खबर है कि फेसबुक अब क्रिप्टोकरेंसी के कारोबार में उतरने जा रहा है। उसकी करेंसी लिब्रा (या लीब्रा) एक साल के भीतर लांच हो जाएगी। हालांकि फेसबुक ने अपनी इस करेंसी के बारे में काफी जानकारियां छिपाकर रखी हुई हैं, पर उसका कहना है कि यह बिटकॉइन जैसी अस्थिर नहीं होगी, बल्कि वह स्थिर और वैध होगी, जिसके कारण उसे स्टेबल कॉइन का नाम भी दिया गया है।
फेसबुक ने 18 जून को अपनी क्रिप्टोकरेंसी लिब्रा का व्हाइट पेपर लांच किया है, जिसमें कुछ जानकारियां हैं। यह ग्लोबल होगी। आपके पास लिब्रा है, तो आपको डॉलर, यूरो या रुपये की परवाह नहीं करनी पड़ेगी। अगर आपके पास फेसबुक मैसेंजर या वॉट्सएप है, तो वो आपके बैंक की तरह काम करेगा। पैसे के लेन-देन के लिए कैलिब्रा नाम का वॉलेट काम आएगा। जो इन्हीं एप्स में बना होगा। फेसबुक का लिब्रा पर पूरा अधिकार नहीं होगा। लिब्रा एसोसिएशन अलग बनेगी, जिसका मुख्यालय जिनीवा में होगा।
फेसबुक का कहना है कि यह बिटकॉइन जैसी क्रिप्टोकरेंसी से अलग होगा। इसे सरकारों का और सरकारी मुद्राओं का समर्थन प्राप्त होगा। यानी यह पूरी तरह लीगल होगा। सरकारों के अलावा पे-पल, उबर, वीजा और मास्टर कार्ड जैसी कंपनियां इसके साथ आ गई हैं। स्टेबल कॉइन उस डिजिटल करेंसी को कहा जाता है जिसे शासन-समर्थित मुद्राओं और प्रतिभूतियों (करेंसी और सिक्योरिटी) का समर्थन प्राप्त होता है।
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इसका मतलब है कि लिब्रा की शक्ल वर्तमान प्रचलित क्रिप्टोकरेंसियों से फर्क होगी। फेसबुक एक नया डिजिटल वॉलेट तैयार करने की योजना बना रहा है जो उसके मैसेंजर और वाट्सऐप से जुड़ा होगा। इन दोनों एप्स के माध्यम से मित्रों, पारिवारिक सदस्यों और कारोबारियों के बीच लिब्रा का लेन-देन हो सकेगा। इसके लिए नई कंपनी कैलिब्रा बनाई गई है। वही डिजिटल वॉलेट बना रही है।
इस वॉलेट से लोग लिब्रा खरीदेंगे और उसका आदान-प्रदान कर सकेंगे। इसको ऐसे समझ लें जैसे आप चांदनी चौक या लक्ष्मीनगर में कचौड़ी वाले से तीस, चालीस या पचास रुपये के टोकन लेते हैं और उन्हें काउंटर पर देकर कचौड़ी और समोसे प्राप्त करते हैं। वहां यह लेन-देन एक ही दुकान के भीतर है और टोकन भौतिक है, पर क्रिप्टोकरेंसी का आदान-प्रदान डिजिटल है और कई प्रकार के प्रयोक्ताओं के बीच है।
सबसे बड़ी बात है कि क्रिप्टोकरेंसी की व्यवस्था अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चल रही है, इसलिए इसके कई प्रकार के कानूनी पहलू हैं। यह किसी सरकार के अधीन नहीं है और न कोई अंतरराष्ट्रीय संस्था इसका नियमन करती है, फिर भी यह सफलतापूर्वक चल रही है। इसका प्रचलन इस बात का संकेत दे रहा है कि वैश्वीकरण की अवधारणाएं क्या शक्ल ले सकती हैं।
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हम अभी धन और मुद्रा के रिश्तों को ठीक से समझ नहीं पाए हैं, इसलिए इस आभासी व्यवस्था को समझने में दिक्कत पेश आ सकती है। देश में पेटीएम के बढ़ते इस्तेमाल के साथ हमें अब वॉलेट की अवधारणा को समझने में दिक्कत नहीं है। अमेजन से खरीद करने वाले अमेजन पे के इस्तेमाल को समझ लेते हैं, पर कुछ साल पहले जब बिटकॉइन की शुरुआत हुई, तब उसे समझने में दिक्कत हुई।
