कुछ समय पहले क्या कोई सोच सकता था कि मध्य प्रदेश के झाबुआ और धार जिले में विशेष रूप से मिलने वाली मुर्गे की एक प्रजाति ‘कड़कनाथ’ पर बाकायदा कोई फिल्म बन सकती है? फिल्म माने फीचर फिल्म, न कि डॉक्युमेंटरी! शायद नहीं। लेकिन अब कड़कनाथ क्या किसी भी नाथ या अनाथ पर, किसी भी विषय पर, किसी भी कहानी पर फिल्म बन सकती है। वेब सीरीज बन सकती है। कोई विषय न तो छोटा और न ही अछूता है।
हिंदी सिनेमा के उन फिल्मकारों और कहानी लेखकों को, जो बॉलीवुड के स्टार सिस्टम में खुद को बिलकुल अलग-थलग और पिटा हुआ देख रहे थे, नेटफ्लिक्स, अमेजॉन प्राइम, हॉटस्टार, जी फाइव जैसे स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म ने नई जिंदगी दे दी है। अपने पिटारे में फिल्मों और सीरियल की कहानी लेकर दर-दर भटकने वाले लेखकों की अचानक डिमांड बढ़ गई है।
अब वे शॉर्ट फिल्म और वेब सीरीज का आइडिया और प्लॉट लेकर घूम रहे हैं। अच्छी बात यह है कि उन्हें सुनने के लिए प्रोड्यूसर उन्हें बुलाने लगे हैं और अगर पसंद आ जाए तो अच्छी खासी रकम एडवांस के तौर पर देने भी लगे हैं। कड़कनाथ मुर्गे पर नेटफ्लिक्स की आने वाली फिल्म पर भी ठीक-ठाक पैसे खर्च किए जा रहे हैं।
भारत के इस ओवर द टॉप (ओटीटी) वीडियो मार्केट में सबसे बड़ा खिलाड़ी नेटफ्लिक्स है। कुछ समय पहले इसने भारत के लिए करीब दस ऑरिजिनल सीरीज बनाने की घोषणा की थी, जिसमें कुछ तो बन के तैयार हो गई हैं और एक दो तो रिलीज भी हो चुकी हैं। हाल में इनकी एक सीरीज ‘दिल्ली क्राइम’ की बड़ी तारीफ भी हुई है, जो 2012 के निर्भया गैंगरेप मामले पर आधारित है।
इसके अलावा, ‘बाहुबलीः बिफोर द बीगिनिंग’, ‘मिडनाइट चिल्ड्रेन’, ‘बार्ड ऑफ ब्लड’ (सर्विस से निकाले गए एक इंटेलिजेन्स एजेंट की कहानी जो पंचगनी में प्रोफेसर बनकर रहता है, लेकिन अपने देश और अपने प्रेम को बचाने के एजेंडे पर काम कर रहा है), ‘लीला’ (हुमा कुरैशी मुख्य भूमिका में है), ‘क्रोकोडाइल’, ‘टाइपराइटर’, ‘मिडनाइट्स चिल्ड्रन’, ‘माइटी लिटल भीम’, ‘मुंबई इंडीयंज’, जैसे कई सीरीज हैं, जो प्रोडक्शन के अलग-अलग स्टेज पर हैं।
इनके अलावा, नेटफ्लिक्स ने कई भारतीय फिल्मकारों से भी बात की है, जो इसके लिए फिल्में बना रहे हैं। ज्यादातर ऐसी फिल्में वे लोग बना रहे हैं जो अभी तक अपनी कहानी के लिए प्रोड्यूसर खोजने का संघर्ष कर रहे थे। खास बात यह है कि ये फिल्में सिर्फ नेटफ्लिक्स के प्लेटफॉर्म पर ही उपलब्ध होंगी।
इसके उलट, नेटफ्लिक्स की प्रतिद्वंदी अमेजॉन प्राइम की योजना फिल्में बनाकर सिनेमा हॉल में रिलीज करने की है। इसने भी हिंदुस्तानी फिल्मकारों को फिल्में बनाने के लिए अप्रोच किया है और साल में कम से कम बीस-पच्चीस फिल्में बनाने का इरादा रखती है। हाल ही में, अक्षय कुमार ने भी काफी नानुकुर करने के बाद अमेजॉन प्राइम के लिए एक बड़ी सीरीज साइन की है। कहा जा रहा है कि इसके लिए अक्षय ने पूरे सौ करोड़ रुपये लिए हैं।
