अर्थतंत्र

अर्थशास्त्रियों को और काले भविष्य का अंदेशा, नहीं संभली सरकार तो अराजकता में बदल जाएगी उभरती अर्थव्यवस्था

लॉकडाउन के महीनों में जीडीपी की सिकुड़न गंभीर हो चुकी है। निर्यात, निवेश और खपत- विकास के सभी तीन इंजनों में अनियंत्रित गिरावट हुई। आधुनिक इतिहास में भारत पहला देश होगा जो इस तरह की मंदी झेलेगा। कम-से-कम तीन या चार साल लग जाएंगे इससे उबरने में।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

भारतीय अर्थव्यवस्था अनियंत्रित गिरावट की ओर है। यह मंदी से भी बुरी गत वाली हालत है। पिछले 73 साल में भारतीय अर्थव्यवस्था में ऐसी दीर्घावधि गिरावट कभी नहीं हुई। अब लगभग हर व्यक्ति ने इस स्थिति को स्वीकार कर लिया है, हालांकि वर्तमान वित्त वर्ष (2020-2021) में जीडीपी में कितनी कमी आएगी, इस बारे में आकलन भिन्न हैं। विश्व बैंक ने इसके 3.2 प्रतिशत होने का अनुमान जताया है जबकि क्रिसिल ने इसे 5 फीसद पर रखा है। भारतीय रिजर्व बैंक के सर्वेक्षण ने 10 जून को सबसे बेहतर तस्वीर सामने रखते हुए कहा है कि अर्थव्यवस्था में सिर्फ 1.5 प्रतिशत की कमी आएगी।

लेकिन कई अर्थशास्त्रियों ने कहा है कि इसका प्रभाव काफी बुरा होने की आशंका है। जेएनयू के सेंटर फॉर इकोनॉमिक स्टडीज एंड प्लानिंग (सीईएसपी) में असिस्टेंट प्रोफेसर सुरजीत दास इस स्थिति को एक परिप्रेक्ष्य में रखते हैं। वह कहते हैं किः ‘चूंकि आर्थिक सेहत रातोंरात तैयार नहीं हो जाती, अगले कुछ तिमाहियों में होने वाली आर्थिक गतिविधियां भी बेहतरी में थोड़ा समय लेंगी। उत्पादन और रोजगार के मद्देनजर जीडीपी को देखते हुए मैं कहूंगा कि 15 और 22 प्रतिशत तक सिकुड़न रह सकता है।’

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दास का यह अनिष्टसूचक आकलन बिना आधार नहीं है। भारत के रिटेल एसोसिएशन के अनुसार, कपड़े, इलेक्ट्रॉनिक सामान, फर्नीचर- जैसे गैरअनिवार्य सामान की बिक्री मई में 80 प्रतिशत तक गिर गई है। यहां तक कि किराना और दवाएं- जैसे अनिवार्य सामान की बिक्री भी 40 फीसद तक गिर गई। सीईएसपी के रिसर्च स्कॉलर्स ने 1,000 लोगों के बीच किए स्वतंत्र देशव्यापी सर्वेक्षण में पाया कि कम-से-कम 80 प्रतिशत लोगों ने एसी, वाशिंग मशीन, टीवी और इस तरह के अन्य सामान, ऑटोमोबाइल और रियल एस्टेट में खरीद की योजनाओं को तो स्थगित कर दिया और घरेलू यात्राओं को भी टाल दिया है।

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प्रख्यात अर्थशास्त्री अरुण कुमार तो लॉकडाउन के महीनों में जीडीपी की सिकुड़न को वस्तुतः और गंभीर देखते हैं। अरुण कुमार कहते हैं: ‘मैं तो कहूंगा कि जीडीपी का लगभग 75 प्रतिशत अप्रैल में और लगभग 65 प्रतिशत मई में धो-पुछ गया। निर्यात, निवेश और खपत- विकास के सभी तीन इंजनों में अनियंत्रित गिरावट हुई। आधुनिक इतिहास में भारत पहला देश होगा जो इस तरह मंदी झेलेगा। कम-से-कम तीन या चार साल लग जाएंगे इससे उबरने में।’

वह आगे कहते हैंः ‘वर्तमान राजस्व वर्ष में जीडीपी का 30 प्रतिशत तक सिकुड़ना तय है। मेरा आकलन है कि अपना जीडीपी 204 लाख करोड़ से गिरकर 130 लाख करोड़ आ जाएगा। जीडीपी अनुपात में टैक्स 16 प्रतिशत से घटकर 8 प्रतिशत रह जाएगा। ऐसी हालत में, सरकार के लिए वेतन भुगतान करना या रक्षा बजट में धन लगाना मुश्किल होगा।’

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इस बात से दास भी सहमत हैं और कहते हैंः ‘मैं सरकार से मनरेगा कार्यक्रम को चतुर्दिक चलाने और इसका विस्तार शहरी क्षेत्र में भी करने की अपील करूंगा। करीब 50 करोड़ लोग शहरी और उपशहरी इलाकों में रहते हैं और काफी सारे गैरवेतनभोगी लोग हैं जो संगठित क्षेत्र में काम नहीं करते। मैं सरकार से मनरेगा के अंतर्गत साल में 100 दिनों के काम की सीमा खत्म करने और ग्रामीण क्षेत्रों में 202 रुपये प्रतिदिन का भुगतान बढ़ाकर 350 रुपये करने और शहरी क्षेत्रों में इसे 450 रुपये रखने का आग्रह करूंगा। जब तक ये लोग दोबारा रोजगार नहीं पाते, ये बिल्कुल जरूरी कदम हैं।’

