सीधे ही मूल विषय पर आएं। देश के 60 प्रतिशत युवा ग्रैजुएट बेरोजगार हैं और हर साल हमारे काॅलेज और विश्वविद्यालय और अधिक लोगों को शिक्षित कर रहे हैं। यह युवाओं के लिए अच्छा समय नहीं है, क्योंकि भारत धीरे-धीरे सपनों के कब्रगाह में बदलता जा रहा है।
2013 के जाड़ों में नरेंद्र मोदी यूपी के आगरा में एक रैली में बोल रहे थे। तब वह बूीजेपी की ओर से प्रधानमंत्री-पद के उम्मीदवार थे। तब वह देश की उन सभी चिंताओं को समझने की बात कर रहे थे और ऐसा आभास दे रहे थे, मानो उनके पास हर समस्या का सटीक समाधान है। छह साल और कुछ माह बाद उनके वायदों में कुछ ही पूरे हो पाए हैं, क्योंकि भारत अभूतपूर्व बेरोजगारी संकट का सामना कर रहा है।
साल 2013 में मोदी जानते थे कि दो तिहाई भारतीय आबादी 35 साल से नीचे की है और उनकी ऊर्जा का उपयोग राष्ट्र निर्माण में किया जा सकता है। उन्होंने युवाओं की कुशलता में वृद्धि, रोजगार के अधिक अवसर पैदा करने का वायदा किया था और उनका कहना था कि इन सबसे भारत दुनिया में विकास के पावरहाउस के तौर पर उभरेगा। परिकल्पना तो बड़ी थी लेकिन छह साल बाद, 45 साल में सबसे अधिक बेरोजगारी होने की वजह से भारत को रोजगार के खयाल से भयावह दुःस्वप्न में डूबना पड़ रहा है।
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स्थिति अब गंभीर संकट की तरह हो गई है, क्योंकि नौकरी, खास तौर से ग्रैजुएट कर चुके लोगों के मामलों में स्थिति निराशाजनक है। बाजार में मांग कम होती जा रही है इसलिए उत्पादन घटाना पड़ा है। रोजगार इसीलिए कम होते गए हैं। सेंटर फाॅर माॅनिटरिंग इंडियन इकोनाॅमी (सीएमआईई) द्वारा जुटाए गए नवीनतम आंकड़े बताते हैं कि शहरी बेरोजगारी अब 9 प्रतिशत तक पहुंच गई है और सबसे बुरी बात यह है कि 20 से 24 साल के आयु वर्ग में तीन में से सिर्फ दो लोग ही रोजगार पा रहे हैं। यह वह वर्ग है जो अपनी शिक्षा पूरी करता है और बाजार में नौकरी का इच्छुक होता है। आंकड़े संकेत देते हैं कि 30 साल से कम आयु वाले लोगों के लिए बेरोजगारी बनी हुई है और यह 2.5 प्रतिशत तक इसलिए गिर जाती है कि लोग ऐसा कोई भी रोजगार करने लगते हैं जिनसे उन्हें दो वक्त की रोटी किसी तरह मिलती रहे।
सीएमआईई के आंकड़े संकेत देते हैंः 20-24 साल के युवाओं ने 37 प्रतिशत की दर से बेरोजगार की बात कही, उनमें से ग्रैजुएट लोगों ने 60 प्रतिशत से अधिक बेरोजगारी दर की बात कही। साल 2019 के दौरान उनमें औसतन बेरोजगारी दर 63.4 प्रतिशत रही। पिछले तीन सालों के दौरान कभी भी रही औसतन बेरोजगारी दर में यह सबसे बुरी है। इस वर्ग के लोगों में 2016 में बेरोजगारी दर 47.1 फीसदी थी। साल 2017 में यह 42 प्रतिशत थी और 2018 में यह 55.1 फीसदी थी। इस तरह, युवा ग्रैजुएट्स के लिए 2019 में स्थिति बहुत ही बदतर हो गई।
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सरकार ने पहले कहा कि रोजगार लायक बनने के लिए युवाओं की कुशलता बढ़ाए जाने की जरूरत है और मोदी के पहले कार्यकाल में यह प्रमुख रूप से केंद्रित क्षेत्र था। इसके लिए बनाई गई योजना ही विनाशकारी साबित हुई। सरकार के अपने आंकड़ों ने ही बताया कि इसने जिन लोगों को ट्रेनिंग दी, उनमें से आधे से भी कम ही लोग रोजगार पा सके। कुशलता विकास कार्यक्रमों में 34.17 लोगों ने पंजीकरण कराया जिनमें से 25.77 लाख लोगों को प्रमाण पत्र मिल पाए। इनमें से भी 14.20 लोग ही नौकरी पा सके और कितनी संख्या में लोग बेरोजगार रह गए, इसका आंकड़ा नहीं मिल पाया।