इन दोनों की ही तरह हॉटस्टार ने भी अपने मौलिक कंटेंट को डबल करने का लक्ष्य रखा है। हॉटस्टार ने घोषणा की है कि यह इस साल और अगले साल तक कम से कम पंद्रह फीचर फिल्में बनाएगा। इसके लिए इसने मुंबई के कई फिल्मकारों को अप्रोच किया है। इसने सलमान खान और शेखर कपूर जैसे कुछ बड़े नाम को भी अप्रोच किया है। जी समूह का ओटीटी प्लेटफॉर्म जी 5 भी ऑरिजिनल कंटेंट के लिए खूब पैसे खर्च कर रहा है और कई नई सिरीज बनवा रहा है।
दरअसल, जिस गति से नेटफ्लिक्स, अमेजॉन प्राइम जैसे प्लेटफॉर्म आगे बढ़ रहे हैं और पैसे खर्चकर रहे हैं, यह न केवल हॉलीवुड बल्कि बॉलीवुड के परंपरागत सिनेमा और फिल्म प्रोड्यूसरों के लिए बड़ी चुनौती और खतरा बन रहे हैं। यह कहा जाने लगा है कि नेटफ्लिक्स फिल्मों के लिए वरदान है, लेकिन सिनेमा के लिए मौत! यहां, सिनेमा से आशय बड़े परदे पर सिनेमाहॉल में रिलीज होने वाली फिल्मों से है।
हॉलीवुड के बहुत बड़े फिल्म डायरेक्टर स्टीवन स्पील्बर्ग ने नेटफ्लिक्स के खिलाफ बाकायदा अभियान चलाया हुआ है और वह किसी ऐसी फिल्म को ऑस्कर अवार्ड दिए जाने के खिलाफ हैं जो नेटफ्लिक्स द्वारा बनाई गई है या उनके प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध किए जाने के लिए मूल रूप से बनाई गई है। उनका तर्क है कि ऑस्कर अवार्ड्स सिनेमा के लिए है न कि नेटफ्लिक्स जैसे टीवी या वीडियो प्लेटफॉर्म के लिए।
बहलहाल, स्पील्बर्ग एक बड़े नाम हैं, इसमें संदेह नहीं लेकिन ज्यादातर फिल्मकारों के लिए कम से कम अभी तक नेटफ्लिक्स या अमेजॉन प्राइम जैसे प्लेटफॉर्म वाकई एक वरदान बन कर आया दिख रहा है। अब रीमा दास जैसी उन असमिया फिल्मकार का मामला लीजिए जिनकी फिल्मों में कोई बड़ा या छोटा फिल्म निर्माता पैसे लगाने के लिए तैयार नहीं था। कुछ समय पहले इंडस्ट्री में यह खबर गरम थी कि रीमा दास के करीब दस लाख के बजट वाली फिल्म विलेज रॉकस्टार्स को नेटफ्लिक्स ने करीब दो करोड़ रुपये में खरीद लिया था। इस फिल्म को भारत की ओर से ऑस्कर अवार्ड प्रविष्टि के तौर पर भेजा गया था। हालांकि यह फिल्म उस पुरस्कार से कोसों दूर रही। तो आप देखिए कि पंद्रह लाख के बजट वाली फिल्म को अगर दो करोड़ रुपये लौट आएं तो क्या कहना!
इसका असर यह हुआ है कि अचानक न केवल कंटेंट या मौलिक कहानी या आइडिया के लिए मारामारी होने लगी है बल्कि कई सालों से संघर्ष कर रहे फिल्मकार जैसे-तैसे छोटे बजट की ही सही, फिल्म बनाकर ऐसे प्लेटफॉर्म को फिल्म बेचने का सपना देखने लगे हैं। कई मामले में उनका सपना सच होता भी दिखने लगा है।
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