बैंकों में तरलता बढ़ाना तब तक बेमतलब है जब तक वह धन अर्थव्यवस्था में नहीं पहुंचता। कम दर पर ऋण का फायदा सामान्यतया पहले के ऋण चुकाने में पुराने कर्जदार ही उठाएंगे और यह धन कुल निवेश में काम नहीं आएगा। अर्थशास्त्री कहते हैं कि गैर खाद्य गतिविधियों के लिए ऋण लेने की विकास दर पहले से ही नकारात्मक है। कुमार के पास भी सरकार को देने के लिए सलाह है। वह इसे सर्वाइवल पैकेज कहते हैं।

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वह कहते हैं, “देखिए, कम-से-कम 20 करोड़ लोगों ने अपनी नाकरियां खोई हैं। अगर आप एक परिवार में चार लोग भी मानें, तो सरकार अगर हस्तक्षेप नहीं करती है, तो 80 करोड़ लोग गरीबी और भुखमरी की तरफ जा रहे हैं। वे गरीबी रेखा से नीचे जा चुके हैं।’ कुमार जोड़-घटाव करते हैं कि गरीब और बेरोजगार को बचाए रखने के लिए सरकार को मनरेगा और अन्य स्कीमों में तालमेल बिठाने के बाद अतिरिक्त 15 लाख करोड़ रुपये लगाने की जरूरत होगी। वह कहते हैं कि जो धनी-मानी लोग हैं, वे भी स्टॉक और रियल एस्टेट में अपने निवेश की कीमत तो कम ही पाएंगे।

वह बताते हैं: ‘मुझे लगता है कि उनके धन की कीमत करीब एक तिहाई गिर जाएगी। ऐसी हालत में, संपत्ति कर भी कोई विकल्प नहीं है। आरबीआई से उधार लेना (मोनेटाइज करना) होगा जो बॉण्ड जारी करेगा। पूरे संगठित क्षेत्र के लोगों को तपिश झेलनी होगी और वेतन में कटौती झेलनी होगी। अन्यथा, व्यवस्था ढह जाएगी।’

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जमीनी तथ्य भी इन बातों का समर्थन करते हैं। अप्रैल, 2020 में सरकार का जीएसटी संग्रह पिछले साल की इसी अवधि की तुलना में केवल 15 प्रतिशत रहा। कम मांग और उत्पादन के कारण कॉरपोरेट टैक्स भी गिरेगा। नौकरियां जाने और वेतन में कटौती से आयकर भी कम होगा। ऐसी हालत में मोनेटाइजेशन ही एकमात्र रास्ता है। इंडियन एक्सप्रेस के आइडियाज फॉर इंडिया में जून के पहले सप्ताह में प्रकाशित भारत के पूर्व प्रधान सांख्यिकीविद प्रणब सेन के विस्तृत विश्लेषण में बताया गया है कि भारत की अर्थव्यवस्था न सिर्फ इस साल बल्कि 2021-22 में भी सिकुड़ेगी। यह अध्ययन बताता है कि भारत का सकल जीडीपी 2023-24 तक 2019-20 स्तर पर ही संघर्ष करता रहेगा। यह इस सरकार के कार्यकाल का अंतिम साल होगा।

कुमार समेत कई अन्य लोगों ने भी यही बात दोहराई। सेन कहते हैं: जैसी हालत है, और सरकार 2021-22 के लिए भी व्यय बजट 2020-21 वाला ही रखती है, तो संभव है कि 2021-22 में जीडीपी विकास दर -8.8 प्रतिशत रहे। यह डरावना विचार है क्योंकि इसका मतलब है कि देश को पूरी तरह निराशा में डूबना होगा- आजाद देश के तौर पर इतिहास में पहली बार ऐसा होगा।

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भारतीय अर्थव्यवस्था पहले से ही बुरी हालत में है और अभी वह नोटबंदी और तुरत-फुरत में आधी-अधूरी तैयारी के साथ लागू किए गए जीएसटी के झटकों से उबर भी नहीं पाई थी कि एक और करारा आघात करने को कोविड-19 आ धमका। जब तक सरकार वेतन-मेहनताना आधरित विकास के पैरोकारों की बात नहीं सुनती और अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए तेजी से काम नहीं करती, भारत के सामने खड़ी अकाल, भूख, अपराध में बेतहाशा वृद्धि, सामाजिक अस्थिरता, काननू-व्यवस्था के चरमराने की समस्याओं को टाला नहीं जा सकता।

और उस स्थिति में मोदी सरकार को इस बात के लिए याद रखा जाएगा कि अपार संभावनाओं वाली दुनिया की एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था को उसने कैसे अराजकता में बदल दिया, दाने-दाने को मोहताज कर दिया।

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