‘संघीय व्यवस्था में केंद्र और राज्यों के बीच आर्थिक संबंध का प्रारूप’ विषय पर बीते 6 जून को पटना में भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार डॉ अरविन्द सुब्रमण्यम का एक व्याख्यान आयोजित किया गया था। डॉ सुब्रमण्यम ने अपने संबोधन में जीएसटी कर प्रणाली की वजह से संघीय कर-व्यवस्था में अभूतपूर्व परिवर्तन की बात पर जोर देते हुए, इस बात को विशेष रूप से रेखांकित किया कि जीएसटी कर प्रणाली के उपभोक्ता केंद्रित होने से बिहार जैसे उपभोक्ता प्रधान राज्य को काफी फायदा होने की संभावना है। साथ ही उन्होंने ये भी कहा कि जब तक राज्य अपने आधारभूत संरचना को सुदृढ़ कर स्वास्थ्य, शिक्षा, बिजली, पानी, सड़क जैसी लोक सेवाओं को बेहतर नहीं करेंगे, तब तक नागरिकों का शासन व्यवस्था में विश्वास नहीं होगा और सरकार कर वसूली में घनात्मक बढ़ोतरी नहीं कर सकती।
उनकी यह बात बिलकुल जायज है, मगर जब उनसे पूछा गया की बिहार जैसे ऐतिहासिक रूप से पिछड़े हुए राज्य क्या बिना केंद्र के विशेष सहयोग से इन आधारभूत संरचनाओं को बेहतर कर पाएंगे तो उनके पास इसका एक ही जवाब था कि राज्यों को आत्मनिर्भर होना चाहिए और केंद्र पर निर्भरता कम करने के लिए प्रयासरत रहना ही उचित होगा।
डॉ सुब्रमण्यम की इस दलील में कई विसंगतियां हैं। संघीय ढांचे में तकरीबन सभी लोक योजनाओं को राज्य सरकारें ही धरातल पर उतारती हैं। साथ ही इन योजनाओं में राज्यों की आर्थिक भागीदारी भी होती है। अगर हम बिहार जैसे गरीब राज्य के परिप्रेक्ष्य में देखें तो पाएंगे की ऐतिहासिक तौर पर केंद्र के द्वारा बिहार के साथ आर्थिक बेईमानी हुई है। झारखंड के बंटवारे के बाद बिहार के सभी खनिज संग्रह झारखंड में चले गये, जिससे हर साल खनिज खनन से मिलने वाले हजारों करोड़ रुपये के टैक्स का नुकसान बिहार को उठाना पड़ता है। झारखंड से बंटवारे के समय उस समय की एनडीए सरकार के द्वारा बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिये जाने की बात को भी अनदेखा कर दिया गया। साथ ही भाड़ा समानीकरण की नीति की वजह से बड़े औद्योगिक घरानों के पास कोई प्रोत्साहन नहीं था, जिसकी वजह से वह उद्योग लगाने के लिए बिहार आते, क्योंकि भाड़ा समानीकरण की वजह से ट्रेन द्वारा माल ढुलाई का रेट देश भर एक ही था |
डॉ सुब्रमण्यम ने अपने वक्तव्य में कहा कि डीजल-पेट्रोल को जीएसटी में सम्मिलित करना उचित रहेगा। लेकिन जब उनसे पूछा गया कि देश के मुख्य आर्थिक सलाहकार के रूप में अगर वह इस नीतिगत निर्णय को लेकर गंभीर हैं तो इसका क्रियान्वयन क्यों नहीं किया जा रहा है तो इस पर वह कोई जवाब नहीं दे पाए। उसी तरह कृषि के मुद्दे पर इस लेखक द्वारा पूछे गये सवाल कि बिहार जैसे कृषि प्रधान राज्य की कृषि की असल विकास दर नेगेटिव 1 प्रतिशत है तो क्या उन्हें लगता है कि कृषि नीति पर एक बार फिर से नये सिरे से सोचे जाने की आवश्यकता है? इसका जवाब देते हुए उन्होंने कहा की हमें कृषि के विकास के लिए निजीकरण की तरफ जाना चाहिए। अगर हम इसका भी विश्लेषण करें तो पाएंगे की पिछले दो दशक में कृषि के क्षेत्र में निजी कंपनियों का निवेश न के बराबर हुआ है और अगर कृषि के क्षेत्र में सरकारी सहयोग को खत्म कर दें तो कृषि की स्थिति और दयनीय हो जाएगी।
Published: 09 Jun 2018, 1:46 PM IST
एक ऐसे समय में जब बिहार सरकार की कैबिनेट ने निजी बीमा आधारित प्रधानमंत्री कृषि फसल योजना को बिहार से पूर्ण रूप से यह कह कर रद्द कर दिया कि इससे किसानों के बदले सिर्फ निजी कंपनियों को लाभ हो रहा था, ठीक उसी दिन देश के मुख्य आर्थिक सलाहकार का निजीकरण के पक्ष में वक्तव्य यही दर्शाता है कि उन्हें देश की जमीनी हकीकतों का ठीक से अंदाजा नहीं है और संभवतः राज्य सरकारों की जन मानस की जरूरतों की समझ केंद्रीय पदाधिकारियों से कई गुना बेहतर है।
देश के मुख्य आर्थिक सलाहकार के कथन से यही प्रतीत होता है कि केंद्र सरकार की जमीनी मुद्दों की समझ को दुरुस्त कर कृषि विकास और तेल की कीमतों जैसे ज्वलंत मुद्दों पर तात्कालिक नीतिगत बदलाव किये जाने की जरुरत है, अन्यथा इसका खामियाजा आगामी लोक सभा चुनाव में पड़ सकता है।
(लेखक बिहार लोक वित्त विश्लेषण केंद्र के निदेशक हैं और पटना स्थित आद्री में विशिष्ट अध्येता हैं।)
Published: 09 Jun 2018, 1:46 PM IST
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Published: 09 Jun 2018, 1:46 PM IST