लेकिन क्रिप्टोकरेंसी बिलकुल नई परिघटना लगती है। वर्चुअल करेंसी का मतलब है आभासी मुद्रा। यानी जो वास्तविक होने का आभास दे। गौर से देखें, तो आप पाएंगे कि कागजी नोट भी आभासी मुद्रा है। चूंकि सरकार ने जिम्मेदारी ली है, इसलिए कागज पर जिस राशि का भुगतान करने का आश्वासन होता है वह वास्तविक धन होता है। क्रेडिट कार्ड्स , शॉपिग सेंटर्स और एयरलाइंस के लॉयल्टी पॉइंट्स का आप इस्तेमाल करते हैं। यह भी एक प्रकार से मुद्रा ही है।
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बिटकॉइन एक ऑनलाइन करेंसी और भुगतान-प्रणाली है, जो धन का अंतरराष्ट्रीय संचरण संभव बनाती है। दुनिया भर में हजारों व्यापारी इस क्रिप्टोकरेंसी को स्वीकार करते हैं। सुरक्षा की गारंटी देने के लिए क्रिप्टोग्राफी या कूटभाषा का प्रयोग करने के कारण ऐसा कहा जाता है। बिटकॉइन को एक नए प्रकार की करेंसी के रूप में देखा जा रहा है।
आपने बैंक एकाउंटों की हैकिंग के किस्से सुने होंगे, पर क्रिप्टोकरेंसी हैक होने की खबरें नहीं हैं। इसमें धोखाधड़ी की शिकायतें अभी तक नहीं हैं। एक पब्लिक डिस्ट्रीब्यूटेड लेजर होता है, जिसे ब्लॉक चैन कहते हैं। उसमें सब हिसाब-किताब चलता रहता है। ब्लॉक चैन पर किसी का नियंत्रण नहीं होता और गड़बड़ी की नहीं जा सकती, इसलिए सब ठीक रहता है। पर भविष्य में इसके सॉफ्टवेयर के भीतर वायरस नहीं डाले जाएंगे, इसकी क्या गारंटी है?
दुनिया के कई देशों की सरकारें अब इसे वैधानिक रूप से स्वीकार करने का मन बना रही हैं। खबरें यह भी हैं कि भारत की डिजिटल प्रेमी सरकार भी ऐसी करेंसी की योजना बना रही है, जिसका ‘लक्ष्मी’ नाम हवा में है। क्रिप्टोकरेंसी के पीछे कम्प्यूटर की कूटभाषा या एल्गोरिद्म है। वही एल्गोरिद्म जिसके सहारे कुछ महीने पहले इंसान ने ब्लैकहोल की तस्वीरें खींचने में कामयाबी हासिल की थी। क्रिप्टोकरेंसी की दूसरी विशेषता है उस पर किसी एक राष्ट्रीय बैंक के बजाय विकेंद्रित नियंत्रण।
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बिटकॉइन एक ओपन-सोर्स सॉफ्टवेयर के रूप में 2009 में पहली बार जारी हुआ था। अमेरिकी क्रिप्टोग्राफर डेविड शॉम ने 1983 में पहली बार क्रिप्टोग्राफिक इलेक्ट्रॉनिक धन की अवधारणा तैयार की। उसे ई-कैश नाम दिया गया था। इसके बाद 1995 में उन्होंने डिजिकैश के नाम से इस प्रणाली को लागू किया। वस्तुतः यह बैंकों से नोट निकालने की एक प्रणाली थी, जिसमें ग्राहक कूट संकेत का इस्तेमाल करके किसी के पास धन भेज सकता था।
इसके बाद इस पद्धति के व्यावहारिक और कानूनी पहलुओं पर विमर्श शुरू हुआ। दरअसल यह प्रणाली बैंकों और सरकारों की जानकारी के बगैर धन के प्रवाह की ओर इशारा कर रही थी। पहली क्रिप्टोकरेंसी बिटकॉइन का जन्म 2009 में जापानी डेवलपर सातोशी नकामोतो ने किया, जो छद्म नाम है। कहना मुश्किल है कि किसी एक ने या अनेक व्यक्तियों ने इसे बनाया।
