देश के लिए आर्थिक नीतियां बनाते समय कुछ बुनियादी प्रक्रियाएं अपनाई जाती हैं। यह तौला जाता है कि जो नीति बनाई जा रही है उनका क्या असर होगा, कितना खर्च आएगा, दूसरे देशों में ऐसी नीतियों के क्या असर रहे हैं आदि। लेकिन नोटबंदी से पहले ऐसी किसी प्रक्रिया की जरूरत महसूस नहीं की गई। नोटबंदी जैसे फैसले से पहले अर्थव्यवस्था, कारोबार और तकनीकी विशेषज्ञों से सलाह-मशविरा किया जाता है। लेकिन ऐसा आखिर उस फैसले से पहले क्यों नहीं किया गया जिसके तहत देश की 86 फीसदी करेंसी चंद घंटों में गैरकानूनी घोषित कर दी गई।
सलाह के लिए न तो आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन और न ही मौजूदा गवर्नर उर्जित पटेल से मशविरा किया गया। रघुराम राजम ने तो इस फैसले पर लिखा है कि, “एक देश के नाते आपको यह देखना होता है कि ऐसा फैसला लेने के पीछे तर्कसंगत कारण क्या है।” उर्जित पटेल भी नोटबंदी के शुरुआती महीनों में चुप ही रहे। आखिर क्यों?
सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रहमण्यम भी चुप थे। उन्होंने इस फैसले की कड़ी आलोचना की थी। इतना ही नहीं न तो केंद्रीय मंत्री और न ही संसद में विपक्ष के नेताओँ के साथ इस मुद्दे पर कोई सलाह-मशविरा किया गया।
रिजर्व बैंक ने खुद बताया कि नोटबंदी में कुल 15.45 लाख करोड़ मूल्य के नोट अवैध घोषित किए गए थे जिनमें से 15.28 लाख करोड़ मूल्य के नोट बैंकों में 30 जून 2017 तक वापस आ गए। यानी सिर्फ 16000 करोड़ मूल्य के नोट ही वापस नहीं हुए। यह कुल अवैध घोषित करेंसी का महज एक फीसदी है। जब 99 फीसदी नोट कानूनी तौर पर बैंकों से बदल दिए गए तो फिर क्या यह कालेधन को सफेद करने की स्कीम थी। जब इस तरफ वित्त मंत्री का ध्यान दिलाया गया तो उन्होंने कहा कि नोटबंदी का मकसद यह था ही नहीं। तो फिर क्या था?
आरबीआई का कहना है कि सिर्फ 0.0013 फीसदी नोट ही नकली पाए गए और बाकी 99.9987 फीसदी असली। तो क्या नकली करेंसी पर हमले का बहाना झूठा था?
नोटबंदी के बाद से अकेले जम्मू-कश्मीर में ही 50 से ज्यादा आतंकी घटनाएं हुई हैं, जिनमें हमारी सेना के 80 जवान शहीद हुए और 50 से ज्यादा आम लोगों की जान गई। इसके अलावा नोटबंदी के बाद से 17 बड़े नक्सली हमले हुए जिसमें 69 जवान शहीद हुए और कम से कम 86 आम लोगों की मौत हुई। इतना ही नहीं आंतकवादियों और नक्सलियों के पास से लगातार 2000 रुपए के नए नोट बरामद हुए हैं। तो क्या आतंकवाद का बहाना भी झूठा ही था?
नोटबंदी को पूर्व प्रधानमंत्री और जाने-माने अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह ने ‘संगठित लूट’ और ‘कानूनी डकैती’ बताते हुए ‘स्मारकीय गलती’ कहा था। उन्होंने कहा था कि इससे जीडीपी दर कम से कम 2 फीसदी नीचे आ जाएगी। यह भविष्यवाणी सही साबित हुई।
नोटबंदी से आर्थिक अराजकता का माहौल पैदा हुआ जिससे लोगों की खरीदारी की क्षमता लगभग खत्म हो गई, इससे लोगों में एक भय और असुरक्षा की भावना पैदा हुई। अनौपचारिक क्षेत्र की कमर टूट गई, विकास का पहिया थम गया, नौकरियां चली गईं और अर्थव्यवस्था की गाड़ी पटरी से उतर गई।
नोटबंदी के मोदी के ऐलान के साथ ही पूरे कृषि क्षेत्र को लकवा मार गया। सरकार ने बिना किसी कारण के सहकारी बैंकों, प्राथमिक भूमि विकास बैंकों, ग्रामीण ऋण सहकारी समितियों और ग्रामीण विकास बैंकों में पुराने नोट बदलने की इजाजत ही नहीं दी। सरकार के इस कदम का असर आज भी महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और गुजरात जैसे राज्यों में किसानों और कृषि क्षेत्र पर नजर आ रहा है।
सरकार ने नोटबंदी से पहले इस बात पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया कि इससे कानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़ेगी, सर्दी के मौसम में लोग बैंकों के बाहर कतार लगाए खड़े होंगे, तो उनके लिए क्या इंतजाम होने चाहिए, बुजुर्गों-महिलाओं के लिए क्या व्यवस्था होगी, गांवों में कैसे इंतजाम होगा। इस अव्यवस्था के चलते बैंकों की कतारों, काम के बोझ, परेशानी और दिक्कतों से करीब 150 लोगों की जान गई। कुछ राज्य सरकारों के अलावा केंद्र की तरफ से इन लोगों को आजतक कोई मुआवजा नहीं दिया गया।
जिस तरह से नोटबंदी में रिजर्व बैंक, रिजर्व बैंक के गवर्नर और दूसरे अधिकारियों के पास लोगों के सवालों का कोई जवाब नहीं था, उससे लगता है कि नोटबंदी का मकसद इस केंद्रीय बैंक की विश्वसनीयता खत्म करना था।
ये वे सवाल हैं जिनका जवाब मोदी सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को देश को देना है। और इस सबसे ऊपर, इस ‘स्मारकीय गलती’ और ‘संगठित लूट’ के लिए प्रधानमंत्री कब देश से माफी मांगेगे?
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