पंजाब एंड महाराष्ट्र को-ऑपरेटिव बैंक (पीएमसी बैंक) पर भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की प्रतिबंधात्मक कार्रवाई के बाद से देश के बैंकिंग और वित्तीय सिस्टम के प्रतिआम जनता का विश्वास हिल गया है। इस गहराते अविश्वास का नतीजा है किआरबीआई को देश के लोगों को आश्वस्तकरना पड़ा किदेश का बैंकिंगसिस्टम सुरक्षित और मजबूत है। यह असाधारणघटना है।
महाराष्ट्र की पीएमसी बैंक देश की सबसे बड़ी को-ऑपरेटिव बैंक है। इसकी देश में 135 से अधिक शाखाएं हैं, जिनमें कुछ महाराष्ट्र के बाहर दिल्ली, गोवा, गुजरात आदि राज्यों में हैं। इस बैंक में पिछले 11 सालों से घपला चल रहा था, पर इसकी भनक तक नियामक संस्थानों को नहीं लगी। इस बैंक ने कुल उधारी का 74 फीसदी कर्ज हाउसिंग डेवलेपमेंट इन्फ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड (एचडीआईएल) और उससे संबधित कंपनियों को दे रखा है, जबकि आरबीआई का निर्देश है कि किसी खातेदार को कुल कर्ज का 15 फीसदी से अधिक नहीं दिया जा सकता है। एचडीआईएल और उसकी 44 कंपनियों को दिए गए कर्ज को छुपाने के लिए तकरीबन 21 हजार फर्जी खाते खोले गए। इनमें से कई खाते ऐसे लोगों के थे जो अब इस दुनिया में नहीं हैं। लेकिन इतना बड़ा फर्जीवाड़ा किसी नियामक या ऑडिटर की पकड़ में नहीं आया। अब पता चल रहा है कि एचडीआईएल और पीएमसी के मुखियाओं और डायरेक्टरों में अरसे से सांठ-गांठ चल रही थी।
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नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल में कई राष्ट्रीयकृत बैंकों ने कर्ज न चुका पाने के कारण एचडीआईएल को दिवालिया घोषित करने का मुकदमा दायर कर रखा है। इसके बावजूद पीएमसी बैंक ने तकरीबन 96 करोड़ रुपये का कर्ज इस कंपनी को दिया। पीएमसी बैंक के पूर्व चेयरमैन वारियम सिंह और एचडीआईएल के प्रवर्तक राकेश वाधवान और उनके पुत्र सारंग को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है और उनकी करोड़ों रुपये की कई चल-अचल संपत्तियां जब्त कर ली गई हैं।
लेकिन ताज्जुब ये है कि अब तक बैंक के किसी डायरेक्टर को गिरफ्तार नहीं किया गया है। इसकी वजह यह भी हो सकती है कि ज्यादातर अरबन को-ऑपरेटिव बैंकों में डायरेक्टर स्थानीय नेता होते हैं। पीएमसी बैंक के भी कई डायरेक्टर सत्ताधारी दल बीजेपी से जुड़े बताए जा रहे हैं। इस बैंक में हजारों जमाकर्ताओं की जीवनभर की बचत डूब गई है और अब वे दर-दर भटकने के लिए मजबूर हैं। इन तमाम जमाकर्ताओं ने वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण से मदद की गुहार की, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला।
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कोई भी बैंक हो, उनका अस्तित्व ग्राहकों की जमा राशि के कारण ही है। लेकिन इस देश में बैंकों के जमाकर्ता ही सबसे ज्यादा असहाय और असुरक्षित हैं। बहुत ही कम लोगों को मालूम है कि बैंक के डूबने पर उन्हें अधिकतम एक लाख रुपये ही मिलेंगे, चाहे बैंक में जमा उनकी राशि दो, पांच या पचास लाख ही क्यों न हो। यह एक लाख रुपये वापसी की गारंटी डिपॉजिट इंश्योरेंस एंड क्रेडिट गारंटी कॉरपोरेशन (डीआईसीजीसी) के तहत मिलती है। यह राशि 1994 में निर्धारित की गई थी।