सरकार बेरोजगारी को लेकर नकारने में लगी है और वह यह संकेत देने के लिए कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (ईपीएफओ) के आंकड़े का उपयोग करती है कि औपचारिक अर्थव्यवस्था में रोजगार पैदा हुए हैं। भारतीय स्टेट बैंक की एक रिपोर्ट संकेत देती है कि वर्तमान वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में नकारात्मक विकास दर के कारण इस साल तैयार किए गए वेतन भुगतान रजिस्टर में 74 लाख नए भुगतान रजिस्टर की संभावना क्षीण है, क्योंकि इनकी संख्या लगभग 16 लाख कम ही होने की आशंका है।
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यह अब पूरी तरह तय हो चुका है कि सरकार 2019-20 में नई नौकरियां पैदा करने की अपनी कोशिशों में विफल रही है लेकिन उससे भी बड़ी दिक्कत यह है कि सामने आशा की कोई किरण भी नहीं दिख रही है। कम मांग की वजह से उद्योग में क्षमता उपयोग (कैपैसिटी यूटिलाइजेशन) अब गिरकर 69 प्रतिशत तक पहुंच गई है और इन स्तरों पर कंपनियों के लिए क्षमता विस्तार में इस तरह की बढ़ोतरी के लिए निवेश करना व्यापार की दृष्टि से उचित नहीं है, जो नई नौकरियां पैदा करे।
ऐसा कुछ बताने को भी नहीं है कि हम 2020-21 में भी बेरोजगारी की समस्या का समाधान कर लेंगे। बजट बहुत कुछ करने वाला नहीं है क्योंकि सरकार अपना एकमात्र कार्ड- काॅरपोरेट टैक्स दर घटाने का, खेल चुकी है। तीसरी तिमाही के शुरुआती आंकड़े संकेत देते हैं कि काॅरपोरेट लाभ बेहतर होगा लेकिन चूंकि मांग में बेहतरी के लिए अभी संघर्ष करना होगा इसलिए निवेश के तौर पर तत्काल शुरुआत की कोई उम्मीद नहीं करनी चाहिए। सरकार का रोजगार में बढ़ोतरी का एजेंडा दुष्चक्र में फंस गया है। जब तक उपभोग (कंजप्शन) में वृद्धि नहीं होती है, रोजगार में वृद्धि की अपेक्षा नहीं की जा सकती।
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उपभोग में वृद्धि तब तक नहीं हो सकती जब तक पिरामिड के निचले हिस्से में अधिक धन नहीं होता और वह तब तक नहीं हो सकता जब तक सरकार उन योजनाओं पर खर्च नहीं करती है जो सुनिश्चित करे कि वह धन औसत भारतीय तक पहुंचे। काॅरपोरेशन टैक्स ने सरकार के पाॅकेट में बड़ा छेद बना दिया है, क्योंकि टैक्स संग्रहण करीब 2 लाख करोड़ तक कम होने की आशा है और हमारे पास ऐसी स्थिति हो सकती है कि प्रत्यक्ष टैक्स संग्रहण पिछले साल से कम हो। जब सरकार का राजस्व प्रबंधन गिर रहा हो, वैसी स्थिति में सरकार का ऐसे कार्यक्रमों में निवेश के वित्तीय संसाधन कम ही होंगे जो मांग को बढ़ा सकें।
सीधी बात कहें, तो आने वाले हाल के समय में रोजगार बढ़ोतरी की अपेक्षा न करें। सरकार इस बात को जानती है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वह इसे दुरुस्त कर सके। रोग गहरे तक बैठ गया है और देश का धैर्य खत्म हो रहा है। घड़ी के कांटे खिसक रहे हैं।
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