सामान्यतः डैबिट-क्रेडिट कार्ड से भुगतान करने पर दो से तीन प्रतिशत लेन-देन शुल्क लगता है, लेकिन बिटकॉइन में ऐसा कुछ नहीं होता है। इसके लेन-देन में कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं लगता। इसके अलावा यह सुरक्षित और तेज है। फेसबुक का लिब्रा भी शुल्करहित होगा। क्रिप्टोकरेंसियों की वैधानिकता को लेकर भी अब सरकारें जागी हैं।
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कम से कम आठ देशों ने क्रिप्टोकरेंसी के इस्तेमाल पर रोक लगाई है। ये देश हैं- अल्जीरिया, बोलीविया, मिस्र, इराक, मोरक्को, नेपाल, पाकिस्तान और यूएई। इसके अलावा 15 देशों ने परोक्ष पाबंदियां लगाई हैं। ये देश हैं- बहरीन, बांग्लादेश, चीन, कोलंबिया, डोमिनिकन रिपब्लिक, इंडोनेशिया, ईरान, कुवैत, लेसोथो, लिथुआनिया, मकाऊ, ओमान, कतर, सऊदी अरब और ताइवान। अमेरिका और कनाडा जैसे देश अभी इसका अध्ययन कर रहे हैं। रूस में बिटकॉइन वैध है, पर खरीदारी केवल रूसी मुद्रा में ही हो सकती है। कुछ देश अपनी क्रिप्टोकरेंसी जारी कर रहे हैं। पिछले साल थाईलैंड ने इसकी अनुमति दी।
क्रिप्टोकरेंसी का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है सरकारी नजरों से बाहर रहकर काम करना। ऐसे में किसी देश के खिलाफ पाबंदियां लगने पर लेन-देन यदि इनके मार्फत होने लगेगा, तो उसे पकड़ा नहीं जा सकता है। सबसे ज्यादा पाबंदियां अमेरिका लगाता है। संयुक्त राष्ट्र की पाबंदियां भी अपनी जगह हैं। फिर हथियारों की खरीद, नशे के कारोबार और आतंकी गुटों को मिलने वाले धन पर नजरें रखना मुश्किल हो जाएगा।
बहरहाल फेसबुक की क्रिप्टोकरेंसी की खबरें आने के बाद दो-तीन किस्म की प्रतिक्रियाएं हैं। पहली तो यह कि क्या यह सॉवरिन करेंसी (यानी सरकारी मुद्रा) के अंत का प्रारंभ है? मुद्राओं पर सरकारी नियंत्रण खत्म या कम होने से क्या वैश्विक वित्तीय प्रणाली ढह नहीं जाएगी? क्या अब इस परिस्थिति को रोकने के लिए किसी वैश्विक संधि की जरूरत नहीं होगी? ये आशंकाएं जरूरत से ज्यादा हैं। सच बात यह है कि दुनिया भर की सरकारें अपनी ही मुद्रा में टैक्स वसूलती हैं। उम्मीद नहीं कि वे अपना काम लिब्रा की मदद से करेंगी।
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लिब्रा पर ब्याज नहीं मिलेगा, उसके खातों का इंश्योरेंस नहीं होगा। शुरुआती दौर में चाय-कॉफी और सिनेमा के टिकट खरीदने में ही उसका इस्तेमाल होगा। गीत-संगीत खरीदने और बेचने के लिए और तमाम तरह के शौक पूरे करने के लिए अलग-अलग किस्म की क्रिप्टोकरेंसी तैयार हो रही हैं। मसलन रेड कॉइन का इस्तेमाल देने के लिए किया जाता है। वॉइसकॉइन की मदद से गायक अपने संगीत का स्वयं मूल्य निर्धारण करते हैं। यह मंच कलाकारों की मदद करता है। वहीं मोनेरो का इस्तेमाल डार्क वैब और ब्लॉक मार्केट में स्मगलिंग के लिए होता है।
शायद आपके फेसबुक और वाट्सएप एकाउंट अपने आप में बाजार बन जाएं। आपकी पोस्ट के बराबर किसी नए मोबाइल फोन या टीशर्ट का विज्ञापन आए और आप एक बटन दबाएं और वहीं के वहीं खरीदारी हो जाए। चूंकि लोग अब पासवर्ड डालने और ओटीपी प्राप्त करने से भी ऊब गए हैं, तो शायद यह कामयाब भी हो जाए। दूसरे काफी बड़ी संख्या में लोगों के पास अब भी बैंक खाते नहीं हैं। शायद यह वैकल्पिक बैंक का काम करे। तमाम लोगों के बैंक खाते इसलिए नहीं हैं, क्योंकि उनके पास अपने पते का दस्तावेज नहीं है। अलबत्ता फेसबुक का कहना है कि हम केवाईसी वगैरह पूरे करेंगे। बदलते समय के साथ शायद यह नई व्यवस्था साबित हो।
