अर्थतंत्र

कोरोना संकटः पहले से घुटनों पर गिरी वित्तीय प्रणाली बड़े संकट में, आगे की राह में अब अंधेरा ही अंधेरा

पहले नोटबंदी, फिर जीएसटी और बैंकों का बढ़ता एनपीए जैसे कारण भारत की अर्थव्यवस्था की चिंता के लिए पर्याप्त न थे, जो अब पूरी दुनिया को हिला देने वाला कोरोना आ खड़ा हुआ। पहले से ही आर्थिक मोर्चे पर तमाम मुश्किलों से जूझ रहे भारत के लिए यह बहुत बड़ा झटका है।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

साल 2016 के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था एक के बाद एक तमाम झटकों को झेल रही है। 2016 के 8 नवंबर को लाई गई नोटबंदी से अर्थव्यवस्था को जो नुकसान हुआ, वह विभिन्न कारणों से आगे भी जारी रहा। इसके बाद 1 जुलाई, 2017 को बिना पूरी तैयारी के आनन-फानन में जीएसटी को लागू कर दिया गया। इसके एक साल बाद 2018 के अगस्त में विशालकाय गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनी आईएल एंड एफएस के संकट ने पूरे वित्तीय बाजार को हिलाकर रख दिया और बाजार में तरलता का गंभीर संकट खड़ा हो गय़ा।

अब 2020 के शुरू में ही कोरोना वायरस कोविड-19 ने तमाम देशों में बड़ी संख्या में लोगों की जान तो ली ही है, अर्थव्यवस्था के नजरिये से भी भारत समेत पूरी दुनिया में अफरातफरी मचा रखी है। इस बात पर गौर करना जरूरी है कि एक के बाद एक, इन झटकों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को किस तरह प्रभावित किया है।

साल 2016 में जब नोटबंदी के तहत 500 और 1,000 के नोट के प्रचलन पर रोक लगा दी गई तो मूल्य के लिहाज से बाजार में उपलब्ध 86 फीसदी नोट बेकार हो गए थे। यह एक अभूतपूर्व कदम था और इसके पक्ष और विपक्ष, दोनों में ही जबर्दस्त प्रतिक्रिया हुई थी। अब नोटबंदी के तीन साल हो चुके हैं और हमारे पास तमाम आंकड़े हैं, जिनसे अनुमान लगाया जा सके कि उसका हमारी अर्थव्यवस्था पर क्या असर पड़ा- अच्छा भी और बुरा भी।

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लोकल सर्किल नाम का एक प्लेटफॉर्म है जहां लोग अपनी-अपनी बातें रखते हैं। इसने ऑनलाइन सर्वे कराया जिसमें 66 फीसदी लोगों ने बड़ी बेबाकी से कहा कि नोटबंदी के कारण अर्थव्यवस्था और श्रमिकों के रोजगार पर नकारात्मक असर पड़ा है। भारतीय अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले अनौपचारिक क्षेत्र का कामकाज मुख्यतः नकद आधारित होता है और नोटबंदी के कारण इसकी कमर ही टूट गई।

जरा सोचिए, जो क्षेत्र भारत में 81 फीसदी रोजगार देता हो, अगर उसकी बुनियाद खिसक जाए तो इसका असर कितनी बड़ी जनसंख्या के जीवन पर पड़ेगा? बेंगलुरू स्थित अजीज प्रेमजी यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए विश्लेषण के मुताबिक नोटबंदी के बाद वर्ष 2016 से 2018 के बीच 50 लाख लोगों का रोजगार चला गया। अनौपचारिक क्षेत्र में लोगों के रोजगार जाने का असर अन्य आर्थिक गतिविधियों पर भी पड़ा और इसके कारण खपत में गिरावट आ गई, खास तौर पर ग्रामीण इलाकों में। एमएसएमई सेक्टर में काम करने वाले जिन लोगों की नौकरी छूट गई, उन्हें मजबूर होकर अपने गांव लौट जाना पड़ा।

दूसरी ओर, कोरोना वायरस के कारण लोगों के रोजगार पर इतना असर पड़ा है कि उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। बेशक अभी की समस्या संक्रमण को रोकने के लिए उठाए गए कदमों के कारण भी है, लेकिन जब संक्रमण रुक जाएगा और फिर एहतियाती प्रतिबंधों को हटा लिया जाएगा, तब भी टूर-ट्रैवेल, पर्यटन, लॉजिस्टिक्स, रिटेल, हॉस्पिटैलिटी, इंटरटनेमेंट और निर्यात जैसे तमाम क्षेत्रों पर इसका असर इतना व्यापक होगा कि अभी से उसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल है।

