुसार, “अगर कोई नया जूता लेते है, तो तीन दिन काटता है और चौथे दिन पैर में फिट बैठ जाता है।”

अर्थव्यवस्था में आम आदमी का जिक्र भी नहीं है। बुलेट ट्रेन है, हाईवे हैं, औद्योगिक गलियारे हैं, लेकिन शिक्षा, स्वास्थ्य और कृषि कहीं नहीं है। आम आदमी के बारे में सरकार की सोच तो जयंत सिन्हा के लेख में ही स्पष्ट थी। जयंत सिन्हा ने लिखा था, “हवाई जहाज का किराया आटो रिक्शा से भी कम है।” आप खुद ही समझ जाइये, हवाई जहाज पर कौन चलता है और ऑटो रिक्शा पर कौन?

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