इस मामले में भारतीय बैंकों के जमाकर्ता दुनिया में सबसे ज्यादा असुरक्षित हैं। भारत ब्रिक्स देशों में आता है जिसमें रूस और ब्राजील भी शामिल हैं। ब्राजील में बैंक के डूबने की स्थिति में जमाकर्ता को 22 लाख और रूस में 12 लाख रुपये मिलते हैं, जबकि अमेरिका में यह राशि एक लाख 82 हजार डॉलर (रुपये नहीं), और फ्रांस तथा जर्मनी में एक लाख 8 हजार डॉलर है। यदि प्रति व्यक्ति आय के अनुपात में देखें, तो भारत में 0.7 फीसदी, रूस में 2.2 फीसदी, ब्राजील में 7.4 फीसदी, फ्रांस में 3 फीसदी और अमेरिका में 4.4 फीसदी की राशि बैंक के डूबने की दशा में मिलने की गारंटी है।
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एचडीएफसी बैंक के चेयरमैन दीपक पारेख अरसे से भारतीय बैंक प्रणाली को देख-परख रहे हैं। उन्होंने कहा कि देश का सिस्टम जमाकर्ता और निवेशकों की कमाई को सुरक्षित रखने में सक्षम नहीं है। वित्त क्षेत्र में आम आदमी की मेहनत की कमाई के गलत इस्तेमाल से बड़ा कोई पाप नहीं है। यह क्रूर अन्याय है कि हम कर्ज माफ करते हैं और कॉरपोरेट जगत के कर्ज बट्टे खाते में डालते हैं, जबकि ईमानदार आदमी की बचत की रक्षा के लिए कोई वित्तीय ढांचा नहीं बन पाया है। जिस तरह से बैंकों में धोखाधड़ी के मामले बढ़ रहे हैं, बैंक बिना किसी भय के कॉरपोरेट जगत को लाखों-करोड़ के कर्ज बट्टे खाते डाल रहे हैं, बैंकों का एनपीए बढ़ रहा है, को-आपोरेटिव बैंक राजनीति के अखाड़े बनकर रह गए हैं, उन्हें देखते हुए दीपक पारेख का वक्तव्य बहुत पहले आ जाना चाहिए था।
सभी व्यावसायिक बैंकों ने तीन सालों में खराब कर्जों के 2.75 लाख करोड़ रुपये बट्टे खाते में डाल दिए हैं। लेकिन जमाकर्ताओं की सुरक्षा बढ़ाने में सरकार और बैंकों की सांस फूल जाती है। इसके अलावा भारतीय बैंकों के 8 लाख करोड़ एनपीए में फंसे हुए हैं। इसके साथ ही कर्ज धोखाधड़ी के मामलों में पिछले चार सालों में बेहिसाब बढ़ोतरी हुई है। इस दौरान सभी प्रकार के बैंकों में कर्ज धोखाधड़ी के करीब 9,200 मामले दर्ज हुए जिनमें तकरीबन 77 हजार करोड़ रुपये बैंकों के डूब गए या फंस गए। कर्जों को बट्टे खाते में डालना या एनपीए या धोखाधड़ी का असर बैंकों के मुनाफे और बैलेंसशीट पर पड़ता है जिसका असल नुकसान बैंक के जमाकर्ताओं और निवेशकों को भुगतना पड़ता है। अब बैंक लगभग हर सुविधा का शुल्क ग्राहकों से वसूलते हैं। पहले लगभग यह सब बैंक सुविधाएं निःशुल्क थीं, जैसे एटीएम, चेक बुक आदि। बढ़ते एनपीए और बट्टे खाते का असर बैंकों के लाभ पर पड़ता है जिसका नुकसान सुविधा शुल्क के रूप में ग्राहकों को झेलना पड़ता है।
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सबसे बुरा असर वरिष्ठ नागरिकों पर
बैंकों के कुप्रबंधन का सबसे ज्यादा बुरा असर देश के वरिष्ठ नागरिकों पर पड़ा है। देश में वरिष्ठ नागरिकों के चार करोड़ से अधिक मियादी (सावधि) जमा खाते हैं जिनमें तकरीबन 14 लाख करोड़ रुपये जमा हैं जो जीडीपी का लगभग 7 फीसदी है। जमा धन पर ब्याज दर कम होने से वरिष्ठ नागरिकों का जीवन अधिक कष्टकारी हो जाता है। पिछले दो-तीन सालों में व्यावसायिक बैंकों की मियादी जमाओं पर ब्याज दर में दो फीसदी गिरावट आई है। आर्थिक मंदी और कम विकास को ले कर सरकार की घबराहट साफ दिखाई देती है। उसे लगता है कि ब्याज दरों के कम होने से आर्थिक गतिविधियों में तेजी आएगी। पर नतीजे सरकारी अपेक्षाओं के उलट रहे हैं।
