मोदी सरकार के पूरे कार्यकाल के दौरान अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें काफी कम रहीं और अगर इस फायदे का सही तरीके से इस्तेमाल किया जाता तो देश की स्थिति काफी अच्छी हो सकती थी, लेकिन गलत नीतियों के कारण इसका फायदा यूं ही जाया हो गया। मोदी सरकार के दौरान अर्थव्यवस्था की हालत पर पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम से तथागत भट्टाचार्य ने बातचीत की। पेश है बातचीत के अंश
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देश में अर्थव्यवस्था की हालत खस्ता है। जिस भी तरह से देखें, बैंकिंग, से लेकर वित्त और ऋण, कृषि, विनिर्माण, निर्यात, रोजगार सबकी हालत बुरी है। ये बताएं, आने वाली नई सरकार के सामने अल्पकालिक और दिर्घकालिक क्या- क्या चुनौतियां होंगी। हम वास्तव में किस तरह की आर्थिक स्थिति से दो-चार हो रहे हैं?
हम माइक्रो आर्थिक अस्थिरता, घटते निवेश, मांग और आपूर्ति के बढ़ते अंतर और मुद्रास्फीति पर संभावित दबाव जैसी समस्याओं की ओर बढ़ रहे हैं। आने वाली नई सरकार की पहली जिम्मेदारी अर्थव्यव्यवस्था की गिरावट को रोकने और फिर स्थायित्व बहाल करने के कदम उठाने की होगी।
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नोटबंदी और दोषपूर्ण जीएसटी के अलावा हमने कौन सी नीतिगत गलतियां कीं जिनके कारण आज की स्थिति में पहुंच गए?
बीजेपी सरकार ने कारोबारियों की उद्यमिता की भावना को खत्म कर डाला और उपभोक्ताओं के आत्मविश्वास को हिलाकर रख दिया है। नीतियों और दरों में बार-बार के बदलावों से व्यापक स्तर पर अनिश्चितता का माहौल बन गया है। सरकार ने स्वच्छ भारत, उज्ज्वला योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना जैसी तमाम स्कीमों के संभावित असर पर विचार किए बिना पैसे खर्च कर दिए और इस कारण इनमें से ज्यादा खर्च बेकार साबित हुए।
इस स्थिति में नहीं पहुंचने के लिए मोदी सरकार को क्या करना चाहिए था?
हर किसी को सरकार से बाहर का रास्ता दिखाने की जगह यह सब उसे अर्थशास्त्रियों के विवेक पर छोड़ देना चाहिए था।
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सरकार दावा कर रही है कि उसके कार्यकाल के दौरान प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और विदेशी मुद्रा भंडार में इजाफा हुआ है। अगर यह सही है तो क्या यह इत्तेफाक है?
विदेशी मुद्रा भंडार में इजाफा तो होता ही रहता है। यह बड़ी सामान्य बात है। अगर आर्थिक विकास दर कम है तो भी यह बढ़ता है। जहां तक एफडीआई की बात है, इसमें काफी अनिश्चितता आई है। 2018-19 के दौरान एफडीआई पांच सालों में न्यूनतम रहा। मार्च, 2019 में विदेशी पोर्टफोलियो निवेश निगेटिव हो गया। अब देखना होगा कि आगे इसका असर क्या होता है।
क्या आप इस बात से सहमत हैं कि पिछले पांच सालों के दौरान बजट दस्तावेजों ने बताया कम और छिपाया ज्यादा? उदाहरण के लिए, इस बारे में कोई जानकारी नहीं दी गई कि सेस से कितना पैसा आया और इसका उपयोग कैसे हुआ...
बुनियादी सूचना तक पहुंच के बिना मैं प्रकाशित आंकड़ों पर कोई टिप्पणी नहीं कर सकता। वैसे, इसमें कोई शक नहीं कि बीजेपी कम पारदर्शी है और सच को सामने रखने में भी कंजूस है।
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ऐसे लगता है कि नई सरकार को अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर लाने में एड़ी चोटी का जोर लगाना होगा। इस विषय पर आप क्या कहेंगे?
यह काम तो अगली सरकार पर छोड़ देना चाहिए। जब नए प्रधानमंत्री और नए वित्त मंत्री काम संभालने के बाद कुछ दिन बिता लें, तो यह सवाल उन्हीं से पूछना चाहिए। बिना पूरी जानकारी उपचार की बात करना संभव नहीं।
जब पेट्रोल और डीजल के दाम को नियंत्रणमुक्त किया गया तो देश को यह बताया गया कि अब इनकी कीमत बाजार ताकतों पर निर्भर होगी। लेकिेन जब से चुनाव शुरू हुए हैं, इनके दाम स्थिर हैं। क्या यह संभव है? इसके अलावा इस सरकार के कार्यकाल के दौरान ज्यादातर समय अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत कम रही। क्या किसी सरकारी दस्तावेज में इस बात का जिक्र मिलता है कि कच्चे तेल के सस्ता होने के कारण सरकार को कितना अप्रत्याशित लाभ मिला?
अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कम कीमत के कारण 2014-15, 2015-16 और 2016-17 के दौरान सरकार को अप्रत्याशित लाभ मिला। लेकिन सरकार ने उस बचत को जाया कर दिया। बीजेपी के लिए ‘बाजार आधारित’ का मतलब बाजार और चुनाव आधारित है। जब चुनाव हों, बाजार को ठंडा पड़ जाना चाहिए।
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आमतौर पर यह माना जाता है कि कड़े फैसले लेने के लिए गठबंधन की राजनीति उपयुक्त नहीं। अगर कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए की सरकार आती है तो पार्टी कैसे इससे निपटेगी?
यह सरासर गलत धारणा है। एचडी देवेगौड़ा, आई के गुजराल और मनमोहन सिंह की सरकारों ने तमाम कड़े आर्थिक फैसले लिए। ये सब गठबंधन की सरकार चला रहे थे। ऐतिहासिक फैसले लेने वाले नरसिंह राव सरकार भी तो एक अल्पमत सरकार ही थी।
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