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फेसबुक का लिब्रा शायद युगांतरकारी साबित हो, पर कुछ दूसरे सवाल जरूर खड़े होंगे। दुनिया में इन दिनों डेटा प्रवाह को लेकर चिंताएं व्यक्त की जा रही हैं। गत 28-29 जून को हुए जी-20 के शिखर सम्मेलन के दौरान भारत ने डिजिटल अर्थव्यवस्था के संदर्भ में निर्बाध वैश्विक डेटा प्रवाह के लिए तैयार किए गए ओकासा घोषणापत्र पर दस्तखत करने से इनकार कर दिया। अमेरिका और जापान सहित दुनिया के विकसित देशों ने इस पर दस्तखत किए हैं, पर भारत और चीन ने इस पर दस्तखत करने से इनकार कर दिया है। भारत का कहना है कि पूंजी और दूसरे माल की तरह डेटा भी संपदा है। उसके निर्बाध प्रवाह से हमारे राष्ट्रीय हितों को ठेस लग सकती है। इस विषय पर विश्व व्यापार संगठन को नियम बनाने चाहिए।
आमतौर पर मैसेज, सोशल मीडिया पोस्ट, ऑनलाइन ट्रांसफर और इंटरनेट सर्च हिस्ट्री आदि के लिए डेटा शब्द का उपयोग किया जाता है। ऐसी सूचनाएं जो लोगों की आदतों और जरूरतों को बताती हैं। उनका कारोबारी महत्व भी होता है। कंपनियां लोगों की आदतों को ध्यान में रखकर विज्ञापन जारी करती हैं। सरकारें और पार्टियां अपनी नीतियों को बनाने में और चुनाव में विजय प्राप्त करने के लिए ऐसी सूचनाओं का उपयोग करते हैं।
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डेटा का प्रवाह और परिवहन ऐसी जटिल प्रक्रिया है जिस पर अंकुश लगाना कठिन होता है। इसका एक स्थान से दूसरे स्थान तथा एक देश से दूसरे देश तक प्रवाह बहुत तेजी से होता है। ऐसे में डेटा का विनियमन जरूरी होता है। अभी हमारा डेटा-क्षेत्र बहुत बड़ा नहीं है लेकिन भारत तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है। भारत डेटा स्थानीयकरण के पक्ष में है। यानी कोई कंपनी भारतीय डेटा को बाहर न ले जाए और न उसका उपयोग करे। देश में अभी इस विषय पर कोई कानून नहीं है, लेकिन 2018 में एक कानून का मसौदा तैयार किया गया था। यह मसौदा न्यायमूर्ति बीएन श्रीकृष्ण की अध्यक्षता में बनी समिति के सुझावों पर आधारित है।
सूचना प्रौद्योगिकी एवं दूरसंचार मंत्री रविशंकर प्रसाद ने हाल में सीआईआई के एक कार्यक्रम में कहा कि प्रस्तावित कानून के तहत सूचनाओं को देश से बाहर ले जाने की मंजूरी दी जा सकती है। भारत के डेटा संरक्षण विधेयक का दुनिया भर में इंतजार है। इस कानून से भारत में फेसबुक, गूगल और अमेजन जैसी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को भारत के लोगों की सूचनाओं का संचयऔर प्रोसेसिंग भारत में ही करना होगा। चीन पहले से ही ऐसे कानून बना चुका है। सब कुछ ठीक रहा तो उम्मीद यही है कि लोग रोजमर्रा के लेन-देन में लिब्रा का इस्तेमाल करेंगे।
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