सब जानते हैं कि देश में सामाजिक सुरक्षा न के बराबर है। ऐसी स्थिति में वरिष्ठ नागरिक की ब्याज आमदनी कम होने से उनकी आर्थिक दिक्कतें बढ़ जाती हैं और उन्हें कम खर्च के लिए विवश होना पड़ता है, जिसकी सबसे ज्यादा गाज उनके स्वास्थ्य पर पड़ती है। बढ़ती उम्र में रोग भी बढ़ते हैं और उनका इलाज भी प्रायः महंगा है। दुनिया भर में वरिष्ठ नागरिकों के हितों की सुरक्षा को प्राथमिकता दी जाती है, लेकिन अपने देश में ऐसा कुछ खास नहीं है।
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मेहनतकश लोगों पर भी बचत पर कम ब्याज दरों का प्रभाव पड़ता है। ये लोग बड़ी संख्या में आवर्ती और मियादी जमा के रूप में अपनी बचत बैंक में रखते हैं। लेकिन कम ब्याज से इनकी आमदनी पर भी फर्क पड़ता है जिससे उपभोग स्तर घट जाता है। घटती आमदनी से देश में खपत और उपभोग की कमी आई है जिसका असर अब विकास दर पर साफ दिखाई देता है। पर सरकार है जो हर बचत पर ब्याज दर कम करने पर तुली हुई है।
ये नेताओं की जेबी संस्थाएं
फिलवक्त तो देश के सामने बड़ी समस्या अरबन को-ऑपरेटिव बैंकों के समाधान की है, जिनकी अब कोई उपयोगिता नहीं रह गई है। यह केवल नेताओं की जेबी संस्थाएं बन कर रह गई हैं। नोटबंदी के समय और बाद में भी जिन को-ऑपरेटिव बैंकों ने सबसे ज्यादा धांधली की, उन सब पर देश के नामी-गिरामी नेता या उनके चेले काबिज थे। एक समय जब देश में व्यावसायिक बैंकों का विस्तार कम था, उस समय को-ऑपरेटिव बैंकों की उपयोगिता थी। लेकिन अब तो ज्यादातर गांवों तक व्यावसायिक बैंकों का विस्तार हो चुका है। अब को-ऑपरेटिव बैंक किसी क्षेत्र विशेष या किसी खास उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर रहे हैं।
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देश में 1,500 से अधिक को-ऑपरेटिव बैंक हैं। इन बैंकों की कुल जमा राशि तकरीबन 4 लाख 56 हजार करोड़ रुपये है जो कुल बैंक जमा राशि का 3.87 फीसदी है। इस प्रकार कुल बैंक उधारी में इन बैंकों की हिस्सेदारी 3.20 फीसदी है। अरसे से ये बैंक कुप्रबंधन के पर्याय बन गए हैं। यह मनी लान्ड्रिंग (काले धन को सफेद बनाना) का सबसे बड़ा जरिया बन गए हैं। इसी कारण नेता इन पर काबिज रहना चाहते हैं। इन को-ऑपरेटिव बैंकों पर कब प्रतिबंध लगाने पड़े, इसका किसी को कोई अंदाज नहीं है।
विशेषज्ञों का कहना है कि समय रहते इन बैंकों का मजबूत बैंकों में विलय कर देना चाहिए या स्माॅल फाइनेंस बैंक में तब्दील कर देना चाहिए। इन बैंकों का कुल बैंकिंग कारोबार में वजूद बहुत कम है लेकिन बैंकों की साख को ध्वस्त करने के लिए पर्याप्त है। जैसा कि पीएमसी बैंक के डूबने के बाद देखने को मिला है। स्थिति गंभीर इसलिए भी है कि इन पंक्तियों के लिखे जाने के समय तक, 24 घंटे के अंदर ऐसे तीन लोगों की हार्ट अटैक और अन्य कारणों से मृत्यु हो गई जिनके इस बैंक में खाते थे। ये सभी लोग गहरे तनाव में थे।
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