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नोटबंदी के कारण जीडीपी पर कितना असर पड़ेगा, इसका ठीक-ठीक अंदाजा लगाना मुश्किल है, क्योंकि केंद्रीय सांख्यिकीय कार्यालय (सीएसओ) के पास अनौपचारिक क्षेत्र से जुड़े आंकड़े नहीं होते और यही वह क्षेत्र है, जिसने नोटबंदी की सबसे ज्यादा मार झेली है। अनौपचारिक क्षेत्र के लाखों-लाख उद्यम जिस असंगठित क्षेत्र के अंग हैं, उनके योगदान का अनुमान सीएसओ संगठित क्षेत्र के आंकड़ों के आधार पर ही करता है।

पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह समेत तमाम अग्रणी अर्थशास्त्रियों का अनुमान है कि नोटबंदी के कारण जीडीपी में करीब 2 फीसदी की गिरावट आ गई होगी। खैर, जहां तक कोरोना वायरस की बात है, ऐसा अंदाजा लगाया जा रहा है कि इसके कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था को करीब 1 फीसदी का नुकसान होगा और वित्त वर्ष 2020-21 के दौरान भारत की विकास दर में 2-3 फीसदी की गिरावट आ जाएगी।

अब बात इसकी कि उन उद्देश्यों का क्या हुआ, जिनके लिए कथित तौर पर नोटबंदी जैसा फैसला लिया गया। नोटबंदी के बाद 500 और 1,000 के 99.3 फीसदी नोट वापस भारतीय रिजर्ब बैंक के पास आ गए तो काला धन पर रोक लगाने का इनका मुख्य उद्शदे्य तो पूरा ही नहीं हुआ। अगर इससे कोई फायदा हुआ तो यही कि कर दायरा कुछ बढ़ गया, डिजिटल भुगतान की प्रवत्ति थोड़ी बढ़ गई।

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इसके अलावा सकल वित्तीय बचत भी बढ़कर 11.8 फीसदी हो गई। नोटबंदी के बाद भारतीयों ने सकल राष्ट्रीय प्रयोज्य (डिस्पॉजिबल) आय का 7.3 फीसदी बैंक डिपॉजिट, 1.2 फीसदी शेयर और बॉण्ड और 2.9 फीसदी बीमा उपकरणों में निवेश किया। वर्ष 2016 में शेयर और बॉण्ड में निवेश महज 0.2 फीसदी था, जो 2017 में बढ़कर 1.2 फीसदी हो गया।

अब कोरोना वायरस के कारण शेयर और म्युचुअल फंड बाजार का एक-तिहाई पैसा काफूर हो चुका है और नोटबंदी के बाद जो निवेश अच्छा माना जा रहा था, वही आज बुरा और नुकसानदायक साबित हो गया है। जीएसटी की परिकल्पना एक ऐसी एकल कर व्यवस्था के तौर पर की गई थी जिसका उद्दे्श्य देश में कई चरणों में काम कर रहे अप्रत्यक्ष कर की जटिल संरचना को खत्म करके एक आसान प्रणाली लाना था, जिससे अर्थव्यवस्था को मदद मिले, लेकिन जिस तरह आधी- अधूरी तैयारी के साथ इसे हड़बड़ी में लागू कर दिया गया, उससे अर्थव्यवस्था को उल्टे नुकसान ही हो गया।

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इसके कारण लघु एवं मध्यम क्षेत्र की इकाइयों पर बुरा असर पड़ा है और जीएसटी लागू किए जाने के ठीक बाद के समय में लोकल सप्लाई चेन बाधित हो गई, हालांकि अब तमाम संशोधनों के बाद कई सारी अड़चनों को दूर कर लिया गया है, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि कोरोना वायरस के कारण दुनिया भर में जो सप्लाई चेन अब अवरुद्ध हुआ है, भारत में तो ऐसी स्थिति जीएसटी के शुरुआती समय में ही बन गई थी।

2018 में इन्फ्रास्ट्रक्चर फाइनेंस क्षेत्र की भीमकाय कंपनी आईएल एंड एफएस के बैठ जाने से एक लाख करोड़ का संकट खड़ा हो गया और ऋण बाजार में अफरातफरी मच गई। पूरे वित्तीय बाजार में तरलता का संकट पैदा हो गया। 2018 के सितंबर में आईएल एंड एफएस का कामकाज नए निदेशक मंडल ने संभाला और उसके बाद कंपनी केवल अपनी सौर ऊर्जा संपत्तियों को ही बेच सकी है और इससे 94,000 करोड़ की उसकी देनदारी में केवल 4,300 करोड़ की कमी आई है।

अब अगर कोरोना वायरस और छह माह रह गया तो भारत की वित्तीय प्रणाली एक बड़े संकट में फंस जाएगी जिसका दम बढ़ते एनपीए के बोझ के कारण पहले से ही घुटने टेक रहा है।

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