अर्थतंत्र

ऐतिहासिक संकट में अर्थव्यवस्था, बचाने के लिए भारी सरकारी निवेश ही एकमात्र उपाय, मोदी सरकार को समझना होगा

आरबीआई के पास जीडीपी के 18 प्रतिशत के बराबर विदेशी मुद्रा भंडार है। उसमें से कम से कम आठ प्रतिशत तो अर्थव्यवस्था में डाला ही जा सकता है, जो मांग बढ़ाने में मदद करेगा, इससे निवेश भी बढ़ेगा और रोजगार के नए अवसर पैदा होंगे, जिससे अर्थव्यवस्था को गति मिलेगी।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

अमेरिका के 31वें राष्ट्रपति हर्बर्ट क्लार्क हूवर और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच अजब समानता है। हूवर का पूरा कार्यकाल मंदी की चपेट में रहा। इसी दौरान 1929-1933 की भयानक मंदी आई, जिसने अमेरिका के समाज और अर्थव्यवस्था पर कहर बरपाया था। मोदी के कार्यकाल में भी भारतीय अर्थव्यवस्था का क्रमिक पतन देखा गया है, जो अब पूरी तरह मंदी की गिरफ्त में है।

दूसरे विश्व युद्ध के बाद ऐसा पहली बार हुआ है जब केवल छह साल पहले दुनिया की सबसे तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में से एक रहे किसी देश की ऐसी हालत हो गई हो। इसमें संदेह नहीं कि कोविड की मार पूरी दुनिया पर पड़ी है, लेकिन हमारे यहां स्थिति कितनी खतरनाक है, इसका अंदाजा हाल ही में आए आंकड़ों से लग जाता है। इसमें शक नहीं कि अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के मैराथन उपाय करने होंगे, अब सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि सरकार क्या करती है।

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वापस हूवर और मोदी पर आते हैं। डराने वाली बात तो यह है कि इन दोनों की समानता यहीं खत्म नहीं होती। जिस तरह हूवर वास्तविकता को स्वीकार करने से इनकार करते रहे, वैसा ही हाल मोदी का है। हूवर के वित्तमंत्री एंड्रयू मेलन ने सितंबर, 1929 में कहा था, “चिंता का कोई कारण नहीं है। समृद्धि का यह सिलसिला जारी रहेगा।” हूवर शासन के तमाम ओहदेदार इसी तरह की बातें करते रहे। इस दौड़ में सबसे आगे खुद हूवर रहे जिन्होंने मई, 1930 में कहा था, “अर्थव्यवस्था को नीचे आए अभी छह माह हुए हैं और मैं भरोसे के साथ कह सकता हूं कि हम सबसे बुरे वक्त से निकल चुके हैं और एक साथ कोशिश करके हम तेजी से स्थिति पर काबू पा सकेंगे।”

उस महामंदी के दौर के तथ्यों और घटनाओं पर गौर करना दिलचस्प है क्योंकि निर्मला सीतारमण, अनुराग ठाकुर -जैसे मोदी सरकार के मंत्रियों से लेकर सरकार की हां में हां मिलाने वाले उद्योगपति जो कुछ भी कह रहे हैं, वह महामंदी के उसी दौर की याद दिला रहा है। ऐसे समय में जब 2020 की पहली तिमाही -अप्रैल से जून- की जीडीपी में 23.9 फीसद की गिरावट आई है और यह अर्थव्यवस्था में 40 प्रतिशत से अधिक के कुल संकुचन की ओर इशारा कर रहा है। फिर भी, सरकार है कि वास्तविकता को मानने को तैयार नहीं। करोड़ों लोगों का रोजगार छिन गया है और उनके परिवारों के पास बुनियादी जरूरतों को पूरा करने का भी साधन नहीं।

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जेएनयू के सेंटर फॉर इकोनॉमिक स्टडीज एंड प्लानिंग (सीईएसपी) के सहायक प्रोफेसर सुरजीत दास कहते हैं, “यह मानते हुए कि अगली दो तिमाहियों के दौरान विकास दर नकारात्मक रहेगी और अंतिम तिमाही में यह सुधरकर शून्य के स्तर पर आएगी, मुझे लगता है कि वार्षिक आधार पर अर्थव्यवस्था में कम-से-कम 20 फीसदी की कमी रहेगी। फिलहाल लगभग तीन करोड़ लोग बेरोजगार हुए हैं और 2020-21 वित्तीय वर्ष के अंत तक कम-से-कम 20 फीसदी कार्यबल, यानी लगभग 9 करोड़ और लोग बेरोजगारों में शामिल हो जाएंगे।”

जेएनयू प्रोफेसर सुरजीत दास ने आगे कहा, “साफ है, यह समय राजकोषीय रूढ़िवाद का नहीं है। जब तक ग्रामीण और शहरी गरीबों के हाथ में पैसा नहीं डाला जाता, मांग नहीं बढ़ेगी। अभी सरकार को रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया से उधार लेकर उसे अर्थव्यवस्था में डालना चाहिए।”

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केंद्र के पास ऐसा नहीं करने का कोई तर्क नहीं है। राजकोषीय घाटे का लक्ष्य पहले ही पूरा नहीं किया जा सका है और जब मांग में जबर्दस्त मंदी की स्थिति हो तो ऐसे में आरबीआई से पैसे उधार लेने से मुद्रास्फीति पर भी प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा। आरबीआई के पास जीडीपी के 18 प्रतिशत के बराबर विदेशी मुद्रा भंडार है। उसमें से कम-से-कम आठ प्रतिशत तो अर्थव्यवस्था में डाला ही जा सकता है जो मांग को बढ़ाने में मदद करेगा और इससे निवेश बढ़ेगा, रोजगार के नए अवसर पैदा होंगे। इसके अलावा अगर भारत की शीर्ष दस कंपनियों की बैलेंस शीट पर नजर डालें तो पता चलता है कि उन्होंने लगभग 10 लाख करोड़ रुपये का भंडार बना रखा है। इसके एक हिस्से को बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में लगाकर अर्थव्यवस्था को गति देने की कोशिश की जा सकती है।

जाने-माने अर्थशास्त्री अरुण कुमार का मानना है कि आगे के लिए ऐसी व्यवस्था बेहतर होगी जिसमें नकदी का सीधे हस्तांतरण हो और लोगों को उनके घर तक अनाज और अन्य बुनियादी जरूरत की चीजें मुहैया कराई जाएं। वह कहते हैं, “चूंकि कीमतें बढ़ रही हैं और लोगों ने रोजगार खो दिए हैं, चिल्लर हस्तांतरण से काम नहीं चलने वाला। लॉकडाउन के शुरू में नौकरशाही और सरकारी मशीनरी को सक्रिय किया जाना चाहिए था। परिवहन विभाग की बसों से लोगों तक अनाज और अन्य जरूरी सामान पहुंचाए जाने चाहिए थे।”

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जेएनयू के सीईएसपी में एसोसिएट प्रोफेसर हिमांशु कहते हैं, “मनरेगा का विस्तार समय की जरूरत है। इसके तहत मजदूरी को भी बढ़ाकर दोगुना किया जाना चाहिए, नहीं तो यह असंगठित क्षेत्र में बेरोजगार हुए लोगों को रोजगार देने में मददगार नहीं हो सकेगा।” सुरजीत दास भी मनरेगा के विस्तार के पक्ष में हैं। वह कहते हैं, “50 करोड़ से अधिक भारतीय अब शहरी और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में रहते हैं। आप उन्हें अनदेखा नहीं कर सकते। आय हानि के मुआवजे के लिए मांग को बढ़ाना होगा। इसका मतलब है कि हर जन-धन खाते में हर माह 7,000-8,000 रुपये आएं, ना कि 500-1000 रुपये।’’

इसके साथ ही, ग्रामीण और शहरी गरीबों को प्रतिदिन 350 रुपये और 450 रुपये प्रति व्यक्ति के हिसाब से भुगतान किया जाना चाहिए। नरेंद्र मोदी सरकार की दिक्कत यह है कि कोविड-19 से पहले ही उसकी नीतियों के कारण अर्थव्यवस्था में ठहराव आ गया था, बल्कि यह कहना बेहतर होगा कि पतन शुरू हो गया था और सरकार ने हालात को सुधारने के गंभीर प्रयास नहीं किए। बाद में, जब कोरोना का संकट छाया तो जहां दुनिया के तमाम देशों ने अपने जीडीपी के 10-20 फीसदी के बराबर प्रोत्साहन पैकेज दिए, मोदी सरकार ने महज 63,000 करोड़ रुपये यानी जीडीपी का केवल एक प्रतिशत निकाला।

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कॉर्पोरेट्स को छूट और कर राहत से हालात नहीं सुधर सकते। कम दरों पर ऋण की सुविधा का इस्तेमाल कॉरपोरेट अपनी महंगी पुरानी देनदारियों को चुकाने में करते हैं और अर्थव्यवस्था की स्थिति वैसी ही रहती है। इस स्थिति का नुकसान दूसरी तरह से होता है। उपभोक्ता मांग गिरती है, तो उत्पादन स्तर अपने आप नीचे आ जाता है और जब उत्पादन कम हो जाता है तो लोगों का रोजगार जाता है।

चूंकि कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई में राज्य सबसे आगे रहे हैं और स्वास्थ्य और शिक्षा- जैसे सामाजिक क्षेत्र राज्यों की जिम्मेदारी हैं, केंद्र को चाहिए कि वह राज्यों को उनके बकाये का भुगतान जल्द से जल्द करे। आरबीआई से उधार लेकर अर्थव्यवस्था में डालने से नई पूंजी का मार्ग प्रशस्त होगा। केंद्र ने राज्यों से कहा है कि वह चालू वित्त वर्ष के लिए उनके जीएसटी बकाये के भुगतान की स्थिति में नहीं है, जबकि केंद्र सरकार तो जीएसटी का बकाया देने को बाध्य है। अर्थव्यवस्था के सुस्त पड़ने के साथ ही जीएसटी संग्रह और गिरने जा रहा है। नौकरियों और रोजगार में कमी होने से आयकर और अन्य अप्रत्यक्ष कर संग्रह में भी काफी कमी आएगी। सरकार को यह समझते हुए अर्थव्यवस्था में धन डालना चाहिए।

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एक रिपोर्ट के मुताबिक, इस साल अप्रैल से जुलाई के बीच लगभग 1.9 करोड़ वतेनभोगी लोगों की नौकरी चली गई। ऐसे में असंगठित क्षेत्र की स्थिति की सहज ही कल्पना की जा सकती है। जरूरत है कि चार-पांच वर्षों के नियोजित व्यय को अगले दो वर्षों में खर्च करें। सार्वजनिक निवेश को बढ़ाकर और आरबीआई से अल्पकालिक उधार लेकर अर्थव्यवस्था को दो साल के भीतर पटरी पर लाया जा सकता है। इसके लिए ठोस योजना होनी चाहिए। हमें मांग को बढ़ाना होगा, बड़े पैमाने पर सरकारी निवेश करना होगा। मोदी सरकार को समझना चाहिए कि यह समय राजकोषीय रूढ़िवाद का नहीं है। दास कहते हैं, “क्रेडिट रेटिंग अब मायने नहीं रखती। जीवन और आजीविका अहम